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वो रस्सी जिस पर झूल शहीद हुए भगत, बता रही है उस रात की दास्तान

मैं कोट लखपत जेल, लाहौर के तहखाने में गुम रस्सी का एक टुकड़ा हूं। मैं 85 साल से यहीं पड़ा-पड़ा दुनिया को देख रहा हूं। आप सोच रहे होंगे कि हम एक रस्सी की बात क्यों सुने? मुझे सुनना इसलिए ज़रूरी हो जाता है क्योंकि मैं वही रस्सी हूं जिसपर तुम्हारे देश का एक 23 साल का नौजवान हंसते-हंसते फांसी चढ़ गया था। शायद तुम उसे जानते हो, हां भगत सिंह। 23 मार्च 1931 सोमवार का दिन था शाम के 7:30 बजे इतिहास में पहली बार कोई मेरे सामने बिना डरे खड़ा था। जिसकी टांगें स्थिर थी, मैं अचंभित रह गया था जब उसने मुझे चूमा था। मैंने बड़ी हैरानी से उससे पूछा था तुम इतनी छोटी सी उम्र में यहां कैसे? मांगते क्या हो? ऐसा क्या चाहते हो जो तुम्हें मुझ तक ले आया। वो मुस्कुरा कर बोला था “इंक़लाब”।

वो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहता था। अपने लिए नहीं, भारतियों के लिए, पाकिस्तानियों के लिए, तुम इंसानो के लिए। इंसान के हाथों इंसान का शोषण खत्म हो, यही मांगता था वो। मैं समझ गया था उसकी फांसी की वजह। वो दम्भ से भरी अंग्रेजी हुकूमत और चापलूसी से परिपूर्ण राजनीतिज्ञों के सपनों को कुचलकर समाजवाद लाना चाहता था। एक ऐसी हिमाकत जिसकी सज़ा मौत से कम हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि वो जन्म दे सकता था एक नए कल को जो साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का काल बन के उभरता।

उसे फांसी होनी ही थी क्योंकि वो पानी फेर सकता था हिंदुस्तानी राजनीतिज्ञों के लोकतान्त्रिक साम्राज्य के सपने पर।उसे ज़िंदा नहीं रखा जा सका था। मैं आज भी उसकी आखिरी मुस्कान नहीं भूला जिसमें उम्मीद थी कि मेरी मौत एक नया सवेरा लाएगी, नौजवान जागेगा और लाखों क्रन्तिकारी पैदा होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उसके विचारों का अपहरण कर दिया गया। बड़े बड़े नेताओं ने उसे आतंकवादी कह दिया। गुजरते वक़्त के साथ लाखों लोग उसे जानने तो लगे लेकिन वो उसकी सोच के मुताबिक क्रान्तिकारी नहीं थे “वो उसके फैन थे” बहुत सारे , हज़ारो लाखों फैन।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उसके विचारों का अपहरण कर दिया गया। बड़े-बड़े नेताओं ने उसे आतंकवादी कह दिया। गुज़रते वक़्त के साथ लाखों लोग उसे जानने तो लगे लेकिन वो उसकी सोच के मुताबिक क्रान्तिकारी नहीं थे “वो उसके फैन थे” बहुत सारे, हज़ारो-लाखों फैन। उसके नाम पर गीत बिके, संगीत बिका, कपड़े बिके, उसका नाम बिका। पूंजीवाद के इस दौर में वो महज़ एक बाजार को लुभाने वाला नाम बनकर रह गया।

चंद फासीवादियों ने उसे राष्ट्रवादी कहकर अपने रंग में रंग दिया (“एक वामपंथी राष्ट्रवादी” हास्यास्पद लगता है।) और उसका बसंती चोला भगवा राष्ट्र का झंडा बन के रह गया। मेरे बल आज भी खुलने लगते हैं जब मैं उसके बारे में सोचने लगता हूँ।क्या उसका मरना व्यर्थ था, क्या उसका विचार साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की चमक दमक के नीचे दब गया।

मेरे बल आज भी खुलने लगते हैं जब मैं उसके बारे में सोचने लगता हूं। क्या उसका मरना व्यर्थ था, क्या उसका विचार साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की चमक-दमक के नीचे दब गया। मैं यह सोच ही रहा था कि एक विचार ने आ के मुझे झझकोर दिया, इंकलाब एक सोच है एक विचार और विचार मरा नहीं करता। मैं बस यही बताने आया हूँ। ये तुम्हारी ग़लतफहमी है कि भगत सिंह मर गया उसका विचार खत्म हो गया।

मैं बस यही बताने आया हूं। ये तुम्हारी ग़लतफहमी है कि भगत सिंह मर गया और उसका विचार खत्म हो गया। दुनिया के किसी कोने में यदि कोई शोषण से लड़ रहा है तो भगत सिंह ज़िंदा है। कोई मजलूम जुल्म के खिलाफ यदि लड़ रहा है तो वो ज़िंदा है। वो ज़िंदा है हर उस आवाज़ में जो साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ है।

He want you to be a comrade in the fight against this fascist, capitalist and imperialist establishment which he fought and died for.

कृप्या फैन बनने से बचें।

रस्सी,
कोट लखपत जेल, लाहौर।

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