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“हां मैं अण्‍डमान हूं, मेरे जिस्‍म में कई घाव हैं।”

प्रकृति सौन्‍दर्य की गाथा का अनेक कवियों ने हिन्‍दी साहित्‍य में वर्णन किया है। प्रकृति से धनाड्य भारत विश्‍वमंच पर प्रकृति सौंदर्य के लिए विख्‍यात है। भारत में प्रकृति अनेक अनूठे स्‍वरूपों में विद्यमान है। कहीं मरू का रेगिस्‍तान तो कहीं विंध्‍य और सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच नर्मदा का मनोरम तट, तो कहीं केरल में नारियली छठा अपनी पूरी ईमानदारी के साथ आच्‍छादित है, तो दूसरी ओर रामेश्‍वरम का मनोहारी धार्मिक भावनाओं के पर्वत स्‍वरूप में निश्चिल अडिग विराजमान है।

प्रकृति के अनुपम अनूठे सौंदर्य की बात हो तो कश्‍मीर की घाटियों/हिमाचली पहाडि़यों के बीच कल-कल बहते जल के साथ-साथ संस्‍कृति बोध/उत्‍तरांखड की पहाड़ियों/पहाड़ से बहती गंगा/यमुना की वादियां/उत्‍तर पूर्व में सिक्किम/असम में बहती वृहत ब्रहमपुत्र और ओडिशा के पुरी तट के प्रकृति प्रदत्‍त सौंदर्य को कभी कोई अपनी कविता की सीमा में नहीं बांध पाया।

लेकिन प्रकृति वर्णन/प्रकृति दर्शन की बात आती है तो उसमें मन कुपित नहीं होता ना आंखें सजल होती हैं। बस आनन्‍दातिरेक में लेखक/पाठक/कवि/दर्शक केवल सुकून/शांति/आनंद की अनुभूति महसूस करता है।

ऐसा कभी नहीं हुआ जब प्रकृति से बर्बरता का भान हुआ हो, लेकिन ऐसा जरूर हुआ है, जब बर्बरता के कारण प्रकृति दर्शन/प्रकृति सौंदर्य और प्राकृतिक सम्‍पदा का ज्ञान हुआ हो। ऐसी प्रकृति के बारे में ज्ञान हुआ अंग्रेज शासन में। अंग्रेज शासकों के अत्‍याचार की कहानी कहती अण्‍डमान में फैली वन सम्‍पदा। नारियलों के ऊंचे-ऊंचे पेड़, बरगदी जीवन जी रहे पीपल/बड़ और कार्बाइन बीच का वह रेतीला सागर। नीले सागर को काले सागर में बदल दिया गोरे लोगों ने।

हां, मैं अण्‍डमान हूं। मेरे जिस्‍म में कई घाव हैं। आपको दो बड़े घाव दिखाई देंगे। अण्‍डमान और रॉस आइलैंड/भारत की हवा में तिरंगे के लिए हर शहर/प्रत्‍येक गांव/जागीर/राजा-रजवाड़े से आवाज़ गूंजने लगी  तो अंग्रेजी हुकुमत की चूल हिलने लगी।

1857 का गदर छाती तान कर खड़ा हो गया। कुछ गद्दार निकले लेकिन जितने खुद्दार निकले उन्‍हें संभालना अंग्रेजों के लिए मुश्किल होने लगा। अंग्रेजों ने गद्दार को ढूंढना शुरू किया। स्‍वतंत्रता सेनानी कम और गद्दार ज्‍यादा हो गए। नतीजतन धर-पकड़ शुरू हुई। भारत की जेलें कम पड़ने लगीं।

स्‍वतंत्रता सेनानियों को जिन जेलों में रखा जाता, जनसमूह उमड़ पड़ता। नारे गूंजने लगते। वंदे मातरम् /भारत माता की जय। हुकुमत ने जाबांज जिन्‍दादिलों को किसी निर्जन स्‍थान पर रखने का मन बनाया, जहां से इनकी आवाज़ खुले आकाश के नीचे बंद कमरों में दब जाए और अवाम न मिल सके/न नारे सुन सके/न लगा सकें।

और फिर खोजा गया प्रकृति का अनूठा भण्‍डार/चारों तरफ पानी, नीले साफ आसमान की तरह बेदाग/वाइपर आईलैंड/हेवलाक आई लैंड/रॉस आईलैंड/निकोबार से आकार में बड़ा। वन सम्‍पदा में मध्‍य प्रदेश को मात करता हुआ/कालांतर में नाम पड़ा अण्‍डमान।

अण्‍डमान में प्रकृति जीवन जन्‍य स्‍वरूप फैली पड़ी है। कार्बाइन और मुण्‍डा पहाड़ बीच के अलावा भी कई बीच हैं। समुद्र अपने पूरे शबाब से सुबह-शाम-रात अपनी मर्दानगी पर इठलाता नज़र आता है। कई तरह के वृक्ष/बेल/फल और घाटियों से भरा-पूरा अण्‍डमान मनमोहक ही नहीं बल्कि मनोहरन भी है।

सेल्यूलर जेल

लेकिन इस प्राकृतिक छटा को निहारने से मन जितना प्रफुल्लित होता है, उससे ज्‍यादा दुखी हो जाता है, ”सेल्‍युलर” जेल देखकर।
पहाड़ी पर बनी यह जेल किसी ऑक्‍टोपस के समान लगती है। जिसकी सात भुजाओं में सैंकड़ों स्‍वतंत्रता सेनानी जकड़े हुए हैं। आज़ादी की लौ में दहकते अंगारों पर चलते, तिल-तिल मरने को मजबूर लेकिन शरीर के दुख कम नज़र आने लगते हैं, जब ऑक्‍टोपस की सातों भुजाओं से आवाज़ गूंजती है- ”भारत माता की जय/वंदे मातरम।

सुबह से रात तक सरसों और नारियल का तेल निकालते/लकड़ियों के लट्ठे चाथम मिल में ले जाने से लेकर कटाई/चिराई/बनाई में लगे स्‍वतंत्रता सेनानियों के ऊपर काम का कोटा पूरा न होने पर चाबुक की मार/झुलसाने वाली गर्मी में टाट के कपड़े/बैंत और कोड़े की मार अलग/इन सबके बावजूद अंग्रेज शासन उनके बुलन्‍द हौसलों और इरादों  को न हिला सका और ना गुलामी के लिए मजबूर कर सका। राष्‍ट्रीय धरोहर/तीर्थों का महातीर्थ कह जाने वाली सेल्‍युलर जेल बर्बरता और अमानवीय नरसंहार की एक जीवंत कहानी है।

जब इस कहानी को लाईट एण्‍ड साउंड कार्यक्रम के मामध्‍य से देखते हैं आप, तब आपकी चेतना शून्‍य हो जाती है, आप बर्बरता को देख/सुन पाते हैं। आपका मन पसीज जाता है। ऐसा शायद ही कोई/पत्‍थर दिल दर्शक होगा जो सजल नेत्रों से सेल्‍युलर जेल से बाहर आता है। ऑक्‍टोपस की भुजाओं में जकड़े वीर सेनानियों की आत्‍मा को सदगति प्रदान हो इसी भावना के साथ जयहिन्‍द का नारा लगाते सजल नेत्रों से जेल से बाहर आकर प्रकृति में फिर से खो जाते हैं।

(फोटो आभार-फ्लिकर)

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