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08 मार्च, एक पर्व

 

 

8 मार्च यानि विश्व महिला दिवस नजदीक है. होअर्डिंग और बैनर की दुकानों पर बड़े बड़े आर्डर दिए जा चुके होंगे और कहीं दिए जा रहे होंगे. कई होटल्स और बैंक्वेट हाल भी महीनों पहले से बुकिंग की गई होगी, जहाँ बड़े बड़े कार्यक्रम का आयोजना होना होगा, जो शायद जरुरी  भी  है. विश्व की तक़रीबन आधी जनसंख्या के लिए एक दिन को मनाए जाने वाला यह महापर्व है. जिसे तक़रीबन हर कॉर्पोरेट दफ्तर में शायद मनाया जाता है. लेकिन सच में क्या हमें इस तरह से आधी जनसंख्या के सम्मान में एकजुट होकर इस तरह से महज़ एक दिन के लिए खड़े होकर उनके सम्मान के लिए बात करना सही है? अगर हाँ! तो क्यों? बीती सदियों से महिला एवं पुरुष दो जातियों ने पृथ्वी पर सृष्टि निर्माण से लेकर आज तमाम सभ्यताओं को अपनी आँखों के सामने बदलते हुए देखा है. बावजूद इसके महज़ कुछ शारीरिक एवं मानसिक स्वरुप में विभिन्नताओं के कारण आज हमें आधी जनसंख्य के सम्मान एवं बचाव में  08 मार्च को एक पर्व के रूप में मनाने की ज़रूरत है. आधी जनसँख्या को, बची हुई उस आधी जनसँख्या से बचाने के लिए गति की दिशा में एक अतरिक्त डिब्बे देने की ज़रुरत है. फिर क्यों इन्हें जीवन की गाड़ी के दो सामान्य पहिये बताया जाता है जब दूसरा पहिये पहले पर इस तरह से निर्भर है तो.

उत्तरीय-पूर्व राज्य के कुछ क्षेत्र महिला आरक्षण के विरोध में हफ़्तों तक दंगों की आग में झुलसते रहे. वर्षों बीत जाने के बावजूद, विश्व के प्रतिष्ठित देश संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भी जनसँख्या के इस आधे धड़े से कोई राष्ट्रपति की कुर्सी तक नहीं पहुंच सका. जनसंख्या के इस आधे धड़े की प्रति ऐसा आक्रोश देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि नॉएडा और ग्रेटर नॉएडा में चलने वाले जालीनुमा बंद गुलाबी ऑटो की हमें सच में ज़रूरत है. हमारा समाज आज बिलकुल वैसे ही हो गया जैसे एक पिंजड़े में आपने शेर और बकरी के बच्चे को एक साथ रख दिया हो. जहाँ बकरी को हर ज़रूरी सुरक्षा की ज़रूरत है कहीं वो किसी शेर का शिकार न हो जाए. लेकिन असलियत में हम सभी बकरी है और हम सभी शेर बावजूद इसके महज़ कुछ विभिन्नतों के कारण आज समाज के इन दोनों प्राणियों में इतना व्यापक अंतर व्याप्त है कि ‘08 मार्च’ तो सामान्य ज्ञान का एक सवाल बन गया है वहीं  ‘19 नवम्बर’ कैलेंडर एक तारीख भर में सिमट कर रह गया है.

सम्मान सभी का ज़रूरी है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष या कोई तीसरा लिंग इसके लिए कोई निश्चित तारीख दिन या हफ्ता निर्धारित नहीं है. इसी से जुड़े मुद्दे पर मुझे एक किस्सा याद आता है जो बीते वर्ष का है. दिल्ली में महिला सम्मान एवं सशक्तिकरण के बैनर तले एक महंगे होटल में सेमिनार का आयोजन था. मेरे तमाम दोस्त भी उसमें सम्मिलित होने गए थे. सुदूर क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं के जीवन में सुधार करने के लिए दिल्ली एक प्रतिष्ठित होटल बैठकर चर्चा करना बिलकुल अजीब सा था. तभी एक दोस्त मौजूद महिलाओं के एक दल से इसपर सवाल किया  जिसका जवाब मौजूद कोई भी प्रतिनिधि नहीं दे पाया. ऐसे ही तमाम मुद्दे जिनके सुधार के लिए हमें उसे एक उपलक्ष्य एवं पर्व की तरह मानते तो है लेकिन अगर जिसके लिए वह किया जा रहा उसके वास्तविक जीवन में अगर ऐसे बड़े आयोजन का कोई प्रभाव न पड़े तो तो मेरे नज़र में ऐसे सभी आयोजन विफल है.

 

 

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