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मैथिली सिनेमा में 50 साल बाद भी बस इंटरवल ही नज़र आता है

सिनेमा मनोरंजन का साधन है। संचार जगत की पिछली एक सदी सिनेमा व टेलीविजन जैसे विजु़अल माध्यमों के नाम थी। मिथिलांचल की साहित्यिक व सांस्कृतिक समृद्धि को राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय पहचान देने में आंचलिक सिनेमा का भी योगदान रहा है। मिथिला और मैथिली की अस्मिता निर्माण में स्थानीय फिल्में प्रमुख कारक मानी जानी चाहिए। लेकिन क्वालिटी में पतन की वजह से आज मिथिला की फिल्मों के बारे में बात नहीं की जाती। बहुत कम फिल्में बनना भी एक दूसरी वजह हो सकती है।

पहली फिल्म के मुहुर्त की तारीख को आधार मान कर अगर चला जाए तो मिथिलांचल का सिनेमा भी पचास वर्ष के मुकाम पर खड़ा है। महंत मदनमोहन-उदयभानु एवं केदारनाथ चौधरी द्वारा निर्मित ‘ममता गबाए गीत’ मैथिली भाषा की पहली फिल्म थी। शैलेन्द्र की ‘तीसरी कसम’ भी मैथिली के संदर्भ में खास है। यहां मैथिली संवाद का पहला प्रयोग देखने को मिला था।

यह मैथिली का पहला सिने अवतार था। कहा जाता है कि निर्देशक परमानंद को ‘ममता गबाए गीत’ पर काम करने की प्रेरणा यहीं से मिली थी। प्यारे मोहन सहाय एवं अजरा अभिनीत इस फिल्म से गायक महेन्द्र कपूर भी जुड़े थे। दुख की बात है कि मुहुर्त के बाद रिलीज होने में एक दशक से भी अधिक वक्त बरबाद हो गया। फिर आम लोगों तक आते-आते और वक्त गुज़रा। इसे आम लोगों तक पहुंचाने में सुनील दत्त व राजेन्द्र कुमार का दस्तखत सराहनीय रहा था।

मिथिलांचल सिनेमा का सफर उदासीन राहों पर मर-मर चलता रहा, आज के हालात भी बहुत ठीक नहीं। मुश्किलें खत्म होने के बजाए आज भी बरकरार हैं। पहली फिल्म के बाद का एक दशक गतिविधि विहीन होकर अंधकारमय सा हो गया। सिनेमा क्षेत्र का सफर एक जगह पर आकर थम चुका था। गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने में मिथिलांचल से बालकृष्ण एवं मुरलीधर ने जोरदार कोशिश की। लेकिन मैथिली सिनेमा के आज के हालात को देखकर उस पर इत्मिनान नहीं किया जा सकता।

मिथिला समाज में दहेज व्यवस्था का पुरज़ोर विरोध करने वाली ‘सस्ता जिनगी महग सिंनुर’ इस सिलसिले में खास थी। लेकिन इस फिल्म के बाद मुरलीधर व बालकृष्ण में टकराव हो जाने से यहां का सिनेमा फिर से खस्ताहाल हो गया। मिथिला के सिनेमा जगत में एक बार फिर इंटरवल हुआ। मुरलीधर-बालकृष्ण की फिल्म से मैथिली फिल्मों का दूसरा दौर शुरू हुआ था। तरक्की की राह में बार-बार अंधकार आ जाने से मिथिलांचल के सिनेमा का सफर ठहर सा गया था। कह सकते हैं कि इंटरवल की बारंबारता ने कहानी को आगे बढ़ने से रोक दिया।

मुरलीधर ने वापसी की ज़ोरदार कोशिश की लेकिन नाकामी ने उदास कर दिया। मिथिलांचल सिनेमा के उत्थान के नज़रिए से बीता आधा दशक उल्लेखनीय रहा। इस दौरान वहां फिल्म फेस्टिवल कायम किए गए जो बहुत काम आए। कल तक किसी ने नहीं सोचा होगा कि मैथिली फिल्मों के फेस्टिवल का आयोजन कभी किया जाएगा। फिर बीस से अधिक नए प्रोजेक्ट की घोषणा होना भी सुखद खबर थी। भोजपुरी की तुलना में मैथिली फिल्मों का विस्तार कम है। मैथिली को ज़रिया बनाकर सिनेमा को कायम करने की कोशिश में कामयाबी ज़रूर मिली लेकिन क्या क्वालिटी पर भी सोचा गया? भोजपुरी फिल्मों से मुक़ाबले के फेर में मिथिलांचल की फिल्में राह से तो भटकी ही साथ ही उनकी क्वालिटी पर भी सवाल खड़े हुए।

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