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“गाय कटती है क्योंकि मरी गाय ज़िंदा गाय से ज़्यादा मूल्यवान है”

संजय जोठे:

वो कौन सी आध्यात्मिक विरासत है और वो कौन से निष्कर्ष हैं जो गाय को इतना पवित्र बनाते है? इसे अधिकांश गौभक्त भी नहीं जानते हैं। राजीव मल्होत्रा, राजीव दीक्षित या दीनानाथ बत्रा को मानने वाले अधिकांश लोग इस बात को शायद नहीं जानते हैं कि [envoke_twitter_link]गाय की पवित्रता और अवद्यता की मौलिक जड़ें किन अनुभवों या मान्यताओं में हैं?[/envoke_twitter_link] वे यह बात नहीं बतला सकते क्योंकि इसमें उनके अपने धर्म की मौलिक समझ पर ही प्रश्न चिन्ह उठ खड़ा होता है। वे इस बात को दबाते चले जायेंगे कि गाय की पवित्रता का मूल विचार किस परम्परा या किस साधना पद्धति से और क्यों आया है।

इस देश में दो तरह की साधना पद्धतियां रही हैं। एक ब्राह्मण और दूसरी श्रमण। वैदिक और ब्राह्मण पद्धति में भक्ति प्रमुख मानी गयी है और परमात्मा की कृपा को मुक्ति का साधन माना गया है। इसीलिये मुख्यधारा का हिन्दू समुदाय, मुसलमानों और ईसाईयों की तरह अनिवार्य रूप से एक भक्ति समुदाय है। इसके विपरीत श्रमण परम्परा में स्वयं के प्रयास या श्रम को निर्वाण का साधन माना गया है इसमें कोई परमात्मा बीच में नहीं आता। इस परम्परा में जैन और बौद्ध आते हैं जो कालान्तर में अपने धर्म को वैदिक हिन्दू धर्म से अलग कर लेते हैं।

विशेष रूप से जैन धर्म, इस गौवंश के मुद्दे पर बहुत विचारणीय है। जैन धर्म में आत्मा को परम मूल्य दिया गया है और ईश्वर या सृष्टिकर्ता जैसी किसी सत्ता को नकार दिया गया है। इसीलिये [envoke_twitter_link]जैनों में सृष्टि के बजाय प्रकृति शब्द का व्यवहार होता है।[/envoke_twitter_link] अब जैसे ही आत्मा और प्रकृति को मान्यता मिलती है, वैसे ही सारी चिन्तना आत्मा और पुनर्जन्म सहित आत्मा के उद्विकास पर केन्द्रित हो जाती है। तब कैवल्य सहित बंधन का सारा उत्तरदायित्व आत्मा पर आ जाता है।

इस तरह यह स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म का विचार मूलतः जैन और बौद्ध विचार है और उसका विकसित विज्ञान भी जैन व बौद्ध श्रमण परम्परा से आता है। जैनों की मान्यता है कि हर तीर्थंकर पशु योनी से मनुष्य योनी में आने के क्रम में किसी पशु योनी से गुजरता है। इसीलिये उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ उनके पशुयोनी के अवतार का संकेत भी बना रखा है। जैसे भगवान् ऋषभदेव के साथ वृषभ या सांड का चिन्ह है, भगवान् महावीर के साथ सिंह का चिन्ह है। इसी तरह गौतम बुद्ध के साथ भी हाथी का चिन्ह है।

यह ज़ाहिर करता है कि ये सब तीर्थंकर पशुयोनी में अंतिम रूप से इन इन पशुओं के रूप में जन्मे थे। इस मान्यता या रहस्यवादी अनुभव के आधार पर उनके हज़ारों शिष्यों और मुनियों ने अनुभव किया कि सामान्यतया अधिकांश मनुष्य गाय की योनी से मनुष्य योनी में आ रहे हैं। इस प्रकार क्यूंकि मनुष्य योनी में छलांग लगाने के लिए गाय योनी अनिवार्य जंपिंग बोर्ड है, इसलिए गाय पवित्र और अवध्य मान ली गयी है। इस बात को ओशो रजनीश ने भी अपने प्रवचनों में स्पष्ट किया है।

यह बात गहराई से नोट की जानी चाहिए कि यह जैनों और बौद्धों की खोज है। हिन्दू साधुओं ने कभी भी इस तरह की बात नहीं उठाई। इसीलिये श्रमण परम्परा ने इस निष्कर्ष पर आते ही गाय सहित सभी पशुओं की बलि पर अनिवार्य रूप से रोक लगा दी। जैनों की अहिंसा और बौद्धों की अहिंसा का मूल कारण यही था और इसमें भी गाय को इतना पवित्र मानने का कारण भी यही था कि यह पशु योनी से मनुष्य योनी के बीच की यात्रा में अनिवार्य कड़ी है। यह ज्ञान हिन्दू परम्परा में बहुत बाद में आया, या फिर ये कहें कि उन्होंने जैनों और बौद्धों से सीखा। शुरुआती वैदिक धर्म में यहां तक कि उपनिषद्काल में भी पशु बलियां और गौ बलियां दी जाती थी। बाद में जैन व बौद्ध धर्म के निष्कर्ष को और उससे जन्मे आचरण शास्त्र को ब्राह्मण परम्परा ने भी अपना लिया।

अब इस सबके बाद गौमांस के मुद्दे पर मनुष्यों की ह्त्या की घटना को देखिये। यह न तो सामाजिक या मानवीय दृष्टिकोण से उचित है न ही धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ में उचित है। यह सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक ड्रामा है जो वोटों के ध्रुवीकरण के लिए रचा गया है। इसीलिये यह ज़ोर देकर कहना चाहिये कि [envoke_twitter_link]धर्म का नाम लेकर गौवंश को मुद्दा बनाने वाले लोग न तो धर्म या अध्यात्म को समझते हैं न इंसानियत को।[/envoke_twitter_link]

अगर गौवंश को बचाना है तो उसे दंगा या विभाजन पैदा करने वाली मानसिकता से नहीं बचाया जा सकता। गाय को बचाना है तो उसे इतना मूल्यवान और उपयोगी बनाना होगा कि उसकी मौत की बजाय उसकी ज़िन्दगी की कीमत ज़्यादा हो। [envoke_twitter_link]अभी गाय कटती है क्योंकि ज़िंदा गाय की तुलना में मरी हुई गाय अधिक मूल्यवान है।[/envoke_twitter_link] जिस दिन ज़िंदा गाय से, मरी हुई गाय की तुलना में अधिक आमदनी होने लगेगी उस दिन गाय अपने आप बच जायेगी। तब किसी अभियान की ज़रूरत नहीं होगी।

इसीलिये गाय की नस्ल सुधार का आन्दोलन चलना चाहिए। गाय के दूध की मात्रा बढ़नी चाहिए। विदेशी सांडो से डर लगता है तो देशी विकल्पों पर ही ध्यान दीजिये। जैसे भैंस की दूध देने की क्षमता बढ़ गयी है, वैसे ही गाय की देशी संकर प्रजातियों की क्षमता भी बढ़ सकती है। उसके बाद कोई किसान या गरीब आदमी अपनी गाय को मैला खाने के लिए या सड़क पर आवारा घूमने के लिए खुला नहीं छोड़ेगा।

क्या किसी ने दुधारू भैंस को आवारा घूमते या गंदगी खाते देखा है? उसे कटते देखा है? यह सबसे महत्वपूर्ण बात है जो गौभक्तों को समझनी चाहिए। गाय धर्मशास्त्र से नहीं अर्थशास्त्र से बचेगी। जिस दिन ज़िंदा गाय एक मरी गाय से अधिक मूल्यवान हो जायेगी उस दिन किसी धार्मिक, नैतिक या कानूनी आग्रह या नियम की कोई ज़रूरत नहीं रह जायेगी।

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