दुनिया का पहला गणतंत्र माने जाने वाले वैशाली से दुनिया के सबसे वड़े गणतंत्र भारत तक का सफ़र काफी रोमांचक रहा है। तमाम राजनीतिक सिद्धान्तों और व्यवहारिक उठापटक के बाद दुनिया ने एक ऐसी व्यवस्था विकसित की है जिसमे सुदूर गांव में रहने वाला सुलोचनवा भी जोर से कहता है कि “ई हमारी सरकार है।”
राजतन्त्र में रची जाने वाली दुरभिसंधियों ,छल और कपट के चक्रव्यूहों के बीच चलने वाली सरकार से बिलकुल अलग ये वो सरकार है जिसके खिलाफ हर पांच साल पर गंगा के दियारा में बनने वाली देशी शराब मिस्टर इंडिया या पावर हाउस पी कर वह किसी भी शासक का कमीज़ पकड़ कर जोर से चीख उठता है कि ‘तू ही मेरा भाग्यविधाता है ,तो अब तक कहा था?
‘यह दृश्य उस बादशाह के चरण चूमने के दृश्य से बिलकुल अलग है ,जहां दरबार में अपनी सुख-शांति के लिए लोगों को राजा के सामने लेटना तक पड़ता था। हालांकि इसको पाने के लिए हज़ारो साल की कुर्बानी और उससे निरंतर सीख लेने की प्रक्रिया शामिल है। तभी तो दुनिया के हर कोने से “बाय दी पीपुल,फ़ॉर दी पीपुल,ऑफ़ दी पीपुल” की गूंज सुनाई पड़ती है।
चुनाव की घोषणा के बाद से ही भारत में बसंत का आगमन हो जाता है, हालांकि ये महज़ सयोंग ही है कि मदनोत्सव ने अबकी स्वयं ही दरवाज़े पर दस्तक दिया है। लोकतंत्र के कई सहभागी है। कुछ चुनाव लड़ेंगे तो कुछ चुनाव लड़वायेंगे तो कुछ केवल मत डालेंगे,वास्तव में कार्य का विभाजन भी हम भारतीय रोचक तरीके से इस उत्सव में कर लेते हैं। काश कि [envoke_twitter_link]प्रेमचंद के घीसू और माधव होते तो इस मौसम में भूखे नहीं सोते![/envoke_twitter_link]
हर तंत्र की अपनी सीमा होती है लोकतंत्र भी इस नियम का अपवाद नहीं है। मंदिरो-मस्जिदों में आवागमन बढ़ गया है। यह वह समय है जब अगर आस्था को मापा जाये तो शायद बारह वर्ष पर उमड़ने वाले आस्था का जनसैलाब महाकुंभ भी कमज़ोर पड़ जाए। हर नुक्कड़ चौराहों पर जोड़ तोड़ का समीकरण चल रहा है। और इस समीकरण की गोटी बिठाते अनगिनत शेफॉलोजिस्ट हैं जो अंग्रेजी हुकूमुत द्वारा लाई हुई चाय पी रहे हैं या पुर्तगाल से आई हुई तंबाकू रगड़ रहे हैं।
सुलोचन भी पीछे नहीं है वह मुंह में तंबाकू दबाए ब्लॉक प्रमुख की दी हुई चाय पी रहा है! सुलोचन की पैदाइश उन्नीस सौ इक्यावन की है, तब इस देश में पहला आम चुनाव हुआ था। और तब आमजन के लिए यह एक नया प्रयोग था। कम पढ़ी लिखी जनता थी,आज़ादी मिल चुकी थी और लोगो को लगा था कि सारी समस्याओं को हल करने वाली कुंजी मिल गई। तभी ब्रितानिया हुकूमुत के ऐश्वर्य और ताकत की कभी निशानी रही और जो अब हिंदुस्तान की पार्लियामेंट हॉउस हो चुकी है, उसमे उसी समय एक सांसद ने उठकर गेहूं के दानों को हवा में उछाला था ,जो जानवरों के गोबर से धो कर अलग किया गया था।
उस समय देश में ना जाने कितने लोगों का पेट ऐसे ही दानों से भरता था!और शायद तब वहां बैठे सब लोगों का आत्मसम्मान अंदर से हिल गया था। ऐसा सुलोचन का कहना था। वह चार आना बनाम बारह आना के लोहिया और नेहरू के बहस की भी चर्चा किया करता था। और धीरे- धीरे यह भी बताता था कि कैसे -कैसे करके ना जाने कितने लोगों ने लोकतंत्र का सौदा करके करोड़ो की कोठिया बनवा ली। फिर अपनी उंगलियों को होंठो और दांतों के बीच ले जाकर उस तंबाकू को बाहर निकालता फिर अपनी पूरी उम्र के अनुभवों को खंगालते हुए यह घोषणा करता कि अबकी फलाने पार्टी की सरकार बनेगी। यह बहस पिछले सात दशकों से लोगों के शयन कक्ष से लेकर सड़को तक होती ही रहती थी, और ‘पीर पर्वत’ की ऐसी थी जो पिघलने का नाम ही नहीं लेती थी।
सुलोचन ने मुझसे ज्यादा ही दुनिया देख रखा था फिर भी उसके कही बातों का अनुभव मैं स्वयं भी कर रहा था। एक पत्रकार की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपभोग कर रहा होता तो बहुत कुछ लिख सकता था, पर अपनी सेवा की सीमा में रहते हुए जो भी अनुभव किया वो भी काफी अलग था।
चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हो इसकी ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग की होती है, और इस ज़िम्मेदारी का निर्वाहन वह पुलिस – प्रशासन की मदद से करता है। इसी क्रम में मैं उन पुलिसकर्मियों की बात करना चाहूंगा जो इस दौरान शांति व्यवस्था बनाये रखने में शामिल होंगे। ये पुलिसकर्मी आज की तारीख में कम से कम बारह घंटे ड्यूटी कर रहे हैं, साथ ही साथ इनके अधिकारी भी लगे रहते हैं। अपनी निजी समस्याओं को झेलते हुए इन सारे दायित्व का वो निर्वहन बखूबी कर रहे हैं।
रवि जो मेरे साथ गनर ड्यूटी में लगा है ,अपने माँ-बाप का इकलौता लड़का है, उसके पिताजी की कमर की हड्डी कुछ दिनों पहले टूट गयी थी, जिसका उपचार वह नोएडा में करा रहा था। वहां उसके चचेरे भाई रहते हैं जो उसके पिता की देखभाल कर रहे थे। आज सुबह एक फोन आया कि उसके पिता नहीं रहे। उस समय हमसभी निर्वाचन में नामांकन स्थल की सुरक्षा व्यवस्था का रोडमैप तैयार कर रहे थे, बगल में खड़ा रवि रो रहा था, सभीलोग उसे समझाने में लगे थे। पिता का हाथ घर के छप्पर जैसा होता है, जो हर धुप-छांव को चुपचाप सहता जाता है। रवि के सर से वो हाथ उठा गया है, इस समय उस दुःख को वही महसूस कर सकता है। वह उस सूत्र से अलग हो गया जिसके द्वारा वह इस दुनिया से जुड़ पाया था। वह दौड़ कर वहां पहुचना चाहता है, वह सुबह से परेशान था कि जल्दी उसे छुट्टी मिले और वह जाकर अपने पिता को देख सके। इसके लिए उसने प्रार्थना पत्र भी लिख रखा था। लेकिन नियति में पिता पुत्र का मिलना शायद नहीं था। आज शाम में वह कैफ़ियत एक्स्प्रेस से निकल जाएगा।
उधर कचहरी में बचपन का एक दोस्त भी इसी चुनाव ड्यूटी में आया हुआ है। पिछले तीन दिन से उससे मिलने की योजना बना रहा हूं, लेकिन नज़दीक होने के बावजूद मिल नहीं पा रहा। वह भी सिपाही -अधिकारी की मर्यादाओं से घिर चुका है।[envoke_twitter_link] बड़ी नौकरी बड़ी दूरी पैदा करती है।[/envoke_twitter_link]संबंधों की सहजता धीरे धीरे कम होने लगती है। वह अपनी पूरी कंपनी के साथ रुका हुआ है, कचहरी के अहाते में ही एक ओर सभी रुके हुए हैं। सोना -खाना-पीना सभी कुछ वही हो रहा है क्योंकि अन्य व्यवस्था जो भी है वह इससे बेहतर नहीं है। सीढ़ियों के नीचे ही गैस चूल्हा रखकर खाना पका लिया जाता है और सुबह आठ बजे तक कचहरी में हलचल शुरू होने से पहले ही खाना खाकर सभी अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद लग जाते हैं।
[envoke_twitter_link]एक पुलिस वाला आजीवन समाज में रहकर नौकरी करता है[/envoke_twitter_link], लेकिन अपने नज़दीकी सगे सम्बन्धियो के मौको पर नहीं पहुच पाता,और भागमभाग की इस नौकरी में अंततः स्वयं ही अकेला हो जाता है। थोड़ी देर में हमे उन जगहो को चेक करना है जहां केंद्र से आई फ़ोर्स रुकेंगी।इसके लिए तमाम तरह के विद्यालय में व्यवस्था की गयी है।जहाँ रुकने के लिए कमरे,पानी, बिजली, शौचालय इत्यादि की व्यवस्था रहती है। हम अपने गंतव्य की ओर निकल चुके है। हम गांव की ओर बढ़ चले हैं। लगभग हर गांव के बाहर यहाँ एक मूर्ति लगी हुई है, जिसमें एक हाथी है और उसपर दो लोग बैठे हुए है। जिसमे से एक कोई देवता लग रहे है, पूछने पर पता चला कि ये गांव के डीह देवता है, जो गॉव की रक्षा करते हैं।
ऐसे कई विश्वास है जिसके सहारे हम जीते हैं। सामने महाविद्यालय का रास्ता है जहाँ हमे पहुंचना है, ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ लिया है। मुड़ते ही दाहिने तरफ से कुछ शोर ने हमारा ध्यान खीच लिया है। दसियों ट्रैक्टर हैं जो भाग रहे हैं, जिनके पीछे की ट्रॉली ऊपर उठी हुई है।हालत ये है कि अगर कोई सामने आ जाए तो सेकंड भर में ही उसका कीमा बन जाएगा। माज़रा समझने तक में हम कॉलेज तक पंहुच गए हैं।यह किसी सम्मानित जनप्रतिनिधि का कॉलेज है। अंदर से इसके प्रबंधक निकलकर आगवानी में खड़े हैं। यहाँ कुछ ज्यादा ही सम्मान मिलता दिख रहा है। महोदय कुछ परेशान से दिख रहे हैं, इनके हाथ जोड़ने में कमर की लचक का भी पता चल रहा है। इन सबके पीछे वज़ह वहां निर्माणाधीन एक बिल्डिंग है जिसमें अवैध तरीके से मिटटी का खनन कर उन ट्रैक्टर वालों द्वारा भरा जा रहा था।
ऐसी ही बेशर्म विनम्रता मैं कई बेईमानों के अंदर पाता हूं। अंदर परीक्षण के दौरान शौचालय की स्तिथि बेहद खराब है। मानक को तो वह पूरी नहीं करती और गंदगी भी मत पूछिए। [envoke_twitter_link]जहाँ सोच वहां शौचालय के हिसाब से यहाँ सोच का आभाव है। [/envoke_twitter_link]शिक्षा कारोबार का जरिया हो चुका है। लेकिन व्यापार में भी एथिक्स की जगह होनी चाहिए नहीं तो यह महापाप की श्रेणी में आता है। [envoke_twitter_link]लोगों के लूट का केंद्र हो गए हैं ऐसे विद्यालय।[/envoke_twitter_link]हाल के वर्षों में ऐसे कई उद्यम आगे बढे हैं जिसमे सार्वजनिक धन का दुरुपयोग तेजी से हुआ है। शिक्षा भी एक ऐसे ही उद्योग का उदाहरण है। लगभग हर स्कूल में कोई न कोई भवन किसी न किसी विधायक या संसद निधि से बना हुआ है।
गज़ब का नेक्सस है। सरकारी स्कूलों की हालत को आप वहां के नामांकन दर से और वहां पढ़ रहे बच्चों के अभिभावक की आर्थिक स्थिति देखकर पता लगा सकते हैं। उसके बाद कई स्कूलों का निरीक्षण किया गया, कई जगहों पर लोग चाहते ही नहीं कि उनके यहाँ फ़ोर्स आकर रुके। उनके हिसाब से ये लोग असभ्य होते हैं, उनको रहने नहीं आता। कईयों का तो देशभक्ति का लिटमस टेस्ट भी साथ ही साथ होता जा रहा है। कोई भी अपना कुछ भी दांव पर नहीं लगाना चाहता। [envoke_twitter_link]जो कमजोर है या मजबूर है वही देशभक्ति या विकास की कीमत चुका रहा है।[/envoke_twitter_link]नहीं तो अधिकांशतः सबका हिस्सा बंटा हुआ है।समाज में अगर आपकी कीमत लगी हुई है तो आपकी स्वीकार्यता ज्यादा है। चुनाव का यह गंभीर उत्सव चलता रहेगा। प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन और चुस्ती से करेगा क्योंकि अभी भी हमें लोगो के आकांक्षाओं तक पहुचने में काफी मशक्कत करनी है।