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लड़कों के लिए कोर्ट खाली कर दो, लड़की हो खेलकर क्या करोगी?

मेरा बचपन छत्तीसगढ़ के कवर्धा ज़िले में बीता। एक छोटा सा शहर- गांव, पेड़-पौधे, जंगल इन सभी से बेहद करीब। बचपन से ही खेलने-कूदने का बड़ा शौक था। ऐसा लगता जैसे सारी दुनिया छोड़ के बस सारा दिन खेलते ही रहूं।

आप सभी ने बचपन में कोई न कोई खेल ज़रूर खेला होगा। कभी गली क्रिकेट तो कभी बिना नेट लगाये बैडमिंटन भी खेला होगा और कबड्डी तो कैसे भूल सकते हैं। जो बिल्कुल न भूलने जाने वाला खेल था, वो था लुका-छुपी। कभी पड़ोसी की छत पर छुपना तो कभी ट्रैक्टर के नीचे।

यह सभी खेल खेलते-खेलते मैं भी 10 वर्ष की हो गई थी, जब घर के पास नया बास्केटबॉल ग्राउंड बना तो ज़ाहिर है कोच भी आये और फिर सभी उम्र के बच्चे भी खेलने आने लगे। एक दिन पापा ने मुझे और मेरे भाई को भी वहां ले जाकर खेलना शुरू करवा दिया।

कुछ समय बाद इस खेल में मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी और यह इतनी बढ़ी कि मुझे NBA खिलाड़ी बनने के भी सपने आने लगे। उस वक्त उम्र कम थी तो यह भी नहीं पता था कि वहां तक पहुंचने के लिए सिर्फ अच्छा खेलना काफी नहीं है। कई मुश्किलें जो रास्ते में अपना पहरा दे रही होंगी, उन्हें भी पार करना होगा।

हर 2-3 साल में ग्राउंड की मेंटेनेंस करवाना बेहद ज़रूरी हो जाता है। फिर वहां एक ग्राउंड में लाइट्स लगी जिससे खेलने की व्यवस्था और अच्छी हो गयी। वहीं एक दूसरा ग्राउंड भी था और उसमें कोई भी व्यवस्था नहीं की गई थी। पहले वाले ग्राउंड में हमेशा लड़के खेला करते और दूसरे पर लड़कियां। लड़कों को नयी गेंद भी मिलती पर लड़कियों को कभी-कभी भी गेंद मिल जाए तो बहुत बड़ी बात थी। फिर एक दिन मैंने कोच से पूछा कि ऐसा भेदभाव क्यूं? उन्होंने कहा कि लड़के जब कुछ भी करते हैं, तो पूरी लगन से करते हैं।

मुझे यह सुनकर ज़्यादा दुःख नहीं हुआ था, क्यूंकि सच्चाई यही थी कि वहां पर वाकई लड़कियों की टीम भी नहीं थी। पर दुःख इस बात का था कि कहीं न कहीं लड़कियों को इतनी आज़ादी ही नहीं थी कि वो दिन के 2 घंटे भी प्रैक्टिस करने आ पाएं।

जो 4-5 लड़कियां आती थी, उन्हें भी इस वजह से कई दिक्कतें आती थी। सबसे पहली तो ये कि घर पर इस बात का क्या जवाब दें कि जब कोई और खेलने नहीं आता तो तुम क्यूं जाती हो?  मेरी निजी ज़िंदगी में भी यही पाबन्दी थी, स्कूल से आने के बाद 2 घंटे की कोचिंग क्लास तो जाना ही होता था।

दिक्कत ये थी कि खेलने जाने के वक़्त पर ही कोचिंग रहती, इस वजह से  खेलना कूदना बंद हो जाता। उससे भी बड़ी समस्या तब, जब परीक्षा के परिणाम अच्छे न हों, फिर तो अगली परीक्षा तक ही खेलना बंद। ऐसा लगता था जैसे अगली किरण बेदी तो पढ़ लिख के मैं ही बनूंगी। पर कभी किसी ने यह नहीं कहा कि सानिया मिर्ज़ा बन जाओ।

यह तो बात थी घर की, पर इन सब के लिए मैं अपने माता-पिता को दोष नहीं देना चाहती। क्यूंकि उनको भी अपने जीवन में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। वो तो बस यही चाहते थे कि हमें वो सब न देखना पड़े।

असल तकलीफ तो स्कूल में आई, जब मैं और कुछ 6-7 लड़के-लड़कियां साथ बास्केटबल खेल रहे थे। तभी शायद किसी ने जा कर टीचर से यह शिकायत कर दी कि लड़के और लड़कियां एक साथ कैसे खेल सकते हैं। बस फिर क्या था, टीचर ने हम सभी को बुलाया और बड़े ज़ोरों से आदर्शवादी भाषण भी सुना दिया।

पर आदत से मजबूर, मैं कैसे चुप रह सकती थी जब कुछ गलत किया ही नहीं था। मैंने भी उनसे पूछ ही लिया कि इसमें गलत क्या है और साथ खेलने के लिए किस तरह की परमिशन की ज़रूरत होती है। इसके बाद तो स्कूल में मुझे काफी दिनों तक बास्केटबॉल खेलने का मौका ही नहीं मिला।

फिर एक साल के बाद हम भिलाई चले गए क्यूंकि वहां पढ़ाई बेहतर थी। तब मुझे लगा कि बड़ी जगह है, खेलने का अच्छा मौका मिलेगा और वो मिला भी। मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा मौके मुझे वहां मिले।

प्रैक्टिस के दौरान कभी-कभी हमारे कोच लड़कों के साथ भी मैच करवाते थे। इसमें अच्छी बात यह थी कि मैच काफ़ी स्ट्राँग होता जा रहा था। पर जो गलत हो रहा था वो था मेरे खेल का हिंसात्मक होता जाना। उसका कारण यह था कि खेलते वक्त कुछ लड़के जानबूझ कर पास आते और मुझे धक्का देकर चले जाते।

तभी एक दिन भाई ने मम्मी से कहा कि “मम्मी इसके साथ तो अब सारे लड़के खेलने से भी डरने लगे हैं– कहीं भी मार देती है।” पर उस वक़्त किसी को भी यह ख़याल नहीं आया कि मैं क्यूं मारती थी और मैंने किसी को बताया भी नहीं। डर   था कि कहीं खेलना ही न बंद हो जाए।

इस तरह कुछ सालों में मैं ग्यारहवीं में पहुंच गई, फिर पढ़ाई का ज़ोर और डर इस बात का कि कहीं कम नंबर आए तो किसी कॉलेज में एडमिशन भी नहीं होगा। फिर क्या था, खेलना-कूदना बंद हुआ और लग गए उसी दौड़ में जहां पता नहीं कि यह दौड़ कभी ख़त्म होगी भी या नहीं। ये मुश्किलें कोई बहुत बड़ी तो नहीं थी। पर इन छोटी-छोटी मुश्किलों ने भी ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां एक अच्छा खिलाड़ी तो दूर, सिर्फ़ एक खिलाड़ी बनने का सपना भी सपना ही रह गया।

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