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“दो साल पहले मुझे एहसास हुआ अम्मी भी कुछ कर सकती हैं”

किसका है ये शहर? इस सवाल के सही जवाब के लिए हमें पैसे, रुतबे या ज़मीन जायदाद से ऊपर उठकर इस शहर में एक घर को तलाश करना होगा जिससे हम खुद को जोड़कर देख सकें। दिल्ली के ये कुछ युवा हैं जो अपनी कहानियां इस कॉलम के ज़रिये हम सभी से साझा कर रहे हैं। दिल्ली एक ऐसा शहर जो संकरी गलियों से, चाय के ठेलों से और न जाने कितनी जानी अनजानी जगहों से गुज़रते हुए हमें देखता है, महसूस करता है और हमें सुनता है। इस कॉलम के लेखक, इन्हीं जानी-अनजानी जगहों से अंकुर सोसाइटी फॉर अॉल्टरनेटिव्स इन एजुकेशन के प्रयास से हम तक पहुँचते हैं और लिखते हैं अपने शहर ‘दिल्ली’ की बात।

आशिया:

(आशिया पिछले दो सालों से युवती समूह से जुड़ी हैं। दसवीं कक्षा में पढ़ती हैं। अपने घर, अपने अनुभव को लिखना पसंद करती हैं।)

अम्मी हर पल इस उलझन में रहती है कि ‘पैसे कैसे जोड़ूँ?’ जब भी वह अकेली बैठी होती है तो अपने आप से बड़बड़ाती रहती है और जब हमसे बातें करती है तो टॉपिक चाहे कुछ भी हो, किसी न किसी तरीके से उसे पैसे से जोड़ देती है। अलग–अलग तरीके से यही कहती है कि ‘पैसे कैसे जोड़े जाएं?’ कभी कहती है, “पैसे जोड़ने हैं क्योंकि बच्चों का निकाह करवाना है।” तो कभी कहती कि, “पता नहीं लोग कैसे पैसे जोड़ लेते हैं?” अम्मी घर में बैठी–बैठी यही सब सोचती रहती और अपने आप में बड़बड़ाती रहती।

हमारी बस्ती दिन–ब–दिन बदल रही थी। लोग अब कल के बारे में सोचने लगे थे। कल यहां से जाना हुआ तो क्या करेंगे? यह बस्ती टूट गई तो क्या करेंगे? बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी? पता नहीं यह सब अचानक कैसे होने लगा था। जबकि हमारी बस्ती में तो आज ही कमाया और आज ही गंवाया जाता था। अब्बू भी हमारे बहुत ख़र्चीले थे। रोज़ रात में जब वह घर लौटते तो पूरी कमाई में से कुछ ही पैसा उनके हाथ में रहता था और दूसरे हाथ में हमारे लिए कुछ न कुछ खाने की चीज़ होती थी। कभी बिरयानी, कभी कबाब, कभी क़ोरमा। अम्मी की अक्सर अब्बू से  इसी बात पर कहा-सुनी होती थी। अब्बा भी तैश में आकर कह दिया करते थे कि “हम खाने के लिए ही तो कमाते हैं। खूब खाओ। कल की कल देखी जाएगी।”

अम्मी उनकी इस बात पर चुप हो जाती और हम सभी गरम–गरम खाने के मज़े लेते। रोज़ रात एक से तीन बजे तक हमारे घर में बस बातें होती और खाना चलता। सुबह बीतते–बीतते हम सभी घर से बाहर अपने-अपने रोज़ाना के काम पर लौट जाते। घर में रह जाती थी सिर्फ़ अम्मी और उनका पड़ोस। अम्मी पड़ोस में क्या बातें करती है या क्या बातें होती हैं इसका पता हमें आसानी से चल जाता था। ऐसा कोई दिन नहीं था जब अम्मी उन बातों को हमें न बताए।

एक दिन घर में कोई नहीं था। अम्मी मेरे पास में आई और बोली, “तू बता कि पैसे कैसे जोड़े जायें? ऐसा क्या किया जाये कि जिससे पैसा जुड़ जाये?” मैं समझ चुकी थी कि आज दिन में पड़ोस में क्या बातें हुई होंगी। अम्मी ने एक–एक कर सभी की बातें बतानी शुरू की।

वह बोली, “तू जानती है बस्ती के बाहर का हिस्सा सरकार ने तोड़ दिया है?”

मैंने कहा, “हां अम्मी, मैंने देखा है। यह किसी से छुपा नहीं है।”

अम्मी ने डरते हुए कहा, “तू मौसमी बाज़ी को जानती है?”

मैंने कहा, “क्या हुआ उन्हें ?”

अम्मी ने अपनी आवाज़ धीमी करते हुए बोली, “उनका भी तो घर था वहां। वह भी टूट गया। मालूम है, घर टूटने के बाद वह कहां पर रह रही है तुर्कमान गेट पर जो चबूतरा है न, वहीं पर। अपनी बेटी यूसरा को मामू के यहां भेज दिया है। वह और उनके शौहर वहीं पर रह रहे हैं। आज मुझे शकीला ने बताया। वह बोल रही थी कि हम भी ऐसे ही बिना बताए यहां से तोड़ दिये गए तो कहां जाएंगे? मुझे तो बहुत डर लग रहा है।”

उनकी यह बात सुनकर मैं भी डर गई थी। मेरी भी समझ में नहीं आ रहा था कि कल क्या होगा?

अम्मी ने कहा, “बच्चे हमें पैसा जोड़ना चाहिए। तुझे पता है शकीला ने अपने बैंक में सात हज़ार रुपये जमा कर लिए हैं और रिहाना बाजी ने भी तीन हज़ार। वह बता रही थी कि उनके मियां जितने पैसे देते हैं, उनमें से वह कुछ बचा लेती है और मियां की नज़र से बचा कर घर में कहीं न कहीं रख देती है। जब थोड़े से पैसे हो जाते हैं तो उन्हें बैंक में जमा कर आती है। मैं समझ नहीं पा रही हूं कि ये लोग यह सब कैसे कर लेती हैं। तेरे अब्बू तो मुझे रोज दो सौ रुपए देते हैं, अब उनमें से क्या बचाऊं? मुझे तो आज तक यह भी नहीं मालूम है कि तेरे अब्बू एक दिन में कितना कमाते हैं।”

अम्मी बोले जा रही थी और मैं एकटक उन्हें देखे और सुने जा रही थी। अम्मी का चेहरा आज बहुत मायूस दिख रहा था। वह घर में बस कुछ देखे जा रही थी। फिर अचानक से उठी और दरवाजें के पीछे लटकी अपनी वही पुरानी थैली निकाली जिसमें घर के सारे कागज़ रखती है। अम्मी की तरह यह थैली भी अब झुर्रीदार हो गई थी। थैली लिए वह मेरे सामने बैठ गई और उनमें से कुछ निकालने लगी। वह क्या तलाश रही है शायद उन्हें ख़ुद ही नहीं पता था। उन्होंने अपना पुराना पर्स निकाला। उसकी चैन खोली और अंदर देखकर बोली, “कुछ तो पड़ा होगा।” पर्स खुला तो उसमें पचास रुपए निकले।

वह बोली, “बता, पूरे दिन के ख़र्च के बाद यह पचास का नोट दिख रहा है। शाम को गोश्त भी लाना है। इसमें तो वह भी नहीं आएगा।” अम्मी गुस्सा कर बैठ गई। फिर मुझसे बोली, “तू ही बता दे, ये पैसे कैसे जोड़ूँ?”

अम्मी की पूरी बात सुनने के बाद और उनकी हड़बड़ाहट देखने के बाद मैं अम्मी से क्या कहती, समझ ही नहीं आ रहा था। फिर भी मैं बोली, “अम्मी, आप घर का काम करके खाली हो जाती हो तो उस खाली वक़्त में आप भी कोई काम कर लें।”

अम्मी ने कहा, “मैं क्या कर सकती हूं?”

मैंने कहा, “जैसे मोहल्ले की बाकी औरतें करती हैं, आप भी करें।”

अम्मी ने कहा, “पर क्या?”

जब अम्मी ने ऐसा कहा तो मैं भूल ही गई थी कि वो हमारे घर की एक ऐसी औरत है जो घर से या बस्ती से बेहद कम ही बाहर गई है। इन्हें तो यह तक मालूम नहीं होता है कि बगल वाली बस्ती में क्या चल रहा है?

मैंने कहा, “अम्मी, आजकल मंडी में सब्जी सस्ती चल रही है क्या?”

उन्हें किसी चीज़ के बारे में कुछ मालूमात हो या न हो लेकिन सब्ज़ी-तरकारी के बारे में बहुत जानकारी है।

वह तुरंत ही बोली, “हाँ, पर तुझे कैसे मालूम?”

मैंने कहा, “न्यूज़ में देखा था और मोहल्ले में भी तो अचानक से सब्ज़ी की दुकानें ज्यादा लगने लगी है। मैंने देखा है कि मस्जिद वाली गली में सब्ज़ी बहुत बिक रही है।”

अम्मी ने कहा, “तो?”

मैंने कहा, “तुम भी सब्जी का ठीया लगा लो।”

यह सुनते ही अम्मी एकदम से बोली, “तेरे अब्बू जान से मार देंगे।”

मैंने भी थोड़ा गुस्साते हुए कहा, “तो आप एक काम कीजिए अब्बू से बात कीजिए कि पैसा कैसे जोड़ा जाता है या फिर आप पैसा जोड़ने के बारे में इतना परेशान क्यों होती हैं, अब्बू जोड़ लेंगे।”

अम्मी ने कहा, “पर उनकी कमाई से कहां पूरा पड़ता है।”

यह कहने के बाद अम्मी कुछ नहीं बोली। बस, सोचती रही और मेरी तरफ देखने लगी। फिर उठी और घर के बाकी काम में जुट गई। मैं और वह दोनों ही समझ चुके थे कि अब्बू मानेंगे नहीं, पैसा देंगे नहीं तो यह जो हम घबरा कर सोच रहे हैं वह सिर्फ़ हमारे तक ही रहेगा और इसी कमरे में दम तोड़ देगा।

दूसरे दिन जब मैं स्कूल से घर वापस आई तो देखा कि कमरे के एक कोने में एक बोरी पड़ी है। मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें क्या है? अम्मी के चेहरे पर थोड़ी शिकन और थोड़ी मुस्कुराहट थी। अम्मी ने मुझे देखा और जल्दी से गैस की तरफ बढ़ गयी। बड़ी वाली पतीली में कुछ पक रहा था। अम्मी ने उसे उतारा। पतीली से कुछ निकाल कर टोकरी में डालने लगीं। मैंने देखा तो उसमें आलू थे। टोकरी पूरी भर चुकी थी। एक थाली ली और उसमें पुदीने की चटनी से भरी कटोरी रखी। एक तरफ काला नमक रखा और कमरे के बाहर, दरवाज़े पर बैठ गई और मुझसे बोली, “अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। अब्बू को मत बताइयो।”

मैं उन्हें देखकर मुस्कुराने लगी। अम्मी को देखकर मुझे आज पहली बार लग रहा था कि वो भी अपने से कुछ कर सकती हैं। आज पूरे दो साल हो गए है अम्मी को आलू-चाट बेचते हुए। पैसा तो ज़्यादा नहीं जुड़ पाया है लेकिन अम्मी खुश दिखती हैं।

फोटो आभार: गेटी इमेजेस और अंकुर सोसाइटी फॉर अॉल्टरनेटिव्स इन एजुकेशन.

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