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शादियों में अब लोकगीत से ज़्यादा फिल्मी गानों पर ठुमकने लगे हैं हम

शादियों का सीज़न एक बार फिर आ चुका है। एक बार फिर से हम सब के घरों में शादियों के इनविटेशन कार्ड्स आने शुरू हो गए हैं। कुछ करीबी लोगों की शादियां होंगी तो कुछ शादियां ऐसी भी जहां सिर्फ खाने के लिए जाना होता है। वो इसलिए कि समय आने पर हम भी उन्हें अपने घर की शादी में बुला कर भीड़ बढ़ा सकें।

आजकल की शादियों में हम खुशी से ज़्यादा दिखावे पर ध्यान देने लगे हैं। किसने अपने बच्चे की शादी में कितना खर्च किया, दुल्हे और दुल्हन ने कितने महंगे और फैशनेबल कपड़े पहने, मेकअप कैसा था, खाना कैसा था, रिलेटिव्स कैसे थें, अरेंज मैरेज थी या लव कम अरेंज। और अगर लव वाला एंगल है तो किसने किसकी बात मानी। कास्ट क्या है दोनों की, रिलिजन क्या है। दूल्हे-दुल्हन का रंग कैसा है, सैलरी कितनी है ये सभी चीज़ें बहुत ज़रूरी हैं आज के हिसाब से, यहां तक की दहेज भी। खैर पहले और अब की शादियों में एक और अंतर है और वो है लोकगीतों का

”ओ सासु बेटा बेटा ना कर अब ये मेरा बालम है।”

हर रस्म के लिए अलग गीत। कुछ गुदगुदाते, कुछ रुलाते तो कुछ पांव को थिरकाने पर मजबूर कर देते हैं। इन गीतों में बड़ों की सीख, उनकी चुहलबाज़ी, छेड़खानी सब छुपी होती थी। एक अलग ही समा बांध दिया करते थे ये लोकगीत। दादी-नानी, आंटियां, मौसी, सहेलियां, सब मिलकर लड़के-लड़की की ज़िंदगी की नयी शुरुआत में इन गीतों से मिठास घोल देते थे। पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोकगीत ना सिर्फ गाये जाते रहे हैं बल्कि बड़े ही शौक से सीखे और सिखाये जाते रहे हैं। यहां तक कि कुछ टांग खीचाई और हल्की फुल्की गालियों वाले लोकगीत भी शगुन के तौर पर शादियों का हिस्सा रहे हैं।

नानी-दादी कहती थी एक यही मौका होता था जब गालियों वाले लोकगीत को सब हंसी-खुशी बिना शिकायत के सुन लेते थे। तब की शादियों में तो महिलाओं का एक ग्रुप सिर्फ गीत गाने के लिए ही बारात में शिरकत करता था ताकि दूल्हा पक्ष किसी भी तरह दुल्हन पक्ष से कम ना पड़ जाए।

पर आज की तारीख में शादियों में लोकगीत की जगह शीला की जवानी जैसे बॉलीवुड के गानों ने ले ली है। दौर बदला है और शायद इसलिए लोगों का म्यूज़िक टेस्ट भी। या फिर यूं कहें कि दिखावे के लिए भी लोकगीत की जगह बॉलीवुड के गानों ने ले ली है।

माना उनकी सोच थोड़ी आउटडेटेड होती हैं, पुरानी होती है पर प्यार तो उनका आज भी सच्चा ही है। उनकी सीख भले ही हम ना माने पर सुनने में शायद कोई हर्ज़ नहीं। ठीक उसी तरह लोकगीतों की समझ हमें भले ना हो और हमें सीखने में दिलचस्पी ना हो पर एक बार अगर हम उन लोकगीतों को सुनना शुरू कर देते हैं तो यकीन मानिए उनकी धुनों में डूब ही जाते हैं।

मैं बिहार से हूं और यहां लोकगीतों  की अपनी परंपरा रही है। सिर्फ शादी ही नहीं बल्कि बच्चे के जन्म से लेकर होली, छठ पूजा और हर तरह के पारिवारिक उत्सवों में गाए जाते हैं। और लोकगीतों की वजह से भी त्योहारों का अपना महत्व बन जाता है।

इन लोक गीतों में छुपे मतलब को जानने के बाद सुनने में और भी मज़ा आता है। इक्के-दुक्के घरों की शादियों में आज भी लोकगीत सुनने को मिल जाते हैं। गांवो में ये परंपरा अभी तक बची हुई है, और ये धरोहर बचे रहें इसलिए प्रयास होने चाहिए।

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