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यूनिवर्सल बेसिक इनकम अपनाने के लिए कितना तैयार भारत?

भारत की अर्थव्यवस्था ने अवश्य पिछले 25 सालों में एक निरंतर बढ़ोतरी देखी है पर गरीबों पर इसका बहुत असर शायद ही दिखे। शायद इसीलिए आज भी अपने देश में 29.5% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। नहीं समझ पा रहे ? लगभग, हर 3 में से 1 व्यक्ति गरीब है।

अगर तेंदुलकर कमेटी की मानें तो शहरों में 1000 रुपये मासिक से जैसे ही आप 1001 रुपये मासिक की आय वाली श्रेणी में आते हैं तो आप गरीब नहीं रह जाते। गावों में यदि आप 816 रुपये मासिक से ज्यादा कमाते हैं तो आप गरीब नहीं रह जाते। यानी शहरों में 33 रुपये प्रति दिन और गाँव में 27 रुपये प्रति दिन तक कमाने वाले को ही गरीब माना जाएगा। ये 2011-2012 में आई तेंदुलकर पैनल की रिपोर्ट में कहा गया था।

2014 में आई भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन के अध्यक्षता में बनी हुई पैनल की रिपोर्ट थोड़ी उदार है । वो मानती है कि शहरों में 1407 मासिक रुपये से अधिक कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं कहलाएंगे। और गावों में 972 रुपये मासिक से अधिक कमाने वाले लोग गरीबी रेखा से उप्पर माना जाएगा। सरल भाषा में शहरों में 47 रुपये प्रति दिन से कम कमाने वाले और गावों में 32 रुपये प्रति दिन से कम कमाने वाले व्यक्ति ही गरीब कहलाएंगे।

अब इस गरीबी को दूर करने के लिए भारतीय सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने एक ऐसी योजना की बात कही है जिसे अंग्रेजी में “यूनिवर्सल बेसिक इनकम” कहते हैं । इसमें देश के हर व्यस्क को एक न्यूनतम राशि मासिक तौर पे देने की बात की गई है जिसे वो व्यक्ति अपने इच्छा के अनुसार कहीं भी और किसी भी तरह उपयोग में ला सकता है । मुख्य आर्थिक सलाहकार की मानें तो ये राशि 1000 से 1500 रुपये मासिक होनी चाहिए।

इस योजना को भारत सरकार द्वारा दी जा रही रियायतों और बाकी जन कल्याण सेवाओं के विकल्प के तौर पे देखा जा रहा है। भारत सरकार ने सन 2016-17  में इन जन कल्याण सेवाओं में करीब 2.5 लाख करोड़ रुपये का खर्च करने का अनुमान किया था और 38,500 करोड़ रूपये ग्रामीण रोज़गार सुरक्षा योजना पर खर्च करने वाली थी। निति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगरिया के अनुसार भारत सरकार के पास अभी उतने संसाधन नहीं है जिससे की इस योजना को शुरू किया जा सके।

और यदि ये शुरू भी की जाती है तो इसे एक सीमित जनसंख्या के लिए शुरू किया जाना चाहिए। उनका ये कहना है कि भारत को जिस तरह से आगे आने वाले समय में शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना और सुरक्षा के क्षेत्र में निवेश करना है उस हिसाब से हम हमारी कुल जनसंख्या के 30 से 40 फीसद भाग को भी इस योजना की सहायता नहीं प्रदान कर पाएंगे।

उन्होंने ये बताया कि बाकी देश जैसे स्विट्ज़रलैंड और स्कॉटलैंड ने भी इस परियोजना को अपनाने का मन बनाया था पर ऐसा हो न सका। स्विट्ज़रलैंड के तो 77 फीसद मतदातायों ने इस योजना के खिलाफ मतदान किया।

बहरहाल, फ़िनलैंड इस योजना पर एक प्रयोग करने के लिए तैयार है। सन 2011 में भारत में भी कुछ ऐसा ही मध्य प्रदेश के आठ गावों में अपनाया गया था । इस प्रयोग पर काम करने वाले करने वाले प्रोफेसर Guy Standing ने ये पाया कि इसके परिणाम सकारात्मक थे। किसानों के काम करने की क्षमता में बढ़ोतरी हुई और ज्यादा से ज्यादा भत्ते पर काम करने वाले मजदूर किसानी करने लगे। इससे खुद काम करने को प्रोत्साहन भी मिला और कृषि क्षेत्र को भी फायदा हुआ।

कुछ लोग ये भी मानते हैं की इस परियोजना को क्रियान्वन में लाने में कई बाधाएं आ सकती हैं, जैसे , जिन लोगों को इस योजना की सबसे अधिक जरूरत है उनके पास बैंक खाते ही नहीं हैं। सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा कि सबके पास बैंक खाते हों और सभी के खाते आधार नंबर से जुड़े हुए हों ताकि सरकार के लिए भी प्रबंधन कार्य आसान हो जाए।

दूसरी समस्या जो आ सकती है वो ये होगी कि किस आधार पर सरकार जरूरतमंदों की पहचान करेगी ? कैसे सरकार ये सुनिश्चित कर पाएगी कि इसका लाभ सही लोगों तक ही पहुँच रहा है ?

कुछ का ये भी मानना है कि यदि हम ऐसे ही जनता को बिना श्रम करवाए पैसे देने लगे तो उनमें काम करने के प्रति कोई रूचि नहीं रह जाएगी। पर मध्य प्रदेश के आठ गावों में हुए प्रयोग में जो पाया गया वो इससे एकदम उलट है।

बजट पेश करने के बाद कांफ्रेंस में वित्त मंत्री से जब पूछा गया कि क्या हम अभी यूनिवर्सल बेसिक इनकम को अपनाने के लिए तैयार हैं ? तो, वित्त मंत्री का जवाब था कि हमें राजनीतिक तौर पर और थोड़ा परिपक्व होना पड़ेगा और तभी हम इस परियोजना को अपनाने के तरफ बढ़ सकते हैं।

वित्त मंत्री की बात कहीं न कहीं सही भी है, इतनी सारी जन कल्याण सेवाओं के उपर इस परियोजना को अपनाना सरकार के लिए मुमकिन नहीं हो पाएगा। उसके पास इतने संसाधन नहीं हैं । पर क्या ये जन कल्याण सेवाएं अपने देश में कुछ ख़ास बदलाव ला पाई हैं ? आँकड़े तो कुछ और ही बयान करते हैं।

जनता को इस बात पर विमर्श करना चाहिए की ऐसी परियोजना क्या सही में लाभकारी हो सकती है ? एक बात तो स्पष्ट है कि अगर ऐसी कोई परियोजना आती भी है तो वो एक विकल्प के रूप में ही आएगी।

श्रेयस Youth Ki Awaaz हिंदी के फरवरी-मार्च 2017 बैच के इंटर्न हैं।

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