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25 साल पहले दक्षिण अफ्रीका में आज ही ख़त्म हुआ था रंगभेद

फर्ज़ कीजिये कि कोई आपके घर में आए, वहां कुछ दिनों तक रहे और फिर आपसे कहे कि, “आप बाथरूम में शिफ्ट हो जाइए, गनीमत है कि आपको घर से नहीं निकाला जा रहा है।” कैसा लगेगा आपको ये सुनकर या ऐसा कुछ सहकर? आज़ादी से पहले हमारे पूर्वज ये सब सह चुके हैं और इस इतिहास के बारे में हमें काफी कुछ पता भी है। लेकिन हम ऐसे अकेली कौम नहीं हैं जिसने ये सब सहा है और यहां लिखने का मकसद आज के ऐतिहासिक दिन को याद करना है जब 17 मार्च 1992 के दिन दक्षिण अफ्रीका के बहुसंख्यक अश्वेत नागरिकों को भी सामान अधिकार देने की घोषणा की गयी थी।

भारत की ही तरह दक्षिण अफ्रीका भी एक ब्रिटिश कॉलोनी था, जिसे 1910 में आज़ादी मिली थी। आज़ादी मिलने के बाद भी वहां सत्ता का नियंत्रण अल्पसंख्यक ब्रिटिश और यूरोपियन मूल के श्वेत लोगों के पास ही था। खेती की ज़मीनों से लेकर प्रभावशाली पदों तक सभी जगह गोरे लोग मौजूद थे। 1913 में दक्षिण अफ्रीका की संसद में लैंड एक्ट पास किया गया जिसके अनुसार वहां के अश्वेत मूल निवासियों का साझेदारी में खेती करने को गैरकानूनी करार दे दिया गया। इसे स्वतंत्र दक्षिण अफ़्रीका की बदनाम रंगभेद नीति ‘अपार्थाइड’ की नींव के रूप में भी जाना जाता है, हालांकि इसकी शुरुवात के सही समय की बात करें तो यह सन 1948 में है।

हैरत की बात ये है कि 1948 का चुनाव, एफ्रिकानर नेशनल पार्टी ने ‘अपार्थाइड’ ( यूरोपियन और गैर यूरोपियन लोगों की अलग-अलग व्यवस्था, इसे बिल्कुल यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका की सेग्रीगेशन पॉलिसी की तरह देखा जा सकता है) के नारे के साथ ही जीता था। इस नीति का लक्ष्य केवल गोरों और कालों को अलग करने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि अश्वेत लोगों में भी अलग-अलग वर्ग बनाकर उन्हें संगठित ना होने देना भी था, ताकि कम संख्या के बावजूद गोरे लोग सत्ता में बने रहें। इसी तर्ज़ पर अश्वेत समुदाय को बंटू (मूल अफ्रीकी लोग) अश्वेत या कलर्ड (नस्लीय रूप से मिश्रित लोग) और एशियन (भारतीय उपमहाद्वीप के लोग) में बांटा गया।

समय के साथ रंगभेद की इस नीति को और कठोर बनाया गया, जैसे 1950 में श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच शादी और सेक्स संबंधों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। लाखों की संख्या में गांव के (अश्वेत) लोगों को शहरों में जबरन बसाया गया और उनकी ज़मीनों को औने-पौने दामों में श्वेत लोगों को बेच दिया गया। 1961 से 1994 के बीच 35 लाख से भी ज़्यादा लोगों को इस तरह से विस्थापित किया गया। ये लैंड एक्ट की ही महिमा थी कि 1950 तक 80% से भी ज़्यादा ज़मीनें, अल्पसंख्यक गोरें लोग हड़प चुके थे। इन ज़मीनों पर अश्वेत लोगों का आना तक गैरकानूनी था और किसी कारण उन्हें आना हो तो सरकारी पास बनवाना होता था।

जुल्म होगा तो उसका विरोध होना तो तय ही है, दक्षिण अफ्रीका में भी इसका विरोध हुआ। यह हिंसक और अहिंसक दोनों ही तरह का था। 1913 में लैंड एक्ट का विरोध करने के लिए अफ्रीकन नेटिव नेशनल कांग्रेस नाम से एक संस्था बनी और यही आगे चल कर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस बनी (ANC)। 1952 में साउथ इंडियन नेशनल कांग्रेस और अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने मिलकर रंगभेद की इस नीति के विरोध में एक प्रदर्शन किया। इसी तरह के एक विरोध प्रदर्शन में 1960 में पैन अफ्रीकन कांग्रेस के प्रदर्शनकारियों  पर पुलिस ने गोलियां चलाना शुरू कर दिया जिसमें 67 अश्वेत नागरिक मारे गए।

रंगभेद के विरोध में जितने भी अहिंसक प्रदर्शन किये गए उन्हें पुलिस और सरकारी मशीनरी ने निर्ममता से कुचल दिया। 1961 तक अधिकाँश विरोधी नेताओं को या तो जान से मार दिया गया या फिर उन्हें लम्बे समय के लिए जेल में डाल दिया गया। सरकार की इस बर्बरता को देखते हुए बहुत से ऐसे दल बने जिन्हें हथियार उठाना ही एकमात्र रास्ता दिखा। इसी तरह का एक दल था उमखोंटो वे सिज़्वे (Umkhonto we Sizwe) जिसके स्थापक थे नेल्सन मंडेला, यह दल ANC का ही एक हथियारबंद दस्ता था। लेकिन मंडेला को भी 1963 में गिरफ्तार कर अगले  27 सालों के लिए जेल भेज दिया गया।

दक्षिण अफ्रीका की अश्वेत जनता के साथ हो रहे इस घोर भेदभाव और अत्याचारों पर विश्व समुदाय का ध्यान भी गया और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार किया जाने लगा। इंटरनेशनल ओलंपिक कमिटी (IOC) ने 1964 में दक्षिण अफ्रीका पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसके बाद यह देश 1992 में ही ओलंपिक खेलों में भाग ले पाया। इसी तरह इंपीरियल (अब इंटरनेशनल) क्रिकेट काउंसिल (ICC) ने भी दक्षिण अफ्रीका पर 1970 में प्रतिबन्ध लगा दिया जो 1991 तक जारी रहा।  1976 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने दक्षिण अफ्रीका को हथियारों के बेचे जाने पर पूरी तरह से रोक लगा दी, वहीं 1985 में ब्रिटेन और यू.एस.ए. ने दक्षिण अफ्रीका पर आर्थिक प्रतिबन्ध भी लगाए।

रंगभेद की पूरानी यूरोपियन विरासत के खिलाफ देश के अन्दर बढ़ते उग्र विरोध और लगातार बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक दबाव के आगे दक्षिण अफ्रीका के श्वेत सरकार को आखिर झुकना ही पड़ा। 1989 में रंगभेद नीति विरोधी श्वेत नेता एफ. डब्लू. डी. क्लार्क दक्षिण अफ्रीका के सरकार के अगुवा बने और 1992 में आज ही के दिन अश्वेत नागरिकों को श्वेत नागरिकों के बराबर अधिकार देने की घोषणा की।

1990 में नेल्सन मंडेला की रिहाई हुई और उन्होंने एफ. डब्लू. डी. क्लार्क के साथ मिलकर दक्षिण अफ्रीका के नए संविधान का निर्माण किया। मंडेला और क्लार्क को उनकी इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए 1993 में शांति के क्षेत्र में नोबेल प्राइज़ से सम्मानित किया गया। 1994 के आम चुनावों में दक्षिण अफ्रीका में गठबंधन सरकार बनी जिसमे अश्वेत लोगों की संख्या ज़्यादा थी। नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने और रंगभेद की बदनाम नीति ‘अपार्थाइड’ ख़त्म हुई।

फोटो आभार: फेसबुक पेज History In Pictures और फेसबुक पेज Nelson Mandela.

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