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फुटबॉल के ज़रिए पुरुषवादी सोच को चुनौती देती पटना की मुस्लिम लड़कियां

“हम उ सब खेल खेलना चाहते हैं जो लड़का लोग खेलता है, हमको फुटबॉल बहुत पसंद है। हमको फुटबॉल खेलने का बहुत दिल करता है, लड़का लोग को फुटबॉल खेलते देखे थे तो मेरा भी बहुत मन किया कि हम भी खेलें, पहले मम्मी मना करती थी कि मत खेलने जाओ फुटबॉल, पापा बोलें कि इतना छोटा कपड़ा पहन के फुटबॉल खेलने बाहर जाओगी तो लड़का लोग देखेगा, फुटबॉल में हमको बॉल को कैच करने वाला बहुत अच्छा लगता है, हमको इंडिया के लिए खेलना है।

ये बातें आपके कान में कुछ यूं गूंजेंगी कि आपको यकीन नहीं होगा कि आप बिहार के पटना सिटी में कुछ मुस्लिम लड़कियों से बात कर रहे हैं जहां फुटबॉल या तो पुलिस या तो मिलिट्री वाले ही खेलते नज़र आते हैं।  बिना किसी प्रॉपर फुटबॉल ड्रेस के 10 से 18 साल की लगभग 20 से 25 लड़कियां आपको फुटबॉल खेलती नज़र आती हैं तो आपको सुकून तो मिलता ही है साथ ही एक अजीब सा कौतूहल भी होता है कि फुटबॉल कैसे?

ये लड़कियां उस तबके से आती हैं जहां स्कूल और ट्यूशन एक लग्ज़री है। गरीबी और सरकारी योजनाओं की जानकारी की कमी, पटना सिटी के मुगलपुरा इलाके की दुखद हकीकत है। जिसकी वजह से इनमें से कोई भी स्कूल नहीं जा पाया। और इस वक्त पर इन लड़कियों को शाहिना मैम और इज़ाद संस्था का सहारा मिला।

इस संस्था में पढ़ने लिखने के अलावा इन लड़कियों के खेलने और स्किल डेवलेपमेंट का भी पूरा ख्याल रखा जाता है। अलग-अलग खेल खेलते हुए ही एकदिन मौका आया फुटबॉल आज़माने का जब शाहिना से पूछा गया कि क्या उनके सेंटर से कोई भी लड़की या लड़कियों कि कोई टीम फुटबॉल खेलना चाहेगी?

शाहिना और सेंटर की लड़कियों के लिए जहां ये मौका था वहीं एक बड़ी चुनौती भी, क्योंकि जिन पेरेंट्स ने अभी बस अपनी बच्ची को घर का आंगन लांघने की इजाज़त ही दी हो उन्हें एक ऐसे खेल के लिए राज़ी करना जिसमें घुटनों से ऊपर तक के ड्रेस पहन कर खेलना और दौड़ना होता है वो भी अपने घर से दूर, उनको मनाना नामुमकिन सा काम ही था।

शफा परवीन, ज़ुलेखा परवीन और सुमैया परवीन वो 3 लड़कियां थी जिनके पेरेंट्स फुटबॉल के लिए मान गए। शायद तब उन मां-बाप को भी अंदाज़ा नहीं था कि ये कितने बड़े बदलाव की तस्वीर के नायक होंगे। तीनों लड़कियों को पटना के नज़दीक दानापुर में 3 दिन का प्रशिक्षण मिला। वो वहां से लौटी तो सेंटर के पास ही पटना सिटी के नेहरु पार्क फुटबॉल खेलने लगीं।

तीन लड़कियों को खेलते देख सेंटर की सभी लड़कियों में फुटबॉल को लेकर एक गज़ब की दीवानगी का माहौल हो गया है। सभी अब शाहिना से एक ही बात कहती हैं कि अगली बार जब भी ट्रेनिंग कैंप लगे तो उन्हें भी भेजा जाए। शफा, ज़ुलेखा और सुमैया अब सेंटर की बाकी लड़कियों के लिए कोच की भूमिका में हैं।

 

शफा बताती हैं कि शुरुआत में पापा बोलें कि बाहर जाओगी खेलने तो लड़का सब देखेगा, लेकिन शाहिना मैम ने जब समझाया तो वो मान गएं। 

ये पूछने पर कि लड़कियों को फुटबॉल खेलवाने में सबसे पहले क्या मुश्किलें थी, शाहिना ने बताया कि

जब पहली बार मुझसे पूछा गया कि तुम्हारे सेंटर से लड़कियां फुटबॉल खेलना चाहेंगी तो मुझे लगा फुटबॉल वो भी लड़कियां! तो मुझे लगा कि इसपे सोचने का थोड़ा तो वक्त चाहिए कि क्या लड़कियां जाना चाहेंगी या पैरेंट्स मानेंगे उनके। मेरे लिए ये चुन पाना मुश्किल था कि कौन से पेरेंट्स ऐसे होंगे जो तीन दिन के लिए अपनी बच्चियों को जाने देंगे।

शफ़ा,सुलेखा और सुमैया। इनके मां बाप मान गएं और उन्हें वहां 3 दिन की कोचिंग मिली। जब ये वहां से लौटी तो बाकी लड़कियों को लगा कि इनको मैम भेज दी हमको नहीं भेजी तो फिर सभी लड़कियों ने मुझे बोला कि मैम हमें भी खेलना है फुटबॉल। फिर यहां पर हमने एक मीटिंग की जहां सभी गार्जियन को समझाया कि खेलना बहुत ज़रूरी है। मैंने उनको बताया कि देखिये यहां से 2 किमी दूर एक पार्क है जहां हम लेकर खुद ले जाएंगे लड़कियों को और खेलवाएंगे। तो गार्जियन को लगा कि ये तो बात सही है वो राज़ी हो गए और वो भी पार्क आने लगे अपनी बच्चियों को खेलते देखने को।

शाहिना(बीच में) के साथ सेंटर की लड़कियां

शुरुआत में जब लड़कियों ने खेलना शुरु किया तो लड़कों ने पार्क में उनको खेलने के लिए जगह देने से मना कर दिया। लड़के इस बात पर अड़े रहें कि ये लड़कों की खेलने की जगह है और यहां लड़कियां नहीं खेल सकतीं। शायद उनके लिए भी ये एक बहुत बड़े कल्चरल शिफ्ट का वक्त था। धीरे-धीरे वो भी साथ खेलने लगें।

शफ़ा बड़े ही शौक से सबको बताती है कि किक कैसे किया जाता हैऔर कैसे अपने प्लेयर के साथ आइ कॉन्टैक्ट बनाना बहुत ज़रूरी है। मुस्कान परवीन कहती है कि हमको फुटबॉल में कैच लेने वाला बहुत पसंद है और हम गोलकीपर बनना चाहते हैं। रेशम ने बताया कि ”एकबार हम पार्क में देखें कि लड़का लोग फुटबॉल खेल रहा है तो हमको भी बहुत मन किया खेलने का”  वहीं एक और फुटबॉल खेलने वाली लड़की कहती है कि शुरुआत में पापा बोलें कि लड़की हो बाहर जाके खेलोगी? हम बोले कि भाई भी तो खेलता है।

यकीन मानिए जब भी कोई लड़की घर से फुटबॉल खेलने वाले ग्राउंड तक पहुंचने की कहानी सुनाती थी तो उसमें सहजता से समाज की पितृसत्ता और धार्मिक पूर्वाग्रहों की बेड़ियां टूटती नज़र आती थी। हालांकि उनकी उम्र में ये बहुत ही सरल भाषा में समझा पाना कि वो कितना बड़ा काम कर रही हैं मेरे लिए थोड़ा मुश्किल था।

इसी बीच जिस नेहरू पार्क में ये लड़कियां फुटबॉल प्रैक्टिस करने जाती हैं वहां के गेटकीपर ने लड़कियों के लिए पार्क के दरवाज़े बंद कर दिए और कहा कि अगर लड़कियों को खेलना है तो पहले लिखित में ऑर्डर लेकर आना पड़ेगा।

हालांकि स्थानिय पार्षद ने शाहिना और Youth Ki Awaaz को ये भरोसा दिलाया कि ऐसी कोई भी दिक्कत नहीं होगी। और हफ्ते में दो दिन लड़कियां वहां खेल सकती हैं।

हालांकि अगर आप फुटबॉल की बहुत ही बारीकियां और टेक्निकैलिटीज़ में जाएं और इन लड़कियों से कुछ पूछें तो शायद ये आपको ना बता पाएं। जैसे ये पूछने पर कि फुटबॉल में सबसे अच्छा खिलाड़ी उसे कौन लगता है उसने जवाब दिया सचिन तेंदुलकर। लेकिन कभी नेहरू पार्क में तो कभी ग्राउंड में और कभी गंगा किनारे ये लड़कियां जब हिजाब में या सलवार कमीज़ में और फुटबॉल के लिए बेहद ही अपारंपरिक पोशाक में खेलती नज़र आती हैं तो फेमिनिज़्म की सारी डिबेट का सार आंखों के सामने नज़र आता है।

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