Site icon Youth Ki Awaaz

राष्ट्रवाद और देशभक्ति उतने ही अलग हैं, जितने वीर सावरकर और शहीद भगत सिंह

 राष्ट्रवाद क्या होता है? ‘सबकुछ राष्ट्र के बाद है’, यही राष्ट्रवाद होता है। देशभक्ति क्या होती है? देश के साथ खड़े होना देशभक्ति होती है। हो सकता है यह दोनों शब्द एक दूसरे की जगह इस्तेमाल किए गए हों, लेकिन राष्ट्रवाद और देशभक्ति उतने ही अलग हैं जितने वीर सावरकर और शहीद भगत सिंह।
राष्ट्रवाद का मूल भाव है अपने देश को सर्वोपरि समझना, हर हाल में सर्वोत्तम होने की दलील देना। देश बनता है देश वासियों से लेकिन राष्ट्रवाद के मुताबिक देश से देशवासी हैं। इस भावना के केंद्र में सिर्फ एक ही तरीके की विचारधारा फल-फूल सकती है। भिन्न विचारों और मतों का राष्ट्रवाद में वही स्थान है जो सत्तावादी सरकार में विपक्ष का होता है। राष्ट्रवाद देश की जनता को संगठित तो करता है, लेकिन दूसरी विचारधारा के खिलाफ।
राष्ट्रवाद को देश में कमियां देखना सख्त नापसंद होता है। मशहूर पत्रकार जॉर्ज ओरवेल ने राष्ट्रवाद के लिए कहा था, “एक राष्ट्रवादी न सिर्फ अपनी तरफ से की गयी क्रूरता को नकार देता है बल्कि उसमे इस क्रूरता को न सुनने की एक असाधारण क्षमता भी होती है।”
राष्ट्रवाद को हमेशा देशभक्ति के स्वांग की ज़रूरत होती है। इस छद्मावरण के बिना उसका हिंसात्मक रूप सामने आने की बहुत उम्मीद होती है। देशभक्ति के भाव में असहमति और बहुरूपता का भी हिस्सा होता है। एक लोकतंत्र की बात छोड़ दीजिए, कल्पना करिए एक ऐसे समाज या राष्ट्र की जहां सब एक जैसा सोचते हैं, किसी मुद्दे पर सबका एक ही मत हो, एक ही विचार हो। जब किसी प्रजाति में विविधता खत्म हो जाती है तो प्रकृति उसका नामोनिशान मिटा देती है, उसी तरह जब विचारों में भिन्नता नहीं रहेगी तो समाज नष्ट हो जाएगा।
देशभक्ति के केंद्र में नागरिक होता है, वही नागरिक जो समाज में अलग-अलग किरदार निभा कर एक राष्ट्र का निर्माण करता है। आज़ादी की लड़ाई के समय जब लोगों ने भारत माता की जय का नारा लगाना शुरू किया तो जवाहर लाल नेहरू ने पूछा की यह भारत माता कौन है? लोगों के पास जवाब नहीं था लेकिन नेहरू के पास था, उन्होंने समझाया कि, “भारत माता आप लोग हैं, आपके बिना ये भारत नहीं है।” राष्ट्रवाद इसके एकदम उलट केंद्रित है।
सब विचारधारा अच्छी हो सकती हैं, लेकिन कौन सी बेहतर है यह कोई तय नहीं कर सकता। लोकतंत्र में हर किसी को अपने तरीके से सोचने, समझने और राय बनाने का अधिकार है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में रहने वाला आदिवासी अगर भारत के खिलाफ राय बना लेता है तो यह देश का कर्तव्य है कि उसकी बात सुने और राय बदलने का प्रयास करे। यह देश उतना ही उसका है, जितना कि संसद में ट्रेजरी बेंच पर बैठने वाले प्रधानमंत्री का।
भारत माता की जय का उच्चारण न करना देशद्रोह नहीं होता है,आपको अधिकार है कि आप नारा लगा भी सकते हैं और नहीं भी।अंग्रेज़ो की हुकूमत के समय क्रान्तिकारी लोगों के हलक में हाथ डाल कर आज़ादी के नारे नहीं लगवाते थे।बहुत से लोग अंग्रेज़ो के मुलाज़िम थे लेकिन उन्हें घर से निकालकर मारा नहीं जाता था और ना ही देशद्रोही होने का इलज़ाम दिया जाता था। देश अच्छा करे तो उसके साथ और गलत करे तो उसकी निंदा ही देशभक्ति का सार है। इस बात को समझिए और राष्ट्रवाद की बेड़ी से मुक्त होके देशभक्ति की स्वतंत्र हवा में सांस लीजिए।
राष्ट्रवाद की राह पर चलना जितना आसान होता है, देशभक्ति को अपनाना उतना ही मुश्किल।
“किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना, हमें आता नहीं ना-मोहतरम को मोहतरम कहना।
चलो मिलते हैं मिल-जुल कर वतन पर जान देते हैं, बहुत आसान है कमरे में बन्देमातरम कहना।।”                     – मुन्नवर राणा
Exit mobile version