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बहुमत कोई गंगा स्नान नहीं, जो सभी पापों से मुक्त कर दे

लोकतंत्र में सरकारें बहुमत से ही बनती हैं। जब किसी एक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तब कई दलों का गठबंधन मिलकर बहुमत सिद्ध करता है और उस गठबंधन की सरकार बनती है। बात बहुत सरल सी है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जब किसी एक दल को प्रचंड बहुमत मिला है, तो वहीं कई दलों ने मिलकर गठबंधन सरकार भी बनाई। मसलन राजीव गांधी को 1984 में पूरा बहुमत मिला तो वहीं दूसरी ओर अटल जी ने 14 दलों के गठबंधन की सरकार चलाई।

अब सवाल ये उठता है कि क्या इन सरकारों का विरोध नहीं हुआ? क्या किसी दल को बहुमत मिलने का ये अर्थ है कि अब उस दल का विरोध बंद हो जाना चाहिए? भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनावों में प्रचंड बहुमत मिला है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को लगभग 40 फ़ीसदी तो वहीं उत्तराखंड में 50 फ़ीसदी वोट मिला है। इस ज़ोरदार जीत के बाद ऐसा माहौल बांधा जा रहा है मानो, अब तक जो भी विरोध भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार का हो रहा था वह बेमानी था। अब सभी तरह की आलोचनाओं पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने चुनाव जीता है।

अब ये बात तो कुछ ऐसी ही लगती है मानो आज से पहले किसी ने चुनाव ही न जीता हो और उन्हें बहुमत ही न मिला हो। बहुमत तो अखिलेश यादव के पास भी था और मायावती के पास भी, तो क्या उन्हें इस आधार पर बक्श दिया गया? इसी बात पर एक और दलील आती है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला है और उनके विरोधियों को जनता ने नकार दिया है। अगर बात ऐसी है तो जनाब थोड़ी नज़र हिन्दुस्तान के चुनावी इतिहास पर डालते हैं।

बात उत्तर प्रदेश के पहले विधानसभा चुनावों की करें तो कुल 430 में से कांग्रेस को 388 सीटें और दूसरे विधानसभा चुनावों में 286 सीटें मिलीं थीं। क्या इसे प्रचंड बहुमत मानते हुए, समाजवादियों ने या फिर जनसंघ के नेताओं ने कांग्रेस की आलोचना बंद कर दी थी या उनकी नीतियों पर प्रश्न उठाना बंद कर दिया था? ऐसा तो नहीं हुआ। कुछ और उदाहरण देखते हैं, देश के पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 489 में से 364 तो दूसरे आम चुनावों में 494 में से 371 सीटें मिलीं। पंडित नेहरू की ऐसी प्रचंड जीत पर क्या राम मनोहर लोहिया ये स्वीकार कर लेते कि उन्हें अब जनता ने नकार दिया है और उनकी विचारधारा किसी काम की नहीं! ऐसा तो हरगिज़ न हुआ, अपितु लोहिया जी पंडित नेहरू के सामने विरोध में डटकर खड़े रहते थे।

एक और उदाहरण जो प्रासंगिक है वह है इंदिरा गांधी का। इंदिरा गांधी को 1971 के चुनावों में ज़ोरदार बहुमत मिला था (352/518), फिर भी उनकी नीतियों की उतनी ही ज़ोरदार आलोचना हुई। यहां तक कि जेपी ने भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और उसके बाद जो हुआ वह पूरा देश जानता है। तब क्या किसी ने ये दलील स्वीकार की थी कि उन्हें बहुमत मिला था और जनता उनके साथ थी? लोकसभा चुनावों के इतिहास में जो सबसे ज़ोरदार जीत हुई थी वह थी राजीव गांधी की, जिसमे उन्हें कुल 510 में से 404 सीटों पर जीत मिली। तो क्या इस जीत के बाद अटल बिहारी ने यह मान लिया कि उनकी विचारधारा को जनता ने नकार दिया है और उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी चाहिए!

लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है, मगर जो बात महत्वपूर्ण है, वह है असहमति को स्थान। किसी भी चुनावी जीत में सामान्यतया ज़ोरदार तरह से जीतने वाला दल भी 50 फ़ीसदी तक ही मत प्राप्त करता है। इसका अर्थ तो ये नहीं होता है कि बचे 50 फ़ीसदी लोगों को अपनी सोच बदल देनी चाहिए। हां ये ज़रुरी है कि दल आत्ममंथन करें और बेहतरी की ओर अग्रसर हों। लेकिन साथ ही साथ वे अपने विचार रखने, असहमति व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं।

दरअसल मसला ये है कि 2014 में [envoke_twitter_link]नरेन्द्र मोदी के पूर्ण बहुमत में आने के बाद से एक ट्रेंड बन गया है, जो है असहमतियों के उपहास का।[/envoke_twitter_link] ये ट्रेंड एक खतरनाक ट्रेंड है और जो कुछ भी हो किसी भी तरह से लोकतांत्रिकनहीं है। आप बहुत से समर्थकों को ये कहते सुन सकते हैं कि उन्हें बहुमत मिला है, चुनाव जीत के आए हैं तो फिर कैसा विरोध! ज्यादा दिक्कत है तो 2019 में हरा देना। ये तर्क अपने आप में ही लोकतांत्रिक नहीं है क्योकि ये लोकतंत्र के मूल सिद्धांत जवाबदेही को नजरअंदाज़ करता है। ये जनता का और विपक्ष का अधिकार भी है और दायित्व भी कि वे सरकार की स्वस्थ आलोचना करते रहें जिससे कि सरकारें किसी भी प्रकार के अधिनायकवाद से बचें।

जब बात बहुमत की हो रही है तो यहां अरविन्द केजरीवाल की सरकार को भी याद कर लेना चाहिए, क्योंकि वे भी 67 /70  के बहुमत से सत्ता में आए थे। क्या केवल बहुमत के आधार पर भाजपा ने उनका विरोध करना बंद कर दिया? नहीं न, तो फिर ऐसी दलीलें क्यों? वो भी प्रवक्ताओं के स्तर से!

दरअसल, जब भी कोई नेता राष्ट्रीय फलक पर व्यापक स्तर पर उभर कर सामने आता है तो अक्सर समर्थकों द्वारा उसके महिमामंडन की पूरी कोशिश होती है। उसे ऐसे पेश किया जाता है मानो वह आलोचना से परे हो। कोशिश होती है, विपक्ष में खड़े लोगों का उपहास करने की, उनकी खिल्ली उड़ाने की और इस इस कड़ी में नरेन्द्र मोदी अकेला नाम नहीं हैं। हकीकत में वे इस मुकाबले में इंदिरा गांधी से थोड़ा पीछे ही नज़र आते हैं, जिनके लिए उनके पार्टी प्रमुख डी.के. बरुआ ने नारा बना दिया था, “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया।”

इसी क्रम में एक किस्सा याद आता है कि जब इंदिरा गांधी 1978 में चुनाव लड़ने कर्नाटक के चिकमंगलूर सीट पहुंची। उनको हराने के लिए सारे विपक्षी दलों के नेता एकजुट हुए तो उनके समर्थन में देवराज उर्स ने नारा दिया, “एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर।” हालांकि [envoke_twitter_link]रास्ता नरेन्द्र मोदी का भी वही है, जो इंदिरा गांधी का था।[/envoke_twitter_link] उनके समर्थक भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। जिस तरह इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समय विपक्ष के नेताओं जिनका नेतृत्व जेपी कर रहे थे, को देशविरोधी बताया था। नरेन्द्र मोदी के समर्थक भी देश भक्ति प्रमाणित करते चौराहों पर आपको मिल जाएंगे।

बहरहाल विषय पर आते हैं, तो अनेक उदाहरणों से तो यही लगता है कि प्रचंड बहुमत पहले भी मिले हैं, इस बार भी मिला है और भविष्य में भी मिलते रहेंगे। लेकिन [envoke_twitter_link]जो बात लोकतांत्रिक मूल्यों में शाश्वत है, वह है असहमति को स्थान।[/envoke_twitter_link] किसी को कितना भी प्रचंड बहुमत न मिल जाए, जब तक एक छोटा सा तबका भी आपसे असहमति रखता है तब तक आपको उस असहमति को उचित स्थान देना चाहिए। यही एक लोकतांत्रिक सरकार का कर्त्तव्य भी होता है और ऐसा ही लोकतंत्र, गांधीजी का भी सपना था।अगर ऐसा न हो तो लोकतंत्र को भीड़तन्त्र में और बहुमत को बहुसंख्यक मत में बदलने में देर नहीं लगती।

सबसे ज़रूरी बात, [envoke_twitter_link]चुनाव में जीत कोई गंगा स्नान नहीं है, जो आपको सभी पापों से मुक्त कर देगी।[/envoke_twitter_link] ये जम्हूरियत है जनाब हर रोज़ सवाल होंगे, और हर रोज ज़वाब देना होगा। चुनाव तो राहुल गांधी भी जीते हैं, तो क्या स्तुति की जाएगी या फिर उनको कांग्रेस पार्टी का सबसे योग्य नेता मान लिया जाएगा! ये जनतंत्र है, ये मत सोचियेगा कि चुनाव जीत कर कोई “होली काऊ” बन जाएंगे, इसी लोकतंत्र में मुख्तार अंसारी भी चुनाव जीते हैं। चलिए मान भी लिया कि आपकी जीत गंगा स्नान है, मगर अब तो गंगा जी में भी गंदगी हो गयी है, पाप तो धुले नहीं, तो तैयार हो जाइए सवाल के लिए।

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