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बिहार के इस गांव के लोग एक पुल के लिये लड़ रहे हैं अनूठी जंग

इसी हिंदुस्तान के नक़्शे में एक इलाका है फरकिया। यह इलाका बिहार के नक़्शे के बीच में होते हुए भी सदियों से फरक है। इसे नदियों का मायका कहते हैं, क्योंकि इस छोटे से इलाके से होकर सात छोटी बड़ी नदियां बहती हैं। अकबर के नवरत्नों में से एक टोडरमल जब पूरे भारत के जमीन की पैमाइश कर रहे थे तो यहां भी आये। मगर यहां की नदियों के चंचल स्वभाव की वजह से वे यहाँ भू पैमाइश का काम पूरा नहीं कर पाये। नक़्शे पर इस इलाके को उन्होंने लाल स्याही से घेर दिया और लिख दिया फरक-किया, यानी अलग किया। यही फरक-किया बाद में फरकिया हो गया। तब से यह इलाका फरक ही है।

पिछले एक पखवाड़े से यहां के हजारों बाशिंदे अपने इस फरक इलाके को इस आधुनिक दुनिया से जोड़ने के लिये आंदोलन कर रहे हैं। 30 महिलाएं और 20 पुरुष अनशन पर बैठे हैं और एक पुल की मांग कर रहे हैं।पुल के लिये अनूठी जंग- उस पार है फरक दुनिया, इस पार बहरी सरकार हजारों दूसरे लोग उनके समर्थन में वहां प्रदर्शन कर रहे हैं। मानव श्रृंखला बना रहे हैं, कोसी पूजन कर रहे हैं और मुंह पर पट्टी बांध कर प्रदर्शन कर रहे हैं। सैकड़ों दूसरे लोग अनशन पर बैठने के लिये तैयार हैं। यह सब 15 दिनों से चल रहा है।

इस बीच मुख्य अनशनकारी बाबूलाल शौर्य की तबियत काफी बिगड़ गयी है। डॉक्टरी जाँच में उनकी किडनी के फेल होने का खतरा बताया जा रहा है। उन्हें पीलिया हो गया है। दूसरे तमाम अनशनकारियों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। लगभग तमाम अनशनकारियों को धरना स्थल पर ही स्लाइन चढ़ाया जा रहा है। इसके बावजूद लोग डटे हैं।

यह लड़ाई उनके लिये जीवन मरण का प्रश्न बन चुकी है। दुःखद यह है कि इस जमीनी और रचनात्मक आंदोलन पर किसी का समुचित ध्यान नहीं जा रहा। सरकार तो चाहती ही है कि इन्हें इग्नोर किया जाये, किसी तरह बहला फुसला कर भगा दिया जाये। विपक्षी नेताओं ने भी इस जमीनी आंदोलन को इग्नोर किया है। मुख्य विपक्षी दल बीजेपी ने भी उनके सवालों को लेकर राज्य सरकार पर दबाव डालने की ईमानदार कोशिश नहीं की।

उस इलाके MP महबूब अली कैसर ने जरूर पुल के इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के पास पहुंचाने की कोशिश की है। मगर उसका कोई बेहतर नतीजा नहीं निकला। कुछ नेताओं ने इस आंदोलन के मंच को तीर्थयात्रा की तरह इस्तेमाल किया मगर आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने की लड़ाई से परहेज करते रहे।

अभी वहां के लोगों के लिये शहर आने का मतलब है दो तीन धाराओं को पार कर मीलों पैदल चलना। बच्चों के लिये स्कूल जाने और रोगियों के लिये अस्पताल जाने का मतलब है रोज एवरेस्ट की चोटी फतह करना। वहां न सड़कें हैं, न बिजली, न स्कूल, न अस्पताल, न टीवी, न अख़बार, न टूजी, न फोर जी। एक पुल उनकी कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। उन्हें आधुनिक दुनिया से जोड़ सकता है।

मगर शायद राजनीति की आँखों का पानी उतर गया है। वह दुनिया के सबसे अधिक वंचित लोगों की इस छोटी सी मांग को पूरी करने के लिये तैयार नहीं है। संभवतः ऐसी उपेक्षाओं की वजह से इस देश में नक्सलवाद और अलगाववाद फैलता है। काश इस बात को हमारी सरकारें समय से समझ पातीं। फ़िलहाल तो फरकिया की औरतें कोसी पूजन कर इन राजनेताओं को सद्बुद्धि देने की गुहार कोसी मैया से लगा रही है।

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