सुरजापुरी बिहार के सीमांचल में सबसे अधिक बोली जानी वाली भाषा सिर्फ भाषा तक ही सीमित नहीं है, यह एक सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहचान भी है। अगर संस्कृति की बात करें तो यह संस्कृति बिहार के तीन ज़िलों किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया में पाई जाती है। यह एक विशुद्ध भारतीय संस्कृति है जिसको मानने वाले हिंदू तथा बहुसंख्यक मुस्लिम हैं, जो हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों से मुस्लिम बने हैं। आम सुरजापुरी अपने दैनिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करते हैं, शादियों में सुरजापुरी गीतों को गाया जाता है। दैनिक जीवन का लिबास खांटी देसी है, मसलन महिलाएं साड़ी तथा पुरूष लुंगी पहनते हैं।
मुगलकाल में खासतौर पर औरंगज़ेब के समय, जब इस क्षेत्र में धर्म परिवर्तन की रफ्तार बढ़ी तो मुस्लिम ज़मींदारों की संख्या भी बढ़ने लगी। इसका प्रभाव उस समय के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संरचना पर भी पड़ा। अंग्रेजों के समय तक यह एक सामंती संस्कृति ही थी, जो हिंदू तथा मुस्लिम जागीरदारों/ज़मींदारों के माध्यम से फल-फूल रही थी। इस तहज़ीब में लोकतंत्र बहुत धीमी रफ्तार के साथ आम जनमानस तक पंहुचा। समय लगने की वजह में सामाजिक संरचना और भूमि सुधार का लागू नहीं होना आदि शामिल हैं।
सन 1992 में जब भारत मे पूंजीवाद हावी होने लगा और बिहार, कांग्रेस के साये से बाहर निकल रहा था, तो इसका असर इस क्षेत्र पर भी हुआ। रोज़गार तथा शिक्षा के लिए पलायन आदि कारणों से यह एक राजनीतिक पहचान भी बनने लगी। फलस्वरूप बिहार के सीमांचल में मुख्यतः किशनगंज, कटिहार तथा पूर्णिया के चुनावों में सुरजापुरी एक प्रभावशाली समूह रहता है।
बिहार के महान इतिहास में इस संस्कृति को बहुत नज़रअंदाज किया गया है। मगर वर्तमान सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में यह संस्कृति इस क्षेत्र की सामाजिक संरचना के लिए बहुत महत्वपूर्ण घटक है। इस संस्कृति से जुड़ाव दो धार्मिक समूहों का है जो इसकी ही उपज हैं। मगर आज सुरजापुरी पहचान को धार्मिक कट्टरपंथ से बहुत खतरा है। छद्म हिंदुत्ववादी राजनीति और उसकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम राजनीतिक विचारों के आक्रामक प्रचार-प्रसार के कारण सुरजापुरी हिंदू तथा मुस्लिम समाज की अगली पीढ़ी, सुरजापुरी भाषा और संस्कृति से दूर हो रही है। आने वाले समय में इस क्षेत्र की सामाजिक संरचना पर इसका गंभीर असर दिख सकता है।