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द्विअर्थी गीतों के लिए होली को बहाना न बनाएं

डॉ. नीतू नवगीत

फागुन के महीने में बसंती बयार और कोयल की कूक के साथ मनाया जाने वाला होली मस्ती का त्यौहार है। यह पुरानी रंजिश को भूलकर जीवन में नए रंग चढ़ाने का त्यौहार है। यह सुर-ताल के साथ आनंद की एक नई दुनिया बसाने का त्यौहार है। इस त्यौहार में एकत्व की जगह सामूहिकता की जीत है और शायद इसीलिए होली का संगीत सबसे अलग, सबसे विशिष्ट है।

अमीर खुसरो से रसखान तक और सूरदास से लेकर बिहारीलाल तक, सबने फाग की मस्ती के गीत लिखे हैं। ये गीत राजदरबारों की शोभा रहे। लेकिन क्योंकि होली सामूहिकता की जीत का उत्सव है, इसलिए इस अवसर पर समूह यानी आम लोगों ने भी अपने अपने तरीके से गीत रचे और मस्ती की धुनों पर उसे गाया। बात चाहे ‘आज बिरज में होली रे रसिया’ गीत की हो या फिर ‘बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में होरी खेले’ की हो।

होली की सतरंगी मस्ती हर शब्द में एक विशाल आकार लिए मौजूद रहती है। होली के मीठे पकवान की तरह होली गीतों के हर शब्द में अपने क्षेत्र की मिठास शामिल है। और इसको सुनने वाले परिवार के सभी लोग झूम-झूम कर इन गानों का आनंद लेते रहे हैं। होली के अनेक गीतों में चुहलबाजी भी देखने को मिलती है। ‘भर फागुन बुढ़वा देवर लागे’ एक ऐसा ही गीत है। लेकिन इसमें भी अश्लीलता कहीं नहीं झलकती।

पिछले कुछ सालों से भोजपुरी सिनेमा संक्रमण काल से गुज़रता रहा है। किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए रखने की जद्दोजहद में यह सिनेमा कई दफे अश्लीलता की चाशनी में लोटपोट दिखा। प्राय: हर दूसरी फिल्म में जानबूझकर द्विअर्थी गाने डाले गए और फ्रंटलाइन दर्शकों के टेस्ट को सुनियोजित तरीके से खराब किया गया। फिर इन्हीं दर्शकों की मांग का हवाला देकर बार-बार भोजपुरी गीतों की आत्मा का कत्ल किया गया।

ऐसे-ऐसे गाने बने कि चौराहे और पान की दुकानों के पास से गुजरने वाली लड़कियों को आंखें नीची करके चलने पर मजबूर होना पड़ा। आंचलिकता की खुशबू में लिपटे होली गीत भी इस सांस्कृतिक क्षरण के शिकार बने। होली की मस्ती के नाम पर ऐसे-ऐसे गीत बनाए गए कि देवर-भाभी और प्रेमी प्रेमी-प्रेमिका के संबंध सड़ी नाली के कुलबुलाते हुए कीड़े-मकोड़े जैसे लगने लगे।

द्विअर्थी गीतों के सहारे होली में हुड़दंग मचाने वाले लोग भी यह भूल गए कि हर भाभी पहले एक औरत होती है। किसी देवर की भाभी बनने से पहले वह किसी की बेटी होती है। फिर किसी की पत्नी और किसी की बहू बनती है। इसी प्रक्रिया में उसे भाभी भी बनना पड़ता है, लेकिन यह भाभी सेक्स की कोई मशीन नहीं होती, बल्कि किसी बच्चे की मां होती है।

जोर-शोर से कहा जाता है कि बुरा न मानो होली है। मतलब कि होली के बहाने आप कुछ भी बुरा बोलते जाएं, लड़कियां सुनने के लिए बाध्य! द्विअर्थी गाने सुन कर भी लड़कियों को बुरा नहीं लगना चाहिए क्योंकि यह होली के अवसर पर गाया जा रहा है। होली जैसे पावन त्यौहार का शायद यह सबसे बड़ा पाखंड है। द्विअर्थी गानों की दुकान सजाने वाले लोगों को अब यह बताया जाना ज़रूरी है कि बुरा का मतलब बुरा होता है। चाहे वह होली के बहाने ही क्यों ना हो।

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