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असहमति का इतिहास इतना हिंसक तो नहीं था

विभाजन की बात जब भी शुरू होती है तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती क्योंकि तब के बिछड़े हम फिर कहीं जा कर नहीं मिल पाए। लेकिन आज का विषय विभाजन नहीं है, आज का विषय कुछ अजीब है। विषय है मतभेद, हां आप ठीक सोच रहे हैं कि यह तो रोज़मर्रा की बात है, हर मन की कहानी है। इसमें अजीब क्या है? अजीब है इसका आज का रूप। देखो, कितना नंगा है मतभेद हमारे समय में, ना इसे सभ्यता/एकता/सहिष्णुता का पर्दा है ना विविधता की ओट।

मगर ये शुरुआत से ऐसा हरगिज़ नहीं था, भले ही ये हमेशा से था। क्योंकि कोई भी मत बनते ही, पिछले-अगले मतों से भेद तो हो ही जाते हैं। यह लाज़मी है, है ना? हम्म, आज के पाठकों के लिए शायद लाज़मी ना भी हो।

हां तो मैं कह रही थी कि ये ऐसा नहीं था, यह तो बड़ा उदार हुआ करता था। जिस विभाजन पर हम अभी बात करने से बच रहे थे उसी विभाजन के बाद बाबा साहब (भीम राव अम्बेडकर) की संविधान सभा की सीट जो कि बंगाल से थी लेकिन विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन चुकी थी। जिसके लिए मुस्लिम लीग तक ने उनके के लिए जगह बनाई थी और कांग्रेस ने (पटेल की अगुवाई में) पूरा ध्यान रखा था कि वे बॉम्बे से ना जीत पाएं। इसका अर्थ था कि जिस व्यक्ति ने हमारे संविधान को बेहतरीन रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वो कभी उस सभा की सदस्यता के लिए इन्साफ की गुहार लगाता फिर रहा था। परन्तु कोई सुनता ही नहीं था। असल में उनके मतभेद बहुत थे हर किसी से। तो फिर उनकी मदद किसने की?

कई सदस्य, जो अम्बेडकर से उनके मतभेदों से अधिक उनके विचारों, उनकी बौद्धिक क्षमता को महत्व देते थे और गाँधी जी ने ऐसे समय में उनकी मदद की। हां वही गाँधी जी जो, बाबा साहब के आरक्षण जैसे मुख्य एजेंडे के ही खिलाफ थे। गांधी जी की ज़िद पर कांग्रेस ने (पुनः पटेल की अगुवाई में), उन्हें अपना टिकट दिया। इस टिकट के लिए उन लोगों को मनाया गया जो बाबा साहब के कुछ ख़ास प्रशंसक नहीं थे तथा उसी सीट से लड़ने वाले जी वी मावलंकर को पटेल ने कई तर्कों समेत यह कह कर संतुष्ट किया, “अब सभी को अम्बेडकर चाहिए।” फिर बाबा साहब कांग्रेस के टिकट पर, रैलियों में कांग्रेस के ही विरुद्ध बोलते हुए संविधान सभा तक पहुंचे।

सोचिये ये सभी कौन थे? ये सभी हमारे तत्कालीन नेता थे, जो विभिन्न संगठनों से, विभिन्न मतों के थे जो कभी अम्बेडकर के खिलाफ थे तो कभी उनके साथ। क्योंकि उनका लक्ष्य संविधान का क्रेडिट लेना नहीं, एक बेहतर संविधान बनाना था।वे समझते थे कि किसी भी सही-गलत मत पर बहस की जा सकती है। बस मतों का शामिल होना आवश्यक है, क्योंकि ना ये मुल्क किसी एक का है ना इसका संविधान किसी एक का होगा।

तो यह था मतभेदों का रुक्सार। और यही उदहारण क्यों? उदाहरणों से तो इतिहास भरा पड़ा है, जैसे भगत सिंह और लाला लाजपत राय का ले लीजिये। लाला लाजपत राय, भगत सिंह को रुसी एजेंट बताने लगे और हिन्दू महासभा का हिस्सा बन गए। एच.एस.आर.ऐ. (Hindustan Socialist Republican Association) लाला जी के आंदोलनों में अप्रत्यक्ष भागीदारी देती थी और उनकी मौत के बाद सांडर्स को मारने तक पहुंच गयी। जबकि अब तो पत्थरबाज़ी और जूतेबाज़ी का जमाना है। तुम नारे लगाओ, चाहे गरीबी के खिलाफ ही क्यों ना हों हम ठुकाई करेंगे।

हमारे दौर में मतभेद दुश्मनी की तरह हो गए हैं और दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है ना- चाणक्य नीति। ज़्यादा दूर नहीं जाना चाहते तो देखिये सरकार बनाने के लिए कौन कब किससे हाथ मिला ले अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। वरना जो दिल्ली में कश्मीर का नाम नहीं सुन पाते थे, वो कश्मीर का आलिंगन किये बैठे हैं। किसने ही सोचा होगा कि युवराज के हाथ साइकिल तक पहुंच जाएंगे या माननीय मोदी जी कुमाऊं जाकर गढ़वाली में वोट मांग आएंगे। (भौगोलिक और सांस्कृतिक भेद भी मिट गए)

बस यहीं पर मैं ऊपर कही एक बात को नया रूप दूंगी कि मतभेद जितने नंगे नहीं हैं, नियत उतनी छुपी हुई है। मगर सच बताऊं तो यह सब मैंने विराट और धोनी के लिए लिखा है। बरसों बाद भारत के किसी नेतृत्व में सहकारिता दिख रही है। दोनों मैदान में कितने एक दिखते हैं। उनके निजी संबंधों पर तो मुझे ज़्यादा कुछ पता नहीं, मगर सार्वजानिक सम्बन्ध बेहतरीन हैं। जैसे भारत हारने लगता है तो धोनी भूल जाते हैं कि अब वो कप्तानी छोड़ चुके हैं और विराट सीधा बोल देते हैं कि मुझे तो अभी बहुत कुछ सीखना है।

वाकई, यह मुझे अद्भुत लगता है वरना भारत का राजनीतिक नेतृत्व तो बस एक कविता की पंक्ति भर सा रह गया है कि “शीर्ष पर हर कोई अकेला होता है।” इस पंक्ति के अर्थ के आप जितने अनर्थ निकाल सकते हैं, यह उतनी ही फिट बैठती नज़र आयेगी हम पर। खैर, ये मेरे मत हैं, आपको भेद रखने की पूरी आज़ादी है।

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