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UAPA वो क्रूर कानून जिसके तहत भीमा कोरेगांव मामले में हुई गिरफ्तारियां

कानून किसे सज़ा देने के लिए बनाया जाता है? कानून सिर्फ अपराधी को दण्डित करने के लिए बनाया जाता है, लेकिन सोचिये अगर कोई ऐसा कानून हो जो अपराध होने की आशंका मात्र पर किसी व्यक्ति को सज़ा दिला दे तो? परेशान मत होइए, ऐसा कानून मौजूद है और उसे कहते है गैरकानूनी गतिविधियां प्रतिबन्ध कानून [Unlawful Activities (Prevention) Act- UAPA]।

1967 में इंदिरा गांधी की सरकार के समय बने इस कानून को देश की संप्रभुता और एकता की रक्षा करने के लिए बनाया गया था। 1962 में भारत चीन से जब युद्ध हारा और तमिलनाडु में DMK ने राज्य के भारत से अलग होने के मुद्दे को लेकर चुनाव लड़ा, तब केंद्र सरकार ने इस कानून का गठन किया, जिसके तहत ऐसे किसी भी संगठन को सरकार गैरकानूनी करार दे सकती थी, जो भारत से अलग होने की बात करता हो।

कहानी शुरू होती है जब 2004 में कॉंग्रेस की केंद्र में सरकार आई और उसने POTA को भंग कर दिया। कॉंग्रेस ने दिखाया कि जिस POTA को भंग करने का उसने चुनाव में वादा किया था, उसने उस वादे को पूरा कर दिया है। लेकिन सच यह था की भंग किये गए कानून के बहुत सारे अनुच्छेद UAPA में चुपके से डाल दिए जिससे गैरकानूनी गतिविधि, आतंकवाद, आतंकवादी संगठन जैसी परिभाषाएं इस कानून में आ गई।

2008 मुम्बई हमलों के बाद हुए संशोधन से इस कानून को अपना असली भयानक रूप मिला। UAPA के अनुसार पुलिस किसी संदिग्ध को बिना चार्जशीट कोर्ट में दाखिल किये 180 दिन कैद में रख सकती है। 2012 में हुए संशोधन ने भारत की आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डालने को भी इस कानून के दायरे में ला दिया।

इस कानून के इतने लंबे परिचय के बाद मिलिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गोकलकोंडा नागा साईबाबा से। साईबाबा 90 प्रतिशत विकलांग है। कमज़ोर मत आंकियेगा इस इंसान को, पुलिस और गढ़चिरोली के कोर्ट के मुताबिक यह प्रोफेसर एक माओवादी नक्सली हैं। सबूत क्या है? यह पूछने की हिम्मत भी मत करना, मानते हैं यह इंसान नक्सली हमले करने के लिए चल-फिर नहीं सकता लेकिन माओवादी साहित्य पढ़ना क्या कम बड़ा अपराध है? माना प्रोफेसर ने खुद से कोई अपराध नहीं किया है, लेकिन ऐसे माओवादी विचार रखना पाप है पाप! दोषी अपराधी होता है लेकिन अब विचारधारा भी अपराध होगी।

छोड़िये कहां माओवादी की चर्चा करने लगे हैं। एक बुरी पत्रकार को जानिए जिनका नाम के. के. शाहीना है। यह पत्रकार 2009 में बेंगलुरु ब्लास्ट केस में मुसलमान युवकों को फंसाने की तहकीकात कर रही थी। पुलिस ने शाहीना पर UAPA लगा दिया, क्योंकि पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा था वह अदालत में साबित किये जाने से पहले ही शायद आतंकवादी बन चुके थे।

एक और वाकया बताए बिना रहा नहीं जा रहा, जिससे ये साबित हो सकता है कि ये उम्दा कानून किस तरह भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखता है। 2008 में कर्नाटक पुलिस ने 17 मुसलमान लड़कों को प्रतिबंधित SIMI से सम्बन्ध रखने के जुर्म में गिरफ्तार किया। दलील दी गयी कि इन खतरनाक अपराधियों के पास से जिहादी साहित्य मिला है। सात साल सज़ा काटने के बाद यह जिहादी साहित्य, क़ुरान-ए-पाक की प्रतिलिपियां निकलीऔर इन खूंखार आतंकवादियो को रिहा कर दिया गया।

सोचना समझना बंद कर दीजिये। आपको पता भी नहीं चलेगा और आप वामपंथ के बारे में पढ़ते हुए UAPA के शिकार हो जाएंगे। बहुत गहन अध्ययन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और आप समझ जाएंगे कि ये कोई महान कानून नहीं है, बल्कि एक निष्ठुर और सरकारी हथकंडा है हर उस आवाज़ को दबा देने का जो सरकार सुनना नहीं चाहता। माना इस कानून से असली अपराधियों को कड़ी सज़ा दिलाने में मदद मिलती है, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इसका दुरूपयोग आदिवासी और अल्पसंख्यक जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन में बखूबी किया जाता है। आप सोच सकते हैं कि किसी इंसान को आपने 7 साल जेल में रखा बिना किसी गुनाह के, जब वह रिहा होगा तो उसकी ज़िन्दगी के 7 साल कौन लौटाएगा? कोर्ट से बाइज़्ज़त बरी होना उस समय बेईमानी लगेगा।

जो लोग इस कानून के पीड़ित हैं, उनका अगर इस देश की न्यायिक व्यवस्था से भरोसा उठ जाता है तो उसका ज़िम्मेदार कौन होगा? उसके ऊपर किये गए अमानवीय अत्याचारों की जवाबदेही किसकी होगी? वह नक्सली न हो लेकिन रिहा होके अगर गुस्से में हथियार उठा ले तो, उसे निर्दोष से अपराधी बनाने वाला कौन है? बेकसूर मुसलमान को आतंकवादी का तमगा देकर ज़िंदगी भर की लानत में धकेलने वाला कौन होगा? जो भी बेगुनाह इस कानून का शिकार बनता है, उसने भारत की संप्रभुता पर हमला शायद ही किया हो। लेकिन, देश की कानून व्यवस्था उसके मौलिक अधिकारों की हत्या निस्संदेह कर देती है।

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