ईरान में फिल्मों का निर्माण एक बेहद साहसी काम है, ईरानी फ़िल्मकारों को आए दिन मुसीबतों का इम्तिहान गुज़रना पड़ता है। प्रोग्रेसिव मोहम्मद खतामी के समयकाल में फिल्ममेकर को थोड़ी राहत रही, लेकिन ज़फर पनाही एवम माज़िद माजिदी जैसे फिल्मकार अपने सपनों को ज़िंदा रखने के लिए बड़े इम्तिहान से गुज़रे हैं। फिल्मों के जुनून में वतन से दरबदर किए गए, सरकार एवं सेंसर द्वारा लगाए फतवों व पाबंदियों का सामना करते हुए इन्हें फिल्में बनानी थी।
इस अकेलेपन का बड़ी हिम्मत से सामना करते हुए फिल्मकारों ने कल के मुस्तकबिल- बच्चों पर फिल्में बनाने का रास्ता चुना। इस सिलसिले में ज़फर पनाही की ‘सफेद गुब्बारा’ (व्हाइट बैलून), ‘आईना’ (द मिरर) और माज़िद माजीदी की ‘स्वर्ग के बच्चे’ (चिल्ड्रेन ऑफ हेवन) और अब्बास कीरोस्तमी की ‘दोस्त का घर’ की याद आती है।
पनाही की ‘व्हाइट बैलून’ की खासियत रोज़मर्रा की नीरस सी गतिविधियों में मन को छू जाने वाली कहानी है। फिल्म ने बताया कि वयस्कों के नज़रिए में रोज़मर्रा की बातें बहुत साधारण मालूम पड़ती हैं, लेकिन बच्चों की नज़र में इन उबाऊ बातों में भी बहुत कुछ रूचिकर होता है। बच्चों की मासूम आंखे रोज़ाना की चीजों में ज़बरदस्त नाटकीयता देख लेती हैं। नीरसता में उत्साह खोज लेने का शौक बच्चों में होता है। इस फिल्म की कहानी, ईरानी नए साल ‘नवरोज़’ के एक रोज़ पहले का किस्सा कह रही है। किसी भी ख़ास दिन के लिए उत्साह व जुस्तुजु उसके बस एकदम पहले सबसे ज़्यादा शबाब पे होती है।
कहानी सात साला बच्ची रज़िया के इर्द-गिर्द घूमती है। त्योहार की खुशी में रज़िया ने अम्मी से रंगीन सुनहरी मछली खरीदने की ज़िद कर रखी है। ईरानी नवरोज़ बसंत ऋतु के पहले दिन पड़ता है। ईरान में इन दिनों छुट्टियों का सीज़न हुआ करता है। सिर्फ़ नवरोज़ सीजन की छुट्टियां तक़रीबन दो हफ्ते तक ज़ारी रहती है। इसकी तुलना यूरोपीय देशों में क्रिसमस की जानी चाहिए, क्योंकि यह भी तोहफ़े देने के ख़ास दिन लेकर आता है।
ईरानी तहज़ीब में नवरोज़ को कुदरत के पुनर्जन्म का उत्सव भी माना जाता है। नवरोज़ का किस्सागो पहलू ‘हाजी फिरोज’ का रूचिकर पौराणिक किरदार है। इन किस्सों में हाजी फिरोज का चटकदार नायक रंग-बिरंगे अंदाज़ का बताया गया है। काले रंग में मुखड़ा रंगा हुआ, रंगबिरंगे कपड़ों में रहता था। नवरोज़ सीजन आते ही लोग हाजी फिरोज की शक्ल में नज़र आया करते हैं।
इस रंग-बिरंगे किरदार को फ़िर से जीने के अंदाज़ में लोग बाजे-गाजे के साथ सड़कों पर निकल आते हैं। नाच-गाना करते हुए खूब आनंद से इन दिनों को जीते हैं। रिवायत के मुताबिक ‘नवरोज़’ की अहमियत ख़ास तरह के सात पकवानों से जुड़ी है। इन सात पकवानों को एक बेहद ‘ख़ास टेबल’ पर गोल दायरे में सजा कर रखा जाता है। इस ख़ास व पाक टेबल पर एक प्याले अथवा बाउल में सुनहरी दिलकश मछली रखने की रस्म है।
ईरानी रिवायत में इन सात पकवानों के नाम फारसी जुबान के ‘शीन’ लफ्ज़ से शुरू होने चाहिए। इन मान्यताओ में शीन लफ्ज़ आने वाले नए साल में खुशनसीबी का सूचक माना गया है। ईरानी लोगों की जिंदगी में फारसी का शीन लफ्ज़ नयी उमंगों व जिंदगी का दूसरा नाम है। नवरोज़ में खासकर इसकी अहमियत बहुत ज़्यादा है। परम्परागत त्योहार व उमंगों की भावना में सात साला रज़िया अपने घरवालों से सुनहरी मछली मंगवाने की ज़िद करती है। वो उस ख़ास टेबल पर दिलकश सुनहरी मछली देखने का मासूम ख्वाब पाले हुए है।
इसी दरम्यान दर्शकों को बाहरी रेडियो के ज़रिए यह बताया जाता है कि नवरोज़ का खुशनुमा त्योहार महज़ सत्तर मिनट के पार दूसरे छोर पर हमसे मिलेगा। कहानी के आखिर में भी वही रेडियो नए साल के शुरू होने की ख़बर देता है। पनाही ने इस बाहरी रेडियो के इस्तेमाल से घटनाओं में मौजूदा समयकाल का अनोखा अनुभव गढ़ा है। सरसरी निगाह में कथा बहुत छोटी नज़र आएगी, लेकिन बारीकी से देखें तो समझ आएगा कि हम गलत सोच रहे थे।
सुनहरी मछली की ज़िद में रज़िया अम्मी के पल्लू में लिपटी है, नवरोज़ के लिए गोलमटोल सुनहरी मछली खरीदने के लिए उनके सिर पर खड़ी हुई है। इस सीन में रज़िया के घर का खाका कायम होता है, जिसमें यह ब्यौरा है कि घर नज़दीकी बाज़ार से सटे अहाते में पड़ता है। रज़िया अपने मां-बाप की इकलौती औलाद नहीं है और घर में उसका बड़ा भाई ग्यारह साला अली भी है। पिता बहुत ज़्यादा रौब जमाने वाले शख्स हैं, लेकिन पूरे फिल्म में इनकी सिर्फ़ आवाज़ ही सुनाई देती है।
छुट्टियों की तैयारियों में अम्मी इतनी मशगूल हैं कि घर में नई सुनहरी मछली लाने के बारे में सोच भी नहीं रही हैं। घर के तालाब में सुनहरी मछलियां रहते हुए फिर से नई मछली खरीदना बेकार है उसकी नज़रों में। लेकिन छोटी रज़िया के एतबार से वही काम ज़रूरी है। रज़िया उसी गोलमटोल सुनहरी मछली के लिए ज़िद पर अड़ी है और रिरियाने लगती है, जो उसने बाज़ार में कहीं देखी थी। बहुत ज़िद व शिकायत के बाद आखिर रज़िया को खुशी का वो पल मिला। उसके हांथ में 500 ईरानी तोमान (ईरानी मुद्रा) का नोट था। अब इसमें से वो अलबेली सुनहरी मछली को बाज़ार से ला सकती है।
रुपए लेकर रज़िया बाज़ार में इधर उधर फिर रही है, इस दरम्यान उसकी नज़र सपेरे के खेल पर पड़ती है। इस मनपसंद खेल-तमाशे को देखने से खुद को रोक नही पाती है। दो सपेरों ने अपने खेल से भीड़ को जमा कर लिया है और रज़िया भी उस तरफ़ हो लेती है। तमाशबीनों का फायदा उठाकर सपेरा बच्ची के हांथ से 500 तोमान लपक लेता है, कुछ इस तरह मानो वो खेल का हिस्सा हो।
रज़िया हांथ से रूपया छिन जाने पर खूब रोती है और हंगामा करती है। थक-हार के तमाशेवाले को उसका रूपया वापस देना पड़ता है। बच्चों की सुरक्षा के नज़रिए से यह सीन मायने रखता है। घर की चारदीवारी के बाहर बच्चे कितना पराया एवं ख़तरे के दायरे में खुद को महसूस करते होंगे, इसका अंदाज़ा लगता है।
अपना रूपया मिलते ही रज़िया वहां से निकल जाती है। वो अब मछली खरीदने के लिए आगे बढ़ती है और धीरे-धीरे सुनहरी मछली की उस दुकान पर पहुंचती है। लेकिन मुसीबतें उसका पीछा नहीं छोड़ रहीं थी। नयी मुसीबत – उसका नोट ही अभी अभी रास्ते में कहीं गिर गया! इस घड़ी में एक नेकदिल औरत रज़िया की मदद के लिए आती है। खोए हुए रुपए का पता तो चल गया, लेकिन रज़िया का दिल बहल नही रहा था क्योंकि नोट एक बंद दूकान के सामने की नाली में झंझरी से सरक गया था। इत्तेफ़ाक से उस बंद दूकान के बगल में दर्जी की दूकान खुली थी।रज़िया के लिए नेकदिल औरत ने दर्जी से बात कर जुबान मांग ली कि उस मासूम लड़की की मदद ज़रूर करेगा। लेकन इधर-उधर की बहस में इतना मशगूल हो गया कि छोटी सी लड़की से किए अपने वायदे को भूल गया।
अब रज़िया का ग्यारह साला बड़ा भाई अली उसकी हिफाज़त में आगे आता है। वो बहुत देर से रज़िया की तलाश कर रहा था कि सात साल की बच्ची आखिर गयी कहां? आखिर वो उसे सड़क पर मिल ही जाती है। अली दर्जी से मदद मांगता है, लेकिन वो दोनों बच्चों से नवरोज़ ख़त्म होने तक का इंतज़ार करने को कहता है, क्योंकि तब तक बंद दूकान का मालिक वापिस आ जाएगा। इंतज़ार व सब्र बड़े उम्र के लोगों को समझाने के लिए ठीक था, लेकिन रज़िया व अली अभी बहुत छोटे थे क्योंकि बिना रुपए के घर वापस जाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। मां-बाप की सवालिया नज़रों का सामना करना कभी नहीं गंवारा करते। इस बेचैनी में अली भागता-भागता उस दूकानदार का पता-ठिकाना जानने की कोशिश करने लगता है। एक बार फ़िर से रज़िया अकेली हो जाती है। इस बार एक सैनिक उससे बातचीत करने के लिए आगे बढ़ता है और एक बार फ़िर वो दहशत के दायरे में आ जाती है।
अजनबी लोगों से दूर रहने की तालीम बच्चों को शुरू से दी जाती है। इसलिए वो कोई पहल लेने से परहेज कर रही होती है।अभी वो सैनिक कोशिश में कामयाब ही हुआ था कि अली हिफाज़त के लिए वहां पहुंच जाता है। लेकिन नाली के बहाव में अटके हुए रुपए अभी भी नहीं निकाले जा सके थे। अब ये दोनों बच्चे एक अफगानी लड़के की हरकतों पर नज़र रखने लगते हैं। यह अफगानी बच्चा सड़क के पास गुब्बारे बेचा करता है।
गुब्बारों के लिए उसके पास एक खम्बानुमा लकड़ी का स्टैण्ड है जिसे पाने की जुगत में अली व रज़िया लग जाते हैं। उपाय यह है कि इस पर च्युइंग गम चिपका कर अटका हुआ रुपया निकाला जा सकता है। थोड़े देर के लिए अली के दिल में लालच आया कि क्यों उस नाबीना दूकान दार के यहां से चुरा कर ले आए। लेकिन उसका दिमाग पलट जाता है और इस बीच वो अफगानी लड़का भी चिपकाने वाला पदार्थ ले आता है।जल्द ही नाली के बहाव में अटके रुपए को तीनों ने मिलकर आखिर निकाल ही लेते हैं और खोए हुए रुपए को वापस पाने का मकसद पूरा हो जाता है। रुपया फिर से हाथ में आने बाद रज़िया अपने भाई के साथ सुनहरी मछली खरीदने चल पड़ती है। फिल्म के अंतिम शॉट मे अफ़गानी बच्चा बेशकीमत ‘सफेद गुब्बारे’ के साथ दिखता है जो कोई नहीं खरीद सका था। यह सफेद गुब्बारा खुद मे कई मायने समेटे हुए हमारे सामने आता है। बच्चों का बेशकीमत बचपन जिसमें से एक है।
व्हाइट बैलून की जादूगरी बच्चों की छोटी सी अनोखी दुनिया है। एक बेशकीमती दुनिया जिसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए। फिल्मकार ज़फ़र ने बच्चों के नज़रिए को उसी नाटकीय अंदाज़ में रखा, जिस तरह वो बच्चों के लिए हुआ करता है। कैमरा फ़्रेम एवं पॉइंट आॅफ व्यू बच्चों के नज़रिए से कहानी को बुनता-गढ़ता चलता है। ज़फर पनाही ने एक रोज़मर्रा की कहानी को बड़े ही दिलचस्प नज़रिए से पेश कर ख़ास बना दिया। रोज़ाना के दिनों से इंसानियत के बेशकीमत पल उसकी उम्मीदें तलाश लेना पनाही की खासियत है। लेकिन बच्चों की यह छोटी दुनिया उस कदर सिमटी हुई नहीं होती, जितना हम बड़े उसे समझते हैं। बचपन की परतों को व्यक्त करने में ‘व्हाइट बैलून’ बेमिसाल सी मालूम पड़ती है।