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क्या इस दौर में भगत भी बस फेसबुक पर ओपन लेटर लिख रहा होता?

बचपन से हम सभी इतिहास पढ़ते आये हैं। कभी-कभी सोचती हूं इतिहास का महत्व क्या है? ऐसा ही सोचते-सोचते इस विषय पर पहुंच जाती हूं कि भगत सिंह को ज़िंदा रखने की कवायदें क्यों करती हूं। जवाब मिलता है कि इतिहास हमें कुछ चिन्ह, प्रतिबिम्ब ट्रान्सफर करता है जिनसे हम अपने अनुभवों व क्रियाओं का वेरिफिकेशन करते हैं। भगत को ज़िंदा रखने के पीछे भी यही कुछ कारण हैं कि हमारे जवान जोश को एक ऐतिहासिक चेहरा मिलता है।

भगत के रूप में हम अपने आक्रोश, प्रेम, शोध को आकार देते हैं! लगता है हमसे अतिरिक्त भी कोई यहां से गुज़रा है। यह कतई गलत नहीं। परन्तु इसकी सार्थकता इस विषय पर भी निर्भर करती है कि हम भगत सिंह को कितना जानते हैं।

जैसे कि, वो एक युवा क्रन्तिकारी था जो 23 बरस की उम्र में साम्राज्यवाद से लड़ते-लड़ते फांसी पर लटक गया और आज हर सरकारी दफ्तर या क्रांतिकारी गुटों के कार्यालयों में तस्वीर बन कर दीवारों पर लटका है। इसके अतिरिक्त हम जानते हैं कि उसने सांडर्स को गोली मारी थी, असेम्बली में बम फेंका था, जेल में एक लम्बी भूख हड़ताल की थी और इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा भारत में आम किया था। लेकिन क्या इतना ही जानना काफी है उस व्यक्ति के बारे में जिसके नाम पर युवाओं की उग्रता को हवा दी जाती रही है? सभाओं पर उछलते जूते, चप्पल, पत्थर सब उचित ठहराए गए हैं! मुझे नहीं लगता।

यदि यह सही होता तो कई इतिहासकारों व भगत सिंह के साथियों और कैदियों द्वारा बार-बार कहने पर भी की उसने जेल में जो कुछ किताबें लिखी वो खोजने का प्रयत्न इतना ढीला और उनके नष्ट हो जाने की पुष्टि इतनी जल्दी नहीं होती। अब यह कहना तो मुश्किल है कि वो गोरों ने नष्ट की या कालों ने, मगर यह समझना कठिन नहीं कि जिसकी तस्वीर का जमकर इस्तेमाल हुआ है उसने विचारों के पतन में कोई कसर नहीं छोड़ी दोनों ने।

भगत ने अपना अंतिम समय पढ़ते और खुद व तत्कालीन परिस्थितियों का आंकलन करते बिताया था। उसके लिखे ख़त जिनमें से अत्यंत लोकप्रिय ख़त “मैं नास्तिक क्यों हूं” में इस बात की झलक ली जा सकती है। यदि इसी प्रकार उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आंकलन किया जाए तो वह एक जुझारू फितरत का युवक रहा जो इंकलाब की तलवार की बात अवश्य करता है मगर उसे विचारों की सान पर धार देना नहीं भूलता है। ध्यान आता है कि अपने भाई जयदेव को कुछ पुस्तकों की सूची भेजते हुए वो जो ख़त लिखता है उसमे ये बार बार ज़िक्र करता है कि बोर्स्टल जेल के कैदियों को किताबें अब तक नहीं मिली हैं, उन तक जल्द से जल्द कुछ रोचक पुस्तकें पहुंचा दो। उसी ख़त में वो पढ़ ली गयी पुस्तकों के वापस पुस्तकालय पहुंच जाने की चिंता भी व्यक्त करता है। सोचिये जरा कि यदि उसे क्रांति महज पिस्तौल और बम से लानी है तो वो अध्ययन या विचारों के फेर में इस कदर क्यों घूम रहा है?

भगत सिंह जिस समय जेल में कैद था उस समय सुविधाओं के नाम पर कुछ भी हासिल नहीं था कैदियों को, बल्कि उसने और उसके साथियों ने ही कैदियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी। तब भी क्रन्तिकारी साहित्य के प्रति उसकी लालसा इतनी थी अपने साथ-साथ सभी के लिए इंतज़ाम करवाता था। आंखिर क्यों?

भाई, हम भी कम क्रांतिकारी नहीं हैं! हम लोग तो 14 फरवरी को पाश्चात्य संस्कृति के विद्रोह में ये तक भूल जाते हैं कि भगत सिंह को फांसी 14 फरवरी नहीं 23 मार्च को हुई थी। हमें पढ़ने या सोचने की क्या आवश्यकता है। हमें कौन सा गोरी सरकार के अधिनियमों से जूझना है। हमारे मुद्दे तो बस यही हैं कि, कौन कितना खांसा? किसने कितने का कुर्ता पहना? कौन थक कर कहां घूमने गया? या किसने क्या-क्या ट्वीट किये!

हमे घंटा फर्क नहीं पड़ता कि जब हम बीफ बर्गर और सलाद पर ट्रोलिंग कर रहे होते हैं तो कितने विधेयक पारित या लंबित हो जाते हैं। हमें इससे भी कोई मतलब नहीं कि किस क्षेत्र में कितना बजट दिया गया और उसका उपयोग कितना हुआ! हमे तो बस JNU और ABVP में देशभक्तों व देशद्रोहियों की छटनी करनी है! यहां तक कि देश या देशद्रोह की परिभाषाओं को भी हम पढ़ना समझना ज़रूरी नहीं समझते। बेशक हमारा भगत सिंह होता तो वह भी यही सब करता। तब ही इतने ख़त लिखता था आज भी दिन भर फेसबुक/ट्विटर पर खुले ख़त लिखता रहता! हैं ना?

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