कुछ वक्त बीता है जब हमारे बुज़ुर्ग ये सिखाते थे कि लोकतंत्र चार स्तंभों पर टिका है और जनता को इसपर अटूट विश्वास है। लेकिन “मीडिया” जिसको लोकतंत्र का सबसे मज़बूत, जनता के करीब और जनता से सरोकार रखने वाला स्तंभ माना जाता था वह अब लड़खड़ाता हुआ नज़र आ रहा है। इस चौथे खंभे में जंग इस प्रकार लग चुकी है कि यह कभी भी गिर सकता है। अगर इस बात से कोई असहमति हो तो जो कारनामा दैनिक जागरण ने हाल ही में कर दिखाया उसे याद कर लीजिए। नौबत ये आई कि चुनाव आयोग को दैनिक जागरण पर FIR करने का आदेश देना पड़ा।
चुनाव आयोग के मना करने के बावजूद दैनिक जागरण ने उत्तर प्रदेश में प्रथम चरण के मतदान के बाद एग्जिट पोल छाप दिया। जिसमें BJP को टॉप पर रखा गया था। ये कानून के खिलाफ है।
2012 में कुछ ऐसा ही वाक्या प्रसिद्ध एंकर व ज़ी न्यूज़ के एडिटर सुधीर चौधरी और ज़ी बिज़नेस के संपादक समीर आहलुवालिया के साथ हुआ था। उद्योगपति व कांग्रेस के पूर्व सांसद नवीन जिंदल ने एक सीडी जारी की थी जिसमें उनकी कंपनी के खिलाफ खबर रुकवाने के लिए सुधीर चौधरी और समीर आहलुवालिया ने उनसे सौ करोड़ रुपये की मांग की थी। जिसके तहत दोनों को तिहाड़ जेल जाना पड़ा था। वर्तमान में केस कोर्ट में है, ये दोनों बेल पर बाहर हैं और सुधीर चौधरी आज भी एंकरिंग कर रहे हैं। क्या ऐसे लोगों को मीडिया में रहने का हक है? जो पैसे लेकर खबर चलाते व बंद करते हैं।
मीडिया( इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट व सोशल) एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जिसके सहारे हर छोटे से छोटे व्यक्ति को अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने का मौका मिलता है। लेकिन मीडिया ने भूमंडलीकरण की आड़ में अपना ऐसा विकास किया है कि यह पूर्ण रूप से व्यापार में तब्दील हो गया है। अमीर पत्रकार व व्यापारी अपना पैसा व शोहरत कमाने के लिए छोटे व ईमानदार पत्रकारों का शोषण करते हैं व मनचाही खबरों का प्रसारण करते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे युवाओं का कहना है कि इस समय लगभग हर न्यूज़ चैनल का अपना एक मीडिया इंस्टिट्यूशन है। जिसमें हर न्यूज़ चैनल अपनी-अपनी विचार धारा के हिसाब से भविष्य के पत्रकार बनाते हैं। जो उन्हीं के चैनेल या अखबार में काम करते हैं। दूसरे इंस्टिट्यूशन के छात्रों को कई न्यूज़ चैनल में नहीं रखा जाता है।
पिछले साल 2016 में हिंदी अकादमी द्वारा आयोजित कार्यक्रम “पत्रकारिता(प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक्स) की विश्वसनीयता” में कुछ पत्रकारों ने अपना कष्ट बयां करते हुए कहा कि “एक निम्न स्तर का पत्रकार जो दिन भर जोखिम उठा कर रिपोर्टिंग करता है और न्यूज चैनलों को खबर देता है उसको इतनी कम तनख्वा मिलती है कि वह अपना व अपने परिवार का ठीक तरीके से गुजारा नहीं कर पाता है। पत्रकार की अगर अकस्मात मृत्यु हो जाती है तो उसका परिवार दर दर की ठोकरे खाने पर मजबूर हो जाता है।”
कानपुर व दिल्ली शहर के प्रतिष्ठित अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों(नाम बताने से मना किया गया) का कहना है कि “पत्रकारिता में काम ज्यादा है व पैसा बहुत ही काम है और युवाओं को यह सलाह है कि वे पत्रकारिता के क्षेत्र में बिल्कुल भी न आएं। इसमें भविष्य पूर्ण रूप से खतरे में है। जो पत्रकार मशहूर नहीं हैं उन्हें बस दिहाड़ी के बराबर पैसे दिए जाते हैं।” ये केवल कानपुर व दिल्ली के पत्रकारों का हाल है बाकी शहरों की स्थिति और ज्यादा खतरनाक होगी। पत्रकारों की ये स्थिति पूर्ण रूप से यह बयाँ कर रही है कि आने वाले समय में लोकतंत्र पर काले बादल छाने वाले हैं। जिनके प्रकोप से सब अंधकारमय हो जाएगा।
दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस, हिंदू व अम्बेडकर कॉलेज के विद्यार्थियों से जब “मीडिया की विश्वसनीयता” का प्रश्न पूछा गया तो उनका कहना था कि “आजकल मीडिया में पेड न्यूज़ का ज़माना चल रहा है। जो ज़्यादा पैसा देगा उसी की खबर चलेगी व उसी के गुणगान गाये जायेगें। सच्चाई को दबा दिया जाता है।
करीना कपूर की प्रेग्नेंसी, विराट अनुष्का का प्यार व सास बहू की बाते दिखाने का न्यूज़ चैनल के पास समय है लेकिन गरीब, किसान व शोषित वर्ग की समस्याओं को सरकार व जनता तक पहुँचाने का समय नहीं है। युवाओं की रोज़गार की समस्याओं को दिखाने का समय नहीं है।”
विज्ञापनों ने मीडिया के पूर्ण रूप से हाथ बांध कर रख दिए है। जनता के टैक्स का पैसा कम व विज्ञापन दाताओं का पैसा ज्यादा लगा होने के कारण मीडिया दब सा गया है। मीडिया को अगर उठाना है तो इसमें जनता का पैसा ज्यादा व विज्ञापन दाताओं का पैसा काम करना होगा। तब जाकर मीडिया की विश्वसनीयता दिखाई देगी।
जनता व समाज के भविष्य(युवाओं) की यह सोच मीडिया के लिए एक चेतावनी है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हाशिये पर है। अगर अभी इस पर ध्यान देकर इसमें सुधार नहीं किया गया तो इसके टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे।
(यह लेख Youth Ki Awaaz के इंटर्न रोहित सिंह, बैच-फरवरी-मार्च 2017, ने लिखा है)