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डिप्रेशन पर कंट्रोल नहीं होता, लेट्स टॉक अबाउट इट

डिप्रेशन, एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में हमारा भारतीय समाज कभी खुलकर बात नहीं करता। यूं तो अधिकतर मामलों में रोगी खुद ये मानने को तैयार नहीं होता कि वो डिप्रेस्ड है। कहीं अगर कोई अपनों से इसका ज़िक्र करता भी है, तो उसे परिवार वाले ही कहते हैं कि दिमाग पर नियंत्रण रखो, खुद को व्यस्त रखो आदि-आदि। ये कहते हुए उन्होंने कभी ये नहीं सोचा होता है कि दिमाग को भी नियंत्रण की आवश्यकता है क्या? क्या थाइराइड के रोगी से थायरोक्सिन हॉर्मोन को नियंत्रण में रखने को कह सकते हैं? ब्लडप्रेशर का रोगी अपने ब्लडप्रेशर को नियंत्रण में रख सकता है भला! ये एक मानसिक बीमारी है और अन्य बीमारियों की तरह ही हमारा इस पर कोई नियंत्रण नहीं। जैसे हम ब्लडप्रेशर, शुगर, कोलेस्ट्रॉल आदि अन्य बीमारियों से ग्रसित हो सकते हैं, उसी तरह डिप्रेशन के भी शिकार हो सकते हैं।

मतलब ये कि हर बीमारी का अपना एक अलग इलाज है। फिर जब हमारे यहां लोग डिप्रेस्ड होते हैं तो हम समाज को ये क्यों नहीं कह पाते कि हां ये बीमार हैं और हम डॉक्टर/साईकाईट्रिस्ट से मिल रहे हैं।

अगर कोई डिप्रेस्ड है और उसके परिवार ने सही समय पर इसे पहचान कर, उसे आम बीमारी की तरह स्वीकार भी कर लिया है, तो ये रोगी के लिए बहुत अच्छा है। पर रोगी की समस्या यहीं खत्म नहीं हो जाती। हां कम-से-कम उन्हें उन लोगों की तरह नहीं जीना पड़ता जिसके परिवार में ही उसकी ये बीमारी स्वीकार्य नहीं है और वो बिना दवा के अपने दिमाग को नियंत्रण में रखकर जीने या यूं कहें कि घुट-घुट कर जीने को मजबूर है।

वैज्ञानिकों के अनुसार मस्तिष्क में सेरोटोनिन नामक एक रसायन होता है जो मस्तिष्क में दो सेल्स के बीच न्यूरो ट्रांसमीटर्स की तरह कार्य करता है। यह मूड बैलेंस, यादाश्त, एकाग्रता, भूख आदि के लिए ज़िम्मेदार होता है। उनका मानना है कि सेरोटोनिन के असंतुलन की वजह से डिप्रेशन होता है। हालांकि इसको लेकर वैज्ञानिक निश्चित नहीं हैं कि इसकी कमी से डिप्रेशन होता है या डिप्रेशन की वजह से सेरोटोनिन कम हो जाता है, क्योंकि मस्तिष्क के अंदर सेरोटोनिन लेवल की जांच हो पाना अभी तक संभव नहीं हुआ है।

डॉक्टर्स के अनुसार इस बीमारी में रोगी का दिल किसी काम मे नहीं लगता। थकान, कमज़ोरी नींद, एकाग्रता व भूख की कमी होती है। रोगी उदास व अकेला महसूस करता है साथ ही जीने की इच्छा न होना व ख़ुदकुशी की प्रवृति जैसे लक्षण होते हैं। शुरुआत मे अगर हम इस रोग को पहचान लें तो सायकोथेरेपी जिसे टॉक थेरेपी भी कहते हैं से काम बन सकता है।

इसमें सायकोलोजिस्ट रोगी के साथ बात कर उन्हें उनकी बीमारी का अहसास दिलाते हैं। रोगी को स्ट्रेस न लेने और अपने मूड स्विंग्स को (जो उनकी बीमारी की अहम वजह होती है) समझने को कहा जाता है। साथ ही उन्हें ये समझाया जाता है कि जो चीज उन्हें परेशान कर रही है, उसका कैसे सामना कर सके या उससे निजात पा सके। सबसे अहम बात कि सायकोलोजिस्ट पहले उन्हें समझते है, बिना निर्णायक बने। लेकिन कई मामलों में जब रोगी को दवा की ज़रूरत होती है, तो सायकायट्रिस्ट की सलाह के अनुसार उन्हे एंटीडिप्रेसेंट दवाएं लेनी पड़ती हैं।

आज हमारे देश मे लगभग 40 प्रतिशत लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (world health organisation) जैसी संस्थाएं लोगों को जागरूक बनाने के लिए अपने तरीके से काम कर रही हैं। अभी हाल में ही उन्होंने लेट्स टॉक डिप्रेशन कैंपेन शुरू किया है, पर छोटे शहरों और गांवों में इसके प्रति सजकता लाना ज़रूरी है। डॉक्टर्स को इस बीमारी के प्रति सजगता लाने के लिए आगे आना चाहिए।

साथ ही डिप्रेस्ड पेशेंट के परिवार को भी इस बीमारी को छिपाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, ताकि रोगी खुद को अलग न समझे। साथ ही उनके बात करने से समाज में आस-पास कोई और जो इस बीमारी से जूझ रहा हो लेकिन समझ नहीं पा रहा हो, उसे भी दिशा मिले। आए दिन हम किसी न किसी जगह से डिप्रेशन से ख़ुदकुशी कर लेने की घटनाओं के बारे में सुनते हैं। अगर डिप्रेशन को लेकर एक बेहतर सोच बनाई जाए व डिप्रेस्ड लोगों के लिए हमारे परिवार, वर्कप्लेस व समाज मे बेहतर माहौल बन सके तो शायद ऐसी घटनाएं न हों।

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