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सोनिया जी पीएम को चिट्ठी लिख देने से महिला आरक्षण पर आपकी जवाबदेही खत्म नहीं होती

एक मशहूर शायर का शेर है- “वली औलियाओं के कहे पे नहीं, उनके किये पे जाया करो”। यूं तो ये शेर वली, औलियाओं पर फरमाया गया था पर आज ये शेर सियासतदानों पर ज़्यादा फिट बैठता है। चुनावों में “सबका साथ, सबका विकास” ये नारा खूब चलता है। साथ ही “नारी के सम्मान में, भाजपा मैदान में” ये नारा भी इन दिनों खूब सूनने को मिलता है।

बहरहाल, “नारी का सम्मान” का क्या मतलब है अलग अलग लोगों/पार्टियों की अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं। लेकिन वो कैसा सम्मान जहां नारी को उसका प्रतिनिधित्व ही प्राप्त नहीं है। सारी पार्टियां महिला आरक्षण की बात तो करती हैं पर ये बात सिर्फ सियासी मंचो पर ही होती है। लोकसभा में महिला आरक्षण बिल राज्यसभा में भारी शोर-शराबे, विरोध और निलंबन के बीच आनन-फानन में 9 मार्च 2010 को पारित किया गया था। बिल लोकसभा से पारित नहीं हो पाया था। 2014 की गर्मियों में उस लोकसभा का कार्यकाल खत्म होते ही बिल भी खत्म हो गया। दरअसल संविधान के अनुच्छेद 107 (5) के तहत विचाराधीन रहने वाले बिल लोकसभा भंग होते ही खत्म हो जाते हैं।

एक बार फिर इस बिल की चर्चा हो रही है। दरअसल, सोनिया गांधी ने गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को महिला आरक्षण बिल को लेकर एक चिट्ठी लिखी है। सोनिया गांधी ने मोदी को चिट्ठी लिखकर कहा है कि मौजूदा समय में बीजेपी की सरकार बहुमत में है। ऐसे में वह यह बिल पास करा सकती है। उन्होंने महिला आरक्षण बिल 2019 के आम चुनावों से पहले पास कराने की मांग की है। यूपीए ने 9 मार्च 2010 को ये बिल राज्यसभा से पास कराया था, लेकिन लोकसभा में अलग-अलग वजहों से नहीं पास हो पाया है।

बता दें कि महिला आरक्षण का कॅान्सेप्ट राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही आया था। राजीव गांधी ने सत्ता का विकेंद्रीकरण करते हुए पंचायतों और लोकल बॉडीज़ को अधिकार देने और उसमें महिलाओं के लिए जगह सुरक्षित करने की बात की थी। पंचायतों और लोकल बॉडीज़ में महिलाओं को आरक्षण 73वें और 74वें संविधान संशोधन के ज़रिए 1993 में शुरू किया गया। हालांकि राजीव सरकार के घोटाले में फंस जाने के कारण संसद और विधान मंडलों में आरक्षण के लिए बिल पेश नहीं हो पाया।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की नेता गीता मुखर्जी की अगुवाई वाली समिति ने नवंबर 1996 में पेश अपनी रिपोर्ट में सात संशोधन सुझाए थे- (1) रिज़र्वेशन की अवधि 15 साल, (2) ऐंग्लो-इंडियन के लिए सब-रिज़र्वेशन, (3) तीन लोकसभा सीटों से कम वाले राज्यों में भी आरक्षण, (4) दिल्ली विधानसभा में भी आरक्षण, (5) ‘एक तिहाई से कम नहीं’ की जगह ‘करीब एक तिहाई’ व्यवस्था (6) ओबीसी महिलाओं के लिए सब-रिज़र्वेशन और (7) राज्यसभा और राज्य विधान परिषदों में भी आरक्षण।

एनडीए सरकार ने 2002 में एक बार और 2003 में दो बार बिल पेश किया, लेकिन बहुमत होने के बावजूद बिल पास नहीं करवाया जा सका। कहते हैं अटल सरकार ने बिल पास करवाने की कोशिश ही नहीं की। मनमोहन सिंह सरकार ने अपने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में महिला आरक्षण बिल को शामिल किया, लेकिन बिल पास नहीं हो सका।

बीस सालों कई बार बिल पेश हुआ पर पुरूष प्रधान राजनीति ने इसे कभी पारित नहीं होने दिया गया। अफसोसजनक ये है कि लगभग सारे दलों के मेनिफेस्टो में महिलाओं को आरक्षण की बात कही गयी है। मेनिफेस्टो की बात मेनिफेस्टो में ही रहती हैं। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रदेश है। 403 सीटों वाले इस प्रदेश से सिर्फ 42 महिलाएं चुनकर विधानसभा आयी हैं। महिला आरक्षण तो एक मुद्दा है ही। पर सियासी पार्टियाँ भी अपने मेनिफेस्टो को मुताबिक महिलाओं को टिकट भी नहीं देतीं।

चारों प्रमुख दलों यानी भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस ने 98 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया था जो 25 प्रतिशत से कम हैं। भाजपा ने कुल 46 महिलाओं को टिकट दिया। महिलाओं को टिकट देने के मामले में बसपा का हाल सबसे बुरा रहा, जबकि वहां पार्टी की कमान खुद एक महिला के हाथ में ही है। 400 उम्मीदवारों में बसपा ने सिर्फ 21 महिलाओं को टिकट दिया।

कॉंग्रेस ने सिर्फ पांच महिलाओं को टिकट दिया। समाजवादी पार्टी ने सिर्फ 29 महिलाओं को टिकट दिया। इस बार सपा 299 सीटों पर ही चुनाव लड़ी थी। आंकड़ों में देखे तो उत्तर प्रदेश में इस समय 14.12 करोड़ वोटर हैं जिनमे 4.68 करोड़ पुरुष और 6.44 करोड़ महिला हैं। मतलब लगभग 45 फीसदी महिलाएं वोटर हैं लेकिन पार्टियाँ दस फीसदी टिकट भी महिलाओं को नहीं देती।

पार्टियां भले महिला आरक्षण का समर्थन करें पर असल में वो महिलाओं को आरक्षण देना ही नहीं चाहतीं। सिर्फ कानून बना देने से महिलाएं विधानसभा, संसद में पहुँच तो जायेंगी पर उनका काम पति/पिता ही करेंगा जिसको हम पंचायत चुनावों में देख रहे हैं। बस कहने को प्रतिनिधित्व होगा। पार्टी की जिम्मेदारी होती है लीडर तैयार करना पर पार्टियां महिला नेता नहीं तैयार कर पा रही हैं। इससे उनकी इच्छाशक्ति का पता चलता है। महिलाओं को राजनीति में आरक्षण तो मिलना ही चाहिए साथ ही पार्टियों को चाहिए कि वो महिला लीडर तैयार करें अन्यथा आरक्षण सिर्फ आरक्षण भर रह जायेगा।

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