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उर्दू: ग़ालिब की शायरी से ढाका की रक्तरंजित गलियों तक

अठारहवीं शताब्दी में उर्दू उत्तर भारत के संभ्रांत वर्ग की भाषा थी। उर्दू ने भारत को ग़ालिब और मीर जैसे शायर दिए और आज भी सिनेमा पर उर्दू शायरी का वर्चस्व नकारा नहीं जा सकता है। परंतु इस मिठास से भरी भाषा का एक रूप और भी है। एक ऐसा रूप जो रक्तरंजित है।

21 फरवरी 1952, ढाका। स्वतंत्रता के चार वर्ष और अनेक वार्ताओं के बावजूद पाकिस्तान के पूर्वी प्रान्त को भाषा का मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही कराची में एक प्रस्ताव द्वारा उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दे दिया गया था। एक ही झटके में पाकिस्तान की दो तिहाई आबादी अनपढ़ बन गई थी। उर्दू लिख और पढ़ न पाने के कारण बंगाली मूल के लोगों को अब सरकारी नौकरियां मिलना असंभव हो गया था और लोगों में आक्रोश था। उसी वर्ष जिन्ना ने रमना रेसकोर्स से घोषणा कर दी कि एक मुस्लिम राष्ट्र की भाषा केवल और केवल उर्दू ही हो सकती है। जिन्ना ने उर्दू विरोधियों को गणशत्रु घोषित कर दिया।

चार वर्षों के अथक प्रयास के बाद जब संघर्ष ही एक मात्र रास्ता बचा तब ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने प्रदर्शन का मार्ग अपनाया। प्रशासन को प्रदर्शन से परहेज़ था, जो कि स्वभाविक है। ढाका में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। प्रदर्शनकारी छात्रों को बंदी बनाया गया। विधायकों को ज्ञापन देने पहुंचे छात्रों पर गोलियां दागी गई। अनेक छात्र मारे गएं लेकिन रक्तपात अभी शुरू ही हुआ था।

आंदोलन की लहर लगभग चार वर्ष चली और आखिर सरकार को झुकना पड़ा। 29 फरवरी 1956, संविधान संशोधन द्वारा बांग्ला भाषा को दूसरी राष्ट्रीय भाषा का स्थान दिया गया। सतही तौर पर मामला भले ही शांत हो गया था, पर पश्चिमी पाकिस्तान में इसका विरोध जारी रहा। अयूब खान द्वारा घोषित मार्शल लॉ के दौरान संविधान संशोधन को रद्द करने का प्रयास किया गया, पर विरोध के चलते कामयाबी नहीं मिली।

भाषा ने एक नवगठित राष्ट्र को विभाजित कर दिया था। भाषा के अतिरिक्त क्षेत्रीय वर्चस्व भी एक कारण था दो वर्गों के बीच की कड़वाहट का। सेना में पश्चिमी पाकिस्तान मूल के लोगों का प्रभुत्व था। बाढ़ और चक्रवात से प्रवृत्त पूर्वी प्रान्त को हीन दृष्टि से देखा जाता था। इसी बीच शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में आवामी लीग, पूर्वी प्रान्त के लोगों के मौलिक अधिकार के लिए लड़ रही थी। पश्चिमी पाकिस्तान के दमन से त्रस्त पूर्वी पाकिस्तान ने छः सूत्रीय आंदोलन आरम्भ किया। आंदोलन का मूल मंत्र पूर्वी प्रांत को स्वायत्तता प्रदान करना था। भाषा आंदोलन अब एक मौलिक अधिकार की लड़ाई में परिवर्तित हो गया था। 1952 में शुरू हुआ यह आंदोलन 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति और पाकिस्तान की शर्मनाक हार में परिणित हुआ।

विश्व में बहुत कम ऐसे उदाहरण हैं जहां भाषा ने राष्ट्र को इस प्रकार विभाजित किया हो। भाषा आंदोलन ने न केवल समाज का ध्रुवीकरण किया बल्कि दो कौमी नज़रिये को भी नकार दिया, जिस पर पाकिस्तान की बुनियाद रखी गई थी। यह प्रत्यक्ष प्रमाण था की धर्म से ज्यादा भाषा सशक्त है।

एक ओर जहां उर्दू ने पूर्वी पाकिस्तान को रक्तरंजित किया, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी पाकिस्तान की बहुभाषी संस्कृति को भी नष्ट किया। पंजाबी, बलोची, सिंधी इत्यादि भाषाएं उर्दू के सामने बौनी हो गई। उन पर एक विदेशी भाषा को थोपा गया जिसे पाकिस्तान का संभ्रांत वर्ग भारत से ले गया था। एक ऐसे देश से जहां रहना उन्हें गंवारा न था। ग़ालिब और मीर की उर्दू ने जहां एक समय दिल्ली की शामें रंगीन की, वहीं ढाका और लाहौर की भाषाओं का दमन भी किया।

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