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पीढ़ियों से पर्यावरण की रक्षा करता आ रहा है बिश्नोई समाज

Google पर यदि आप बिश्नोई समाज के सम्बन्ध में इमेज सर्च करेंगे तो आपको ऐसे कई चित्र देखने को मिलेंगे जहां एक महिला अपने बच्चे के साथ ही हिरन के एक बच्चे को भी अपना दूध पिला रही है। यह एक चित्र काफी है इस समाज की पर्यावरण को लेकर प्रतिबद्धता समझाने के लिये। मुख्य रूप से पश्चिमी राजस्थान से सम्बन्ध रखने वाले इस समुदाय के बारे में कहा जा सकता कि इनके रोज़मर्रा के जीवनयापन करने के तरीकों में ही प्रकृति के प्रति एक सम्मान और उसके संरक्षण के विचारों का गहरा प्रभाव है।

इस समाज द्वारा पर्यावरण के लिये किये गये आंदोलनों का एक पूरा समृद्ध इतिहास रहा है। 19वीं शताब्दी में पर्यावरण के संरक्षण के लिये चलाया गया चिपको आंदोलन हो या 17 वीं शताब्दी का खेजड़ली आन्दोलन हो जहां बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने खेजड़ी के वृक्षों को काटे जाने के विरोध में अपने प्राणों की आहूति दी, इन आन्दोलनों में इस समाज ने हमेशा आगे बढ़ कर अपना योगदान दिया है।

खेजड़ली आन्दोलन की बात करें तो अमृता देवी के नेतृत्व में इस आन्दोलन की शुरुआत हुई जब यहां के राजा ने महल के निर्माण के लिये पेड़ों को काटने का आदेश दिया और जब वो लोग गांवों में पहुंचे तो वहां के ग्रामीणों ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। इसके कारण कई लोगों को इसमें में अपनी जान गंवानी पड़ी। यह घटना आज भी हमारे देश में हो रहे पर्यावरण के क्षेत्र में हो रहे आन्दोलनों के लिये एक आदर्श है।

यदि हम बात करें कि इस समुदाय में पर्यावरण को लेकर यह चेतना तथा उसके संरक्षण की प्रेरणा कहां से आती हैं तो हमें इसे समझने के लिये इस सम्प्रदाय के उद्गम के बारे में जानना होगा। गुरु जभेश्वर जो कि जम्भो महाराज के नाम से जाने जाते हैं, को बिश्नोई पंथ का प्रवर्तक माना जाता हैं। बिश्नोई शब्द दो शब्दों बीस और नौ से मिलकर बना है और इसका मतलब है कि इस समुदाय के पंथ-प्रवर्तक द्वारा जीवन जीने के उन्तीस नियम सुझाये गये हैं।

इन उनतीस नियमों में आठ नियम प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन से जुड़े हुए हैं। जिसमें मासांहार ना करना, बैल को बधिया ना करना, पेड़ों को नहीं काटने जैसे नियम शामिल हैं। इस समाज द्वारा इन नियमों का आज भी ईमानदारी से पालन किया जाता है। जंगली जानवरों में इस समुदाय के प्रति एक ख़ास लगाव देखा जाता है।

यदि हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो पर्यावरण के प्रति हमारी जो ज़िम्मेदारी आज होनी चाहिये उसे लेकर गंभीरता और चेतना का खासा अभाव हैं। बिश्नोई समाज से समबन्ध रखने वाले महावीर जी से बात करने पर वो बताते हैं, “जिस तरह की प्रतिबद्धता इस समाज की पिछली पीढ़ियों द्वारा प्रकृति के प्रति देखने को मिलती है, उस तरह की प्रेरणा और चेतना आज के युवा में नहीं दिखती। इसका कारण वो विकास के मॉडल को मानते हैं जहां युवा शहरों की तरफ जा रहा है और इस पूरी व्यवस्था में उनका प्रकृति के साथ किसी तरह का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रह गया है, जिसकी वजह से लगातार पर्यावरण से उनकी दूरी बढ़ती जा रही है।”

पर्यावरण का मुद्दा पूरे विश्व में एक चिंता का विषय बन गया है और इस पर प्रमुखता से सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा चिंतन किया जा रहा है। ऐसे समय में बिश्नोई समाज इस बात का एक बेहतर उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत करता है कि किस तरह से अपने जीवन यापन के तरीकों में बदलाव लाकर इस समस्या का सामना किया जा सकता है। जब भी पर्यावरण असंतुलन और उसमें हो रहे बदलाव के बारे में बात होती है, हम वो ज़िम्मेदारी सरकार पर डालकर अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करते दिखते हैं। जबकि उसके सुधार के प्रयास हम सभी को सामूहिक तौर पर करने होंगे और इस सामूहिकता का सबसे बेहतर उदाहरण बिश्नोई समाज हमारे सामने प्रस्तुत करता है। पर्यावरण की चुनौतियों का सामना हम तभी कर सकते हैं जब हम प्रकृति से अपने संबंधों को फिर से परिभाषित करें और उसकी विवेचना करें।

फोटो आभार: Bishnoi SamacharKunwar Ijaz Akhtar Kanjoo और Bishnoi culture

 

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