एक रोज़ कुछ ट्रांसजेंडर (किन्नर) महिलाओं ने मुझसे पैसे मांगे और मैंने देने के लिये जब पर्स निकाला तो उन्होंने उसमें से लगभग सारे रूपए निकाल लिये। बहुत गुस्सा आया उस समय मुझे लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता था। मैं जब पुलिस के पास गया तो वहां उनकी इस पूरे मामले पर प्रतिक्रिया ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मेरे साथ क्या हुआ उस पर कुछ करने के बजाय पुलिस के लोग उनके बारे में मज़ाक करने लगे और हंसने लगे।
उनमें से एक बड़े गर्व से बताने लगा कि किस तरह से उसने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को एक बार बहुत मारा था। पुलिस के व्यवहार को देखकर मेरा गुस्सा कम हो रहा था और इस तबके के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और सामाजिक बहिष्कार को जानकार दुख हो रहा था। हालांकि इस बहिष्कार के बाद भी मेरे साथ हुई घटना को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यह एक कारण तो है ही इन घटनाओं के पीछे।
रोजमर्रा की ज़िन्दगी में कई बार हमारा सामना इन लोगों से होता हैं। कई बार ये हमसे पैसे मांगते हुए दिखते हैं कभी ट्रेनों में, सड़कों पर तो कभी हमारे मोहल्लों में बधाई देने आते हैं तब। हम इनका मज़ाक बनाते हैं, हमारी नज़रों में इनके लिये किसी तरह का सम्मान हो ऐसे उदाहरण हमें नहीं मिलते हैं। ये लोग दिन में दिखते हैं लेकिन रात होते ही कहां खो जाते हैं, शहर के किस कोने में ये रहते हैं? हमें इसके बारे में कुछ नहीं पता।
इन सवालों के जवाब ढूंढने और ट्रांसजेंडर समुदाय किन चुनौतियों का सामना कर रहा है यह जानने के लिये हमने बेंगलुरु में इस समुदाय के साथ काम कर रही संस्था “संगमा” की निशा से बात की, जो कि खुद एक ट्रांस-महिला हैं। उन्होंने बताया कि, “बेंगलुरु में इस समुदाय के लोगों की संख्या 50,000 से भी अधिक है। लेकिन सरकार और प्रशासन की इनके प्रति उदासीनता का अंदाज़ा इससे ही लगा सकते हैं कि सरकार के पास ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की संख्या के बारे में कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। ना ही कभी इसे जानने का कोई प्रयास किया गया है।”
निशा आगे बताती हैं, “अगर हम ट्रांसजेंडर समुदाय के सामाजिक बहिष्कार की बात करें तो यह अलग-अलग स्तरों पर होता है। शुरुआत में लैंगिक पहचान ज़ाहिर होने पर सामाजिक दबावों और स्थापित टेबूज़ के चलते इन्हें परिवार से बाहर कर दिया जाता है। इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सार्वजनिक स्थानों पर पहुंच जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी इन्हें वंचित कर दिया जाता है। आगे इनके लिये किसी भी तरह से समाज की तथाकथित मुख्यधारा का हिस्सा बनना और कठिन हो जाता है क्योंकि इनके लिये ना नौकरी की व्यवस्था हैं और ना ही अपनी जीविका चलाने के लिये किसी अन्य तरह का प्रोत्साहन। इन कारणों से इन्हें भीख मांगने और सेक्स वर्क करने के लिये मजबूर होना पड़ता है।”
वो अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं, “जब मैं बेंगलुरु आई तो सुबह और शाम के समय हमें भीख मांगनी पड़ती थी और रात के समय सेक्स-वर्क करना पड़ता था। इसके अलावा हर समय जिस तरह के भेद-भाव का सामना हमें करना पड़ता हैं उससे पैदा हुए दबाव को झेलने के लिये हममें से कई नशे की लत के शिकार हो जाते हैं।”
निशा ने कहा कि “जब मैं ‘हमाम’ (एक कॉलोनी या घर जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग रहते हैं ) में इस समुदाय के लोगों के साथ रहती थी, तब मैंने देखा कि मेरे कई साथी HIV से पीड़ित थे। सही इलाज़ ना मिलने के कारण बहुत कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो जाती थी। वो अपनी बीमारी के बारे में अपने साथियों को भी नहीं बता पाते थे, क्योंकि उन्हें डर होता था कि बताने पर उन्हें अपने ही समुदाय में भी भेदभाव झेलना पड़ेगा।” इन सब हालातों को देखकर उन्हें इस पर काम करने की ज़रुरत महसूस हुई और वो संगमा से जुड़ी।
वो बताती हैं कि राजनीतिक पार्टियों की उनके मुद्दों को लेकर प्रतिबद्धता बहुत कम है, लेकिन फिर भी कुछ प्रयास लगातार हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि पिछले 10 सालों में कुछ अच्छे बदलाव हुए हैं और लोग उनके प्रति जागरूक हुए हैं। वो कहती हैं, “हमें लोगों को सहानुभूति नहीं चाहिये बल्कि वो अवसर चाहिए जिससे हम समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें और एक सम्मानजनक जीवन जी सके।”
एक समाज के तौर पर हमें समझना चाहिये कि ट्रांसजेंडर होना भी उतना ही नार्मल है जितना कि एक लड़का या लड़की होना। हमारी कोशिश होनी चाहिये कि हम ट्रांसजेंडर समुदाय से आने वाले लोगों को भी वही सम्मान दें जिसके वो हकदार हैं, लेकिन आज तक उससे वंचित हैं।
हितेश Youth Ki Awaaz हिंदी के फरवरी-मार्च 2017 बैच के इंटर्न थे।