मोदी-शाह की जुगलबंदी के मार्फ़त भाजपा को मिली अभूतपूर्व और अप्रत्याशित जीत के साथ 13 मार्च 2017 से 2019 का उद्घोष किया जा चुका है। प्रधानमंत्री द्वारा एक बार फिर यह बताना कि वह ‘परिश्रम की पराकाष्ठा’ करते रहेंगे और अशोक रोड पर भाजपा मुख्यालय में पैदल प्रवेश करते हुए जनता का अभिवादन करना उनकी नम्रता के साथ-साथ उर्जावान होने का प्रबल सन्देश भी है। हालांकि यह देख कर भी अगर कोई यह कहता है कि उनमे काम के प्रति प्रतिबद्धता की कमी है तो निश्चित तौर पर यह बेमानी होगा। पिछली बार 2014 के विजयी भाषण की तरह ही फिर से मोदी ने राजनीतिक पंडितो को नसीहत दी कि वो वक़्त की महिमा को पुनः नहीं समझ पाए और जनता ने उन्हें सर-आंखों पर बिठाया।
हालांकि कुछ मुख्यधारा के मीडिया घराने इसे नोटेबंदी पर जनमत संग्रह की तरह देखते हैं, जो सही नहीं कहा जा सकता और ना ही वो निष्पक्ष नज़र आते हैं। पर हां यह चुनाव विकास के मुद्दे पर ही जीता गया है। यूपी ने प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा का समर्थन किया है और इन 325 सीटो में वो वर्ग भी शामिल हैं जो भाजपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं हैं। अकल्पनीय यह है कि यादव, दलित और मुसलमानों ने 2014 की तरह फिर भाजपा पर अपना भरोसा जताया है। इनमे खासकर महिलाएं शामिल मानी जानी चाहिए जो ट्रिपल तलाक़ पर संजीदा नज़र आती हैं। शायद इसलिए पी.एम. ने विजयी भाषण में कहा कि, “अब भाजपा के झुकने का वक़्त आ गया है।”
कोई भी चुनाव सिर्फ एक्सप्रेस-वे और गोमती रिवर फ्रंट के नाम पर नहीं जीता जा सकता था और यह सपा भांप चुकी थी। अतः पारिवारिक कलह का असफल नाटक किया गया जिसे जनता ने सिरे से ही नकार दिया। उत्तरप्रदेश का चुनाव हिंदूओ के कैराना पलायन से शुरू होकर विकास और फिरसे अंततः शमशान-कब्रिस्तान तक पंहुचा और भाजपा ने इस मनचाहे ध्रुवीकरण का भरपूर फायदा भी लिया।
हालांकि देश में चुनाव पांच राज्यों में थे, पर सबसे ज्यादा फोकस यूपी पर ही रहा और हो भी क्यों ना…आखिर दिल्ली का रास्ता यहीं से जो जाता है। इसी के साथ उत्तराखंड भी भाजपा ने लोकतांत्रिक तरीके से हथिया लिया, यहां देखने वाली बात यह है कि सीएम के विरोध में उन्हें पूरी तरह से हटा देने की भावना ज़बरदस्त रही और वो दोनों जगहों से चुनाव हारे। जोड़तोड़ से भाजपा मणीपुर और गोवा में भी सरकार बनाने जा रही है जबकि वहां कांग्रेस को ज़्यादा सीटें मिली। यह भी कुशल संगठनात्मक नेतृत्व का एक उदाहरण है जिसकी कांग्रेस में भरपूर कमी नज़र आती है।
वहीं दूसरी और पंजाब में कांग्रेस का प्रदर्शन त्रिकोणीय मुकाबले में अद्वितिय रहा, खासकर तब जब देश मोदी नामक सुनामी झेल रहा है (उमर अब्दुल्ला के शब्दों में)। कांग्रेस 10 वर्ष बाद कैप्टन अमरिंदर के नेतृत्व में वहां सत्तासीन होने जा रही है। इस समस्त घटनाक्रम में विश्लेष्णात्मक घटक यह है कि इस बार पांचो राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों से वोटरो का “मोहभंग” हुआ है। उन्होंने राष्ट्रीय दलों को बहुमत देकर “अपनी सरकार” चुनी है और इन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां शीर्ष से गिरकर नीचे आ गई।
इन चुनावों में अल्पसंख्यक राजनीति करने वालों को भी तगड़ा झटका लगा है, जिससे उनके अस्तिस्त्व की तलाश शुरू हो जाती है। इन चुनावों के बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी की राह आसान होती दिखती है। अब मायावती, नरेश अग्रवाल, जया बच्चन और प्रमोद तिवारी जैसे नेता जो राज्यसभा से अगले साल पदत्चुत हो रहे हैं, इनके पास दुबारा चुने जाने के लिए पर्याप्त विधायक भी नहीं हैं। यहां ऐसा भी कहना गलत साबित नहीं होगा कि भाजपा अब 10 साल तक यूपी को अपना किला बनाएगी और फिर सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल तो हाशिये पर जा ही चुके हैं।
पिछले कुछ सालो में कांग्रेस का संगठनात्मक पतन तेज़ी से हुआ है, जिसका प्रभाव राष्ट्रीय व प्रांतीय स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसे पार्टी की केन्द्रीय रणनीतिक कमज़ोरी व कई मायनों में फैसलों का साफतौर पर केन्द्रीयकृत होने के रूप में देखा जा सकता है। अगर इसी तरह शक्ति का केन्द्रीयकरण 10जनपथ और 12 तुगलक लेन से ही रहता है तो आने वाले कुछ ही सालो में संगठन अपना “मेरूदंड” खो देगा और भाजपा का “कांग्रेस मुक्त भारत” का सपना साकार होता नज़र आएगा।
भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नेताओं में सबसे बड़ा अंतर कनेक्टिविटी और कम्युनिकेशन का ही है, जिसमे भाजपा तो मजबूत है पर कांग्रेस कमज़ोर। फिर भी कांग्रेस के पास यह मौका है कि यूपी व उत्तराखण्ड या अन्य राज्यों में नये नेतृत्व को पनपने में मदद कर कम से कम आने वाले समय में एक मजबूत प्रतिद्वन्दी की तरह भाजपा का सामना कर सके। रही बात कांग्रेस की तो उसे प्रतिद्वंदियों की कमी कहां! “आप” से उसे बड़ा खतरा है क्योकि वो कांग्रेस की ही जगह ले रही है।
आधुनिक भारत के इतिहास में कांग्रेस की प्रासंगिकता यही रही है कि वह एक ऐसा मंच है जिस पर अलग-अलग विचारों के व्यक्ति इकठ्ठा होते रहे हैं। इनमे दक्षिणपंथी और याथास्तिथिवादी ताकतों/व्यक्तियों की कमी नहीं रही। मगर समग्र रूप में कांग्रेस उदारवादी और प्रगतिशील और सबको साथ लेकर चलने वाला संगठन रही है, जिसे बोलचाल में कांग्रेस की “विचारधारा” कहा जाता है।