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इस कानून में औरत को सज़ा इसलिए नहीं मिलती, क्योंकि वो पति की गुलाम है

एक बार मैं ऐसे ही भाई की आई.पी.सी. मतलब भारतीय दंड संहिता देख रहा था, उसमें कई धाराएं और अपराध के प्रकार के साथ व्याख्या थी, तब मैंने ने सोचा कि ब्रिटिशर्स इतना कैसे सोच सकते है कि ऐसे-ऐसे अपराध भी हो सकते हैं। खैर, ये बात तब की है जब में 11वीं कक्षा का छात्र था।

अभी कुछ दिनों से फिर एक ख़याल आया आई.पी.सी. की धारा 497 को देख कर। इसमें कहा गया है, “यदि कोई पुरुष जानकर या अंजाने (स्त्री विवाहित है या नहीं) में किसी विवाहित स्त्री की सहमति से उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाता है, जबकि इसके लिए उसके पति की कोई सहमति नहीं हो तो इसे जार-कर्म (अडल्ट्री) माना जायेगा। इसकी सज़ा 5 वर्ष से अधिक नहीं हो सकती जबकि वह स्त्री किसी भी दंड की भागी नहीं मानी जाएगी।”

इसी तरह धारा 498 को सरल शब्दों में समझे तो, “यदि कोई पुरुष किसी स्त्री से जानते हुए या अनजाने में कोई भी ऐसा सम्बन्ध रखता है जो उसके पति से उसे दूर कर रहा हो, अपराध है जिसकी सज़ा 2 साल होगी जो सिर्फ पुरुष को ही दी जा सकेगी।” ये वो कानून हैं जिसे अंग्रेज़ों की महारानी विक्टोरिया के कालखंड में बनाया गया था और अंग्रेज़ ही हम पर इन्हें थोप गए हैं।

ना तो हमारे नीति निर्माताओं ने इन्हें बदलने की कोशिश की ना न्यायविदों ने, बल्कि न्यायपालिका ने भी इसे सुविधावादी दृष्टिकोण से अपना लिया। क्योंकि कुछ आज़ाद करने के लिए आज़ाद सोच भी चाहिए पर सुविधाभोगी दृष्टिकोण और कार्य व्यवस्था ने हमारी संस्थाओं को अंग्रेजों का उत्तराधिकारी ही बनाया जबकि उसी ब्रिटेन में आज ये कानून खत्म किया जा चुका है।

एक बार किसी शहर में एक कुत्ता रास्ता भटक गया और एक भलेजन के पीछे-पीछे आ गया और रात थी इसलिए उसने व्यक्ति ने उस कुत्ते को अपने घर में पनाह दे दी। दूसरे दिन ‘कुत्ते का मालिक’ पुलिस के साथ आ गया और बोला इस आदमी ने मेरे कुत्ते को ज़बरदस्ती अपने घर में रखा है। उस आदमी ने कहा देखिये ये मेरे पीछे खुद आया और अभी भी पूंछ हिला रहा है। तब पुलिस ने उस आदमी को कहा, “आपको हमारे साथ चलना होगा क्योंकि कुत्ते की सहमति या असहमति से कोई मतलब नही क्योंकि कुत्ता उसके मालिक की संपत्ति।”

इस उदाहरण से मेरा आशय किसी को अपमानित करना नहीं था, बल्कि में ये धारा 497-498 यही कहती है कि एक पत्नी अपने पति की संपत्ति है और पति सहमति से ही वो किसी पर पुरुष से भी सम्बन्ध बना सकती है। जबकि अगर कोई विवाहित पुरुष किसी अविवाहित स्त्री से उसकी सहमति से सम्बन्ध बनाता है तो कोई भी धारा नही है जो इस काम को अपराध कहे और जारकर्म कहे।

मुझे तो आश्चर्य होता है जंहा ये कहा जाता है स्त्री को इसलिए दंड नहीं दिया जा सकता क्योंकि विवाहित स्त्री खुद नहीं भटक सकती बल्कि पुरुष उसे भटकाता है। ठीक ऐसे ही जब विक्टोरियन काल में ‘हस्तमैथुन’ या मास्टरबेशन पर सज़ा का प्रावधान था जबकि स्त्रियां इस सज़ा से मुक्त थीं क्योंकि महारानी विक्टोरिया का विचार था कि स्त्रियां ‘हस्तमैथुन’ कर ही नहीं सकती।ये एक पुरुषवादी धारणा है कि पुरुष का मतलब एक कामुक, स्वछन्द और और सम्भोग को तत्पर भोगी से है जो किसी भी स्त्री के साथ आसानी से सो सकता है। आश्चर्य तो तब होता है जब न्यायाधीश बन कर बैठे लोग भी ऐसी धारणा का को पुष्ट करते हैं। हम किसी की इच्छाओं को उसके लिंग के आधार पर नही माप सकते बल्कि किसी भी यौनशोषक का कोई लिंग भी नही होता, वो शोषण कर रहा होता है बस।

मैं आज भी ये बात किसी से नही कह पाया कि 13 साल की उम्र में एक औरत ने मेरा यौनशोषण किया क्योंकि मुझे लगता था कि कोई मेरी बात का यकीन नही करेगा कि कोई औरत भी ऐसा कर सकती है। बरहाल, धारा 497 -498 बालिग पुरुषों के लिए खतरनाक है और स्त्रियों के लिए दासता का प्रतीक जहां वो एक जानवर के जैसे अपने पति की संपत्ति हैं।

ये एक घटना किसी के साथ भी हुई होगी या हो सकती है या हो रही है, एक लड़का जो 25 साल का है और एक कंपनी में काम करता है। वहीं एक औरत जो कंपनी के मालिक की बीवी है और उस कंपनी की को-फाउंडर भी, उस लड़के से दोस्ती करती है। लड़का एक यंग प्रोफेशनल है सो वो अपनी बॉस को नाराज़ नहीं करना चाहता और ऑफिस के बाद उसके साथ घूम लेता है। एक दिन वो बॉस एक मीटिंग के दौरान उसे ठहराए हुए होटल के कमरे में आती है और रो कर, ब्लैकमेलिंग से और धमकी से उसके साथ जबरदस्ती सम्बन्ध बनाती है।

वो ये बात अपने साथी को बताता है पर वो विश्वास नहीं करता और यही कहता है कि तुम खुद को रोक सकते थे। वो परेशान हो जाता है अपनी मैडम के मैसेज से, मेल्स से और वो एक दिन अपने बॉस मतलब कंपनी के मालिक और मैडम के पति को ये बात बताता है तो उसका जॉब कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर देने का मेल आता है। तब भी वो औरत उसे मेल, फ़ोन कर बुलाती रहती है और जब वो फिर से शिकायत करता है तो उन मैडम के पति कहते हैं, “यदि मेरी कंपनी का नाम खराब हुआ तो मैं तुम पर IPC की सेक्शन 497 -498 के तहत केस कर दूंगा, पूरा करियर बर्बाद हो जयेगा।” वो औरत आज भी कंपनी की को-फाउंडर है और लड़का डिप्रेशन में चला गया है।

ये मामले विरले नहीं हैं, ये होते हैं पर हम एक धारणा को आंख-कान बन्द करके खुद को ‘प्रगतिवादी’ तो कह सकते हैं पर अन्याय को झुठला नहीं सकते। आश्चर्य तो इस बात का है कि संसद में बैठे हमारे प्रतिनिधि ऐसे मुद्दों पर काम नहीं करते और न्यायपालिका गुलामी के बनाए कानूनों के खिलाफ बगावत करती है। क्या हमे खुद की बुध्दिमत्ता पर भरोसा नहीं? क्या हम अंग्रेज़ो से आज़ाद हुए भी या हम अंग्रेज़ो के उत्तराधिकारी ही हैं? ये सवाल हैं पर फिर भी मैं यही कहूंगा कि इसका मतलब ये नही कि स्त्रियां पीड़ित नहीं हैं, पर यदि एक “पिंक” नाम की मूवी बनती है जिसमें वकील अमिताभ साहब होते तो क्या एक ‘ग्रे’ मूवी नहीं बननी चाहिए जिसमें वकील शबाना आज़मी या विद्या बालन हों?

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