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यूपी चुनाव, इलाहाबाद सीट: जहां काम नहीं नाम बोलता है

आज बात करते हैं यूपी के एक ऐसे जिले की जो शुरुआत से ही राजनीति और शिक्षा का गढ़ माना जाता है। देश को एक से एक बड़े कद्दावर नेता देने वाला यह शहर इलाहाबाद इस बार के विधानसभा चुनाव में अपने परिणामों को लेकर सशंकित है। यूपी में सबसे ज़्यादा विधानसभा सीटों वाला यह शहर इसलिए भी चुनावी चर्चा का केंद्र रहता है क्योंकि यहां काम नहीं नाम बोलता है। 403 विधानसभा सीटों पर होने वाले इस चुनाव में इलाहाबाद जिले से कुल 12 सीटें हैं जिस पर सभी पार्टियों ने अपनी दावेदारी पेश कर दी है।

पिछले विधानसभा चुनाव की अगर हम बात करें, तो उस हिसाब से इस बार का समीकरण काफी अलग है और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि इस बार के परिणाम अप्रत्याशित हो सकते हैं। भाजपा जहां पिछले चुनाव में अपना खाता खोलने को तरस गयी थी उसने इस बार अपने दल में उन्ही प्रत्याशियों को शामिल किया है जिनकी जीत काफी हद तक सुनिश्चित मानी जा रही है। पिछले चुनाव में 12 में से 8 सीटें सपा के खाते में ग़यी थी और इस बार भी अखिलेश यही आंकड़ा बरक़रार रखना चाहते हैं। लेकिन ये सब कुछ देखने में जितना आसान लग रहा है उतना है नहीं।

इस बार फेरबदल करने वालों में बीजेपी का नाम सबसे ऊपर है क्योंकि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद जब 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तो मोदी फैक्टर का असर सूबे के इस बौद्धिक जिले पर भी पड़ा। जिन जातिगत समीकरणों को आधार मानकर सपा और बसपा के नेता हुंकार भरते थे, उन्हीं वोटों में बीजेपी ने सेंध लगा दी थी। उसी तरह के उलटफेर का अंदेशा इस बार भी है। यादवों और मुस्लिम वोटों को बांटने और अपनी तरफ खींचने के लिए हर पार्टी बेताब दिख रही है। पहले से ही ऐसा माना जाता रहा है कि यहां बीजेपी को सवर्णों का, सपा को यादवों और मुस्लिम वोट का और बसपा को अनुसूचित जाति का भरपूर समर्थन प्राप्त है।

जुमलेबाज़ी और सोशल मीडिया वाली इस राजनीति के दौर में भले ही सपा और भाजपा खुद को सबसे ऊपर मानकर चल रही हों लेकिन ज़मीनी स्तर पर बसपा की पकड़ को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। यहां के लोगों से बात करने पर ऐसा लगा कि नोटबंदी का असर इतना व्यापक नहीं है और किसी भी रूप में वह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। सपा और बसपा से कई साख वाले लोगों ने अपनी पार्टी छोड़कर बीजेपी का दामन थामा है। इसमें नन्द गोपाल नंदी और स्वामी प्रसाद मौर्य का नाम सबसे ऊपर है। वहीं बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के बेहद करीबी माने जाने वाले हर्षवर्धन बाजपेई को इस बार बीजेपी से टिकट मिला है। जिससे उनकी और पिछले दो चुनाव के विजेता कांग्रेस प्रत्याशी अनुग्रह नारायण सिंह की लड़ाई काफी दिलचस्प हो गयी है।

42.86 लाख मतदाताओं वाले इस जिले में दूसरा सबसे कड़ा मुकाबला शहर पश्चिमी को लेकर है जहां लगातार दो चुनाव जीत चुकी बसपा प्रत्याशी पूजा पाल फिर से मैदान में हैं और इस बार उनको टक्कर देने के लिए सपा ने भी महिला कैंडिडेट को मौका दिया है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह इस बार पश्चिमी सीट से सपा की उमीदवार है और माना जा रहा है कि कभी सपा का गढ़ कही जाने इस सीट को फिर से वे सपा की झोली में डाल देंगी। सपा-कांग्रेस गठबंधन से इन दोनों पार्टियों को फायदा हुआ है या नुकसान, इसका अंदाज़ा अभी लगाना मुश्किल है लेकिन इतना कहा जा सकता है कि सीटों के बंटवारे को लेकर कार्यकर्ताओं में अंदरूनी रोष है।

जहां शहर का एक वर्ग फिर से अखिलेश को इस सूबे की कमान सौंपना चाहता है वहीं दूसरी तरफ बीजेपी को कमतर नहीं आंका जा सकता है। हाल ही हुई मोदी की कुछ रैलियों में जमा भीड़ और शहर के बौद्धिक और सवर्ण वर्ग के लोगों का बीजेपी के प्रति झुकाव यह दिखाता है कि मुकाबला काफी रोचक होने वाला है। पिछले चुनाव में तीन सीटों पर बसपा का कब्ज़ा इस बार कुछ ढीला पड़ता नज़र आ रहा है, फिर भी पूरी तरह यह नहीं कहा जा सकता है कि बहन जी रेस से बाहर है।

अनूप Youth Ki Awaaz हिंदी के फरवरी-मार्च 2017 बैच के इंटर्न हैं।

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