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ABVP से राष्ट्रवाद की उम्मीद मूर्खता है

मैं कई दिनों से चुप था। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में हुई घटना को महज़ एक क्रिया-प्रतिक्रिया समझ रहा था। मुझे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के मित्रों पर पूरा भरोसा था कि वह जेएनयू वाली गलती दोबारा नहीं दोहराएंगे। लेकिन छद्म राष्ट्रवाद के चंद ठेकेदारों ने हमें फिर से शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं आज विवश हो चुका हूं, कहते हैं ना कि जब सच सुना ना जाये तो उसे पन्नों पर लिख देना चाहिए। इसलिए आज मैं सच लिखने जा रहा हूं।

जब कोई भी छात्र किसी भी राजनीतिक संगठन से जुड़ता है तो वह उसकी सोच, विचारधारा, कार्यशैली से प्रभावित होकर जुड़ता है। किसी भी संगठन से जुड़ने की इस प्रक्रिया में वह अपने कई व्यक्तिगत सपनों, महत्वकांक्षाओं को ताक पर रख देता है। मैं भी एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण, छात्रों के हित एवं अधिकार की लड़ाई लड़ने हेतु अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ जुड़ा था। लगभग 18 महीनों का साथ था हमारा। मुझे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने का ककहरा भी इसी संगठन ने सिखाया था।

मैंने संगठन के एक समर्पित कार्यकर्त्ता की हैसियत से काम करना शुरू किया। संगठन द्वारा आयोजित होने वाले कई धरना प्रदर्शनों एवं अन्य कार्यक्रमों में भी शरीक होने लगा। मैं ABVP के राष्ट्रवाद एवं सर्व धर्म समभाव जैसे विचारों से काफी हद तक प्रभावित था। लेकिन धीरे-2 इन सभी विचारों का खोखलापन नजर आने लगा। जब भी किसी प्रोटेस्ट में जाता तो एक अजीब सी बेचैनी होने लगती थी। संगठन की विचारधारा, व्यक्ति विशेष के इर्द गिर्द नाचती नज़र आने लगी थी।

अगल-बगल वही लोग दिखते थे जिनके साथ वैचारिक लड़ाई रही थी, जो हमेशा विश्वविद्यालय परिसर में गुंडागर्दी करते दिखते थे। विचारों का खोखलापन, कथनी एवं करनी में फर्क अब सामने आने लगा था। सदस्यों एवं कार्यकर्ताओं से संगठन बनता है, संगठन से कार्यकर्त्ता और सदस्य नहीं और इन्हीं सदस्यों में से एक बड़ा तबका एक संप्रदाय के प्रति ढेर सारी नफरत लिए बैठा रहता था, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना करता रहता था।

छात्र संघ के चुनाव के समय संगठन के प्रतिष्ठा को ताक पर चढ़ाकर व्यक्ति विशेष की बातें करने लगा था। संगठन भी ऐसे लोगों के सामने आत्म-समर्पण कर चुका है। छात्र संघ चुनाव में किसी भी आम जुझारू कार्यकर्त्ता की हैसियत नहीं है कि वह ABVP के टिकट पर चुनाव लड़ सके। यहां पर आपको राष्ट्रवादी से अधिक पूंजीवादी और जातिवादी होना पड़ेगा। इन सभी अनुभवों से मुझे गहरा आघात पहुंचा था। धीरे-2 मैंने कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया और संगठन से दूरी बना ली।

मई 2014 से लेकर फरवरी 2017 तक के समयकाल को उठाकर देखा जाए तो एक सिलसिलेवार तरीके से शिक्षण संस्थानों को एक विशेष राजनीतिक समूहों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय सहित कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के छात्रों ने एक नए संघर्ष को जन्म दिया है।

विचारधारा के आड़ में सत्ता और बाहुबल द्वारा एक ऐसे समाज की रचना की कोशिश की जा रही है जहां समूचे समाज और राष्ट्र का हित सिर्फ और सिर्फ उस विचारधारा विशेष के इर्द गिर्द नाचे। जरा सोचिए कि अगर हम सभी एक जैसा सोचने लगे तो राष्ट्र का क्या होगा? राष्ट्रवाद का क्या होगा? अभिव्यक्ति की आजादी पर भय के बादल मंडराने लगे है। वैचारिक मतभेद से शुरू हुयी लड़ाई ने आज राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई का रूप धारण कर लिया है।

कॉलेज के परिसर में लड़कियों को विचारधारा विशेष का भय दिखाकर तंग किया जाता है, आम छात्र जो भी इनके विचारों से असहमत होते हैं उनके साथ हिंसा की जाती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे छात्र संगठनों ने तो पहले से ही आम छात्रों की चुनाव लड़ने की आज़ादी पर ताला लगा दिया था और अब सत्ता का दुरुपयोग करके बोलने की आज़ादी पर भी लगातार प्रहार कर रहे हैं।

ABVP में जातिवाद, बाहुलबलवाद और पूंजीवाद जड़ों तक संगठन में समा चुका है। प्रति वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के होने वाले चुनाव इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। अब भला जातिवाद, बाहुबलवाद और पूंजीवाद की छत्रछाया में सच्चे राष्ट्रवाद की कल्पना कैसे की जा सकती है?

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