दुनियाभर की गारमेंट इंडस्ट्री कितने बूम पर है यह अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि आज व्यापार की दृष्टि से गारमेंट इंडस्ट्री, ऑयल इंडस्ट्री के बाद दूसरे स्थान पर है और इसका सालाना कारोबार 3 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक हो चुका है। हर वर्ष हम लोग 80 बिलियन नए कपड़े खरीदते हैं, जो 2 दशक पहले की हमारी उपभोग करने की सीमा से लगभग 400% अधिक है।
ये बड़े-बड़े आंकड़े, रौशनी से गुलज़ार शोरूम और सेल के विशालकाय होर्डिंग, हमें इस उद्योग से जुड़ी एक कड़वी सच्चाई से बहुत दूर ले जाने की कोशिश करते हैं और वो है इस उद्योग में काम कर रहे मज़दूरों का हर स्तर पर होने वाला शोषण। क्या हमने सोचा है कि जब पूरे विश्व में सभी चीज़ों की कीमत में बढ़ोतरी हो रही है उस समय कपड़ों की कीमत में लगातार इस तरह की कमी कैसे संभव है? और जब दाम कम हो रहे हैं, उसके बाद इन उद्योगों में लगी बड़ी कंपनियों का मुनाफा कैसे बढ़ रहा है?
इन सभी प्रश्नों और इस उद्योग की स्याह सच्चाई को सामने लाती है इस विषय पर बनी एक डॉक्युमेंट्री फिल्म “The True Cost”। यह डॉक्युमेंट्री इस मामले से जुड़े सभी पक्षों पर विस्तार से चर्चा करती है। इन्हीं में से एक है कि वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया पर वैश्वीकरण का क्या प्रभाव हुआ हैं?
इस प्रश्न को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि 1960 के दशक तक अमेरिका अपने देश में हो रहे वस्त्रों के कुल उपभोग का 60 प्रतिशत निर्माण स्वयं रहा था वहीं आज वो सिर्फ 3 प्रतिशत का उत्पादन ही अपने देश की फैक्ट्रियों में कर रहा है। बाकी उत्पादन चीन, बांग्लादेश, भारत, फिलिपीन्स और कम्बोडिया जैसे विकासशील देशों में किया जा रहा है।
इसका सबसे बड़ा कारण है इन देशों में सस्ते श्रम की उपलब्धता और यहां के लचर श्रम कानून। कपड़ा उद्योग में बड़ी संख्या में महिलाएं काम कर रही हैं, क्योंकि उन्हें सस्ते श्रम के तौर पर देखा जाता है।
उन्होंने फैक्ट्री मे काम करने के माहौल के संबंध मे बताया कि इन फैक्ट्रियों में लगभग 85 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं। यहां काम करने वाले मज़दूरों पर एक निश्चित मात्रा में उत्पादन करने का दबाव होता है और यह इतना अधिक होता है कि उन्हें वॉशरूम इस्तेमाल करने का समय भी नहीं मिलता। तय मात्रा में उत्पादन नहीं करने पर उन्हें ओवर टाइम करना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें किसी तरह अतिरिक्त भुगतान नहीं किया जाता।
मैनेजमेंट द्वारा गालियां दिया जाना, यौन दुर्व्यवहार इन फैक्ट्रियों में होने वाली आम घटनाएं हैं और क्योंकि यहां काम कर रही महिलाएं एक ऐसे तबके से आती हैं, जिनके लिये ये काम करना एक मजबूरी है। पूरी व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण ये अपनी शिकायत भी कहीं दर्ज नहीं करवा पाती।
रुक्मणि बताती हैं कि सरकार द्वारा निर्धारित की गयी न्यूनतम मज़दूरी 287 रूपए इस शहर और बढ़ते महंगाई स्तर के हिसाब से बहुत कम है और वो लगातार इसे बढ़ाने की मांग सरकार से कर रही हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने बताया कि यहां आप कितने वर्ष भी लगातार काम करें, तनख्वाह में किसी तरह कि वृद्धि नहीं की जाती।
वो आगे बताती हैं कि लेबर यूनियन बनाने के प्रावधानों को भी सरकार द्वारा लगातार कठिन बनाया जा रहा है। सरकार पर इन उद्योगों का दबाव होता है कि यदि यहां कोई यूनियन बनी तो वे अपनी फैक्ट्रियों को किसी ओर स्थान पर शिफ्ट कर लेंगे। इस वजह से यहां काम कर रहे मज़दूर भी इन संगठनों से जुड़ने से डरते हैं कि कहीं उनकी नौकरी खतरे में ना पड़ जाए।
सरकारे भी योजनाएं बनाते समय इन्हीं लोगों की सलाह लेती हैं, क्योंकि सरकारों के लिये इन उद्योगों से मिलने वाला टैक्स आय का एक बड़ा श्रोत होता है। इसी के साथ सरकारे अपनी पीठ भी थपथपा लेती हैं कि उनके राज्य में वे रोज़गार के इतने अवसर पैदा कर पाने में कामयाब हुई हैं और इतने लोगों का यहां रोज़गार मिला है।
लेकिन क्या ये सवाल उठाना लाज़मी नहीं है कि इस तरह की परिस्तिथियां पैदा करके हम रोज़गार सृजन कर रहे हैं या स्लेवरी (दासता)। अर्थव्यस्था में ये लोग सबसे निचले पायदान पर होते हैं, जहां निर्णय लेने में इनकी कोई भागीदारी नही है। इन्हें भी अन्य मशीनों की तरह ही एक और मशीन मान लिया गया है और इनकी आवाज़ भी कल-पुर्जों के भारी शोर में कहीं खो गयी है।
इसके लिए हम सिर्फ सरकारों को ही दोष क्यों दे, वास्तव में हम सभी उस व्यवस्था का हिस्सा हैं जो हमें उपभोक्ता बनने के लिये ही प्रेरित करती है और यदि हमारा उपभोग बढ़ेगा तो इस पूरी व्यवस्था में किसी का हिस्सा तो कम होगा ही।
हितेश Youth Ki Awaaz हिंदी के फरवरी-मार्च 2017 बैच के इंटर्न हैं।
फोटो आभार: MMM Investors India