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राष्ट्रवाद और धर्मवाद के पाखण्ड का कॉकटेल है ताज़ा कैंपस विवाद

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा है कि किसी भी देश विरोधी हरकत, नारे या आलोचना भर से देशद्रोह का मामला नहीं बनेगा जब तक उससे हिंसा और क़ानून व्यवस्था का संकट न उत्पन्न हो जाए। फिर भी देशद्रोही बनाम राष्ट्रभक्त की स्वघोषित परिभाषाओं के सहारे देश भर की यूनिवर्सिटियों को जंग का मैदान बनाया जा रहा है।

रामजस का विवाद शुरू हुआ- बोलने की आज़ादी बनाम नही बोलने दूंगा के दम भरने से और बड़ा बना- हमलावरों के हिंसक होने से। कुछ पुलिस सिपाहियों और हमलावरों के मिल जाने से, बलात्कार की धमकियों से, मेट्रो स्टेशनों तक छात्रों को पीछा करके पीटने से। कैम्पस में तोड़फोड़ से और शिक्षकों को मारने से लेकर छात्रों को पीटकर ICU तक पहुंचा देने से। इन सबके साथ ही दिल्ली में ही एक दूसरा विमर्श के विवाद से संबंधित मामला सामने आया और वो था जामिया मिलिया इस्लामिया में शाज़िया इल्मी और मीनाक्षी लेखी को FANS द्वारा आयोजित महिला सशक्तिकरण पर चर्चा कार्यक्रम में बोलने से रोक देने का।

शाज़िया इल्मी जहां सीधे तौर पर इस मुद्दे के साथ मीडिया में आयी और जामिया प्रशासन पर ये आरोप लगाया कि जामिया प्रसाशन ने आयोजकों पर दबाव बनाकर उनका नाम वक्ताओं की लिस्ट से कटवा दिया, वहीं मीनाक्षी लेखी का कोई आधिकारिक बयान अभी तक नहीं आया है।

आयोजकों में से एक रितेश ने हमसे बातचीत में कहा, ”जामिया प्रशासन ने ये कहते हुए वक्ताओं लिस्ट में से शाज़िया और मीनाक्षी का नाम वापस लेने का दबाव बनाया कि ये दोनों राजनेता हैं। हम पर चर्चा का टॉपिक बदलने का भी दबाव डाला गया जिसे हमने ट्रिपल तलाक़ से बदलकर मुस्लिम वीमेन एम्पावरमेंट कर दिया। हमें प्रोग्राम करवाना ही था तो हमने दूसरे स्पीकर्स को बुलाया, फिर बाद में जामिया प्रशासन ने हम पर प्रोग्राम कैंसिल करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। हमने नयी तारीख के इनविटेशन कार्ड्स बांट दिए थे, हमने उनसे बहुत गुजारिश की तो प्रोग्राम के समय में काफी कटौती की शर्तों के साथ वो तैयार हुए।”

जबकि हम आपको बता दें कि जामिया आम आदमी पार्टी के नेता और विधायक अमानतुल्लाह का दूसरा घर बना हुआ है, मुशायरे से लेकर नाटक तक में वो मौजूद रहते हैं। इससे जामिया के नेताओं को कैंपस में न आने देने की थ्योरी को धक्का लगता है। प्रोग्राम आयोजन से जुड़े एक और छात्र राहुल तिवारी से हमने जब ये सवाल किया कि आप लोगों ने तो अपने फेसबुक और ट्विटर पर इस प्रोग्राम के सफल होने की बात की है, तो उन्होंने कहा, “हम जामिया का नाम बदनाम करवाना नही चाहते, हमने इस प्रोग्राम के सामने खड़ी की गयी इतनी परेशानियों के बावजूद भी इसे सफल बताया जिससे विरोधियों का डिबेट और डिस्कशन में अड़ंगा डालने का हौसला टूट जाए।”

वहीं हमने जब इन आरोपों पर जामिया का पक्ष रखने के लिए वहां की डिप्टी मीडिया कॉर्डिनेटर सायमा सईद से बात की तो उन्होंने कहा, “[envoke_twitter_link]जामिया को लगा कि ये संवेदनशील मुद्दा है, अगर उन्हें प्रोग्राम करना ही था तो वो कहीं और भी कर सकते थे[/envoke_twitter_link]।” ये पूछने पर की क्या शाज़िया जी को प्रोग्राम में बोलने के लिए आने से रोका गया तो उन्होंने कहा, “हमने किसी को नही रोका।” लेकिन बातों बातों में वो इस प्रोग्राम के आयोजन पर नाखुशी ज़ाहिर कर गयी और कहा कि प्रोग्राम तो शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया।

वहीं जामिया से ही जियोग्राफी में मास्टर्स कर रहे एक छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर हमें बताया कि जामिया के छात्रों ने हॉल के अंदर सवाल जवाब करने के बजाय अल्लाह-हु-अकबर के नारे लगाए और जन-गण-मन के दौरान उठ कर चले गए। उन्होंने इस घटना से जुड़ा हुआ एक विडियो भी हमें दिखाया जिसमें छात्र अल्लाह-हु-अकबर का नारा लगते हुए दिख रहे हैं।

आपको भले दिखे ना दिखे लेकिन, लगभग एकसाथ घटित हुए इन दोनों घटनाक्रमों के पीछे के वैचारिक स्तर में भारी समानता दिखती है। किसी की बात सुने बिना ही मारपीट करने लगना, उसे बोलने के लिए आने न देना या तर्क के अभाव में चीख-चिल्लाकर अपनी पहले से बनी समझ को सुरक्षित रखने की कोशिश को क्या राष्ट्रवाद और धर्मवाद का कॉकटेल नैतिक आधार प्रदान कर रहा है? [envoke_twitter_link]धर्म ने पहले कबीलों को लड़ाया फिर राजाओं में मुठभेड़ करायी[/envoke_twitter_link] और देशों के बीच हिंसक संघर्ष से होते हुए हमें यहूदियों के कत्ल के साथ विश्व युद्ध तक ले गया।

लिब्रलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के दौर के बाद, इन दिनों फिर से दुनिया में अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग के साथ अपने अपने धर्म और अपने-अपने राष्ट्रवाद की आहट हमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यहां तक कि फ्रांस और दुनिया के दूसरे कोनों से भी मिलने लगी है। एक मनुष्य के तौर पर क्या हम अपने धर्म और राष्ट्रवाद की समझ के मामलों में इतिहास के पुराने उन्मादी दौर में वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं? या धर्म के मामले में हमारी पुरानी समझ के ऊपर तर्क का विचार अभी भी जगह नहीं बना पाया है?

आगे हम जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे बिल्कुल अलग-अलग चरित्र के दो विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर खतरा पैदा करने वाले कारक के तौर पर धर्म और राष्ट्रवाद का ढोंग खतरनाक रोल निभा रहा है? 21 तारीख को DU में प्रोटेस्ट कल्चर पर चल रहे सेमीनार में बिना बौद्धिक बहस का सवाल पूछे ABVP के छात्र नारा लगाते हैं, “एक ही नारा, एक ही नाम, जय श्री राम, जय श्री राम” और तोड़फोड़ करते हैं। 28 फरवरी को जामिया में वुमन एमपॉवरमेंट पर हो रही चर्चा में भी सवाल और तर्क करने के बजाय जामिया के छात्र कुरआन और अल्लाह-हु-अकबर का नारा लगाते हैं। तो इन दोनों नारों में क्या समानताएं है?

दोनों ही नारों को देखा जाए तो किसी की भावनाओं को फौरी तौर पर ठेस नहीं पहुंचाते, तो फिर फिर ये नारे क्यों लगाए जाते है? क्या ये धर्म के साये में वाद-विवाद से भागने का हथियार बनते जा रहे हैं। क्या ये दोनो ही स्थितियां धर्म की आड़ में वाद-विवाद, चर्चा और अभिव्यक्ति को दबाने की नहीं हैं? पिछले साल JNU मामले की सुनवाई के दौरान एक अति उत्साही वकील ने सुप्रीम कोर्ट में वंदे मातरम का नारा लगा दिया था, कोर्ट नाराज हो गयी और पुलिस ने उस वकील को कोर्ट के बाहर किया, क्योंकि नारे और स्लोगन कम्युनिकेशन की अलग श्रेणी के तरीके हैं। इनसे कोर्ट, सेमीनार और चर्चाओं का संवाद नही होता।

दरअसल हमें अपने मां-बाप से नाम के साथ धर्म भी विरासत में मिल जाता है और उसे हम ताउम्र मां-बाप की तरह ही सम्मान देने की कोशिश में लगे रहते हैं। हमें लगता है कि हमारे धर्म की कोई भी आलोचना, कैसा भी प्रतिकूल विचार हमारी पुरानी पीढ़ियों को अपमानित कर देगा और उसके सम्मान की रक्षा ही हमारा कर्तव्य भी है और हमारी नैतिकता भी, फिर परिणामस्वरूप हम तथ्यों, साक्ष्यों और तर्कों से बचने लगते हैं। धर्म की और राष्ट्र की दुहाई देने लगते हैं। मार-पीट पर उतर आते हैं, खूंखार हो जाते हैं।

ये कैसा विरोधाभास है? जामिया के ही छात्र 27 फरवरी को DU नार्थ कैंपस में छात्रों और अध्यापकों पर हुए हमले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में हुए प्रोटेस्ट में शामिल होने गये, जबकि जामिया में ही फोरम फॉर अवेयरनेस ऑफ़ नेशनल सिक्योरिटी (FANS) द्वारा महिला सशक्तिकरण पर आयोजित एक टाॅक में जामिया के ही छात्र, पैनलिस्टो से सवाल पूछने के बजाय Shame-Shame के और अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाते हैं। ये भी कितना बड़ा विरोधाभास है कि ABVP वाले जिनके संगठन ने रामजस में राष्ट्रवाद के नाम पर इतना बड़ा ऊपद्रव किया वो जामिया में RSS द्वारा समर्थित (FANS) में शाज़िया और मीनाक्षी लेखी के न बोलने देने को लेकर अगले ही क्षण अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने लगते हैं।

दोनो एक दूसरे की कमजोरियां और धार्मिक उग्रता के सहारे खुद को छुपाते रहे हैं। जबकि सच्चाई ये है कि सच और तर्क से मुकाबला करने के लिए दोनों में से कोई भी तैयार नहीं, बदलाव के लिए कोई तैयार नहीं। हर एक विरोध असहमति के स्वर को आखिर राष्ट्रद्रोह कैसे समझा जा सकता है, क्योंकि अगर ऐसा होगा तो बदलाव की हर मुहिम रुक जाएगी ,कानून बदलने बंद हो जायेंगे, नए सामजिक सुधार होने की संभावना ख़त्म हो जाएगी और धीरे-धीरे समाज और देश सड़ कर निर्जीव हो जायेगा, फिर ऐसे राष्ट्रवाद का हम क्या करेंगे?

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में कहा था, ”मैं अपने देश की सेवा करने के लिए तैयार हूं, लेकिन अगर हम अपने राष्ट्र को पूजने लगे तो राष्ट्र को शाप लग जायेगा।” हमें तय करना होगा की हम अपने देश में वाद-विवाद और अभिव्यक्ति का साथ देंगे या इस देश को अभिशाप में डुबो देंगे।

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