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“बस फटे पुराने कपड़े पहना,अनपढ़ और नाकामयाब इंसान नहीं है किसान”

किसान, कितना आम सा साधारण सा पेशा है ना? सोच कर लगता है कोई फटे पुराने कपड़े पहने, अनपढ़ और नाकामयाब इंसान। यही छवि है ना हमारे दिमाग में किसान की? परंतु इस भूमिका से कहीं अलग और भी बद्तर हालात में जी रहा शख्स है किसान। ये तो हुई किसान की बात, अब आते हैं मुद्दे पे कि आज किसान को क्यों याद कर रहे हैं?

आज काफी दिनों बाद जंतर-मंतर गया, सोचा कि चलो अपनी भागदौड़ भरी बिना मंज़िल की ज़िंदगी से थोड़ा वक़्त फिर से धरने को दिया जाए। वहां मुलाक़ात हुयी तमिलनाडु से आए 80 किसानों से जो अपने साथियों के नरकंकाल के साथ इस उम्मीद में जंतर-मंतर आए हैं कि पूरे मुल्क को चलाने वाले दिल्ली में बैठे हैं तो उनके करीब जाकर उनको अपनी आह सुनाएंगे।

[envoke_twitter_link]इस मुल्क ने आज़ादी के 70 साल में किसान को हमेशा उपेक्षित किया है[/envoke_twitter_link]। बड़े-बड़े नेता जिस आरामदायक कमरे में बैठकर अपने निजी हित पूरे करते हैं, उसी की पिछली दीवार पर टंगी महात्मा गांधी की तस्वीर, जिन्होंने कहा था कि “भारत की आत्मा गांव में बसती है” और अन्न का भगवन उन्होंने किसान को कहा था। आज दोनों ही बातें अपने होने के संघर्ष से जूझ रही हैं। एक को शहरीकरण ने मार दिया और दूसरे को अकाल और सरकार ने।

आंकड़ा आप इंटरनेट से पढ़ सकते हैं, पर इतना ज़रूर जान लीजिये कि [envoke_twitter_link]हर 2 घंटे में भारत में एक किसान आत्महत्या कर रहा है[/envoke_twitter_link] और सियासतदार अपने कानों में रुई डाल कर बैठे हैं।

ये लोग तमिलनाडु से दिल्ली इसीलिए आए हैं कि उनके वहां पड़े भयंकर अकाल की वजह से आत्महत्या कर चुके कर्जदार किसानों और बचे हुए के लिए व्यंग्यात्मक दान जो दिया गया है उसे बढ़ाया जाए, क्योंकि जितना दिया है उसका आधा तो रास्ते के दलाल हज़म कर गए। यह लेख इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मुझे पता है कि आप सभी युवा अपनी 100 गज की जिंदगी और 1000 पेज की किताब से बाहर निकलकर शायद ही सोचते कि जिस सिस्टम को गटर कह के इतनी आसानी से पल्ला झाड़ लेते हो उसमे लिप्त लोग भी आप में से ही वहां गए हैं। इसे साफ़ करने का जिम्मा भी आप में से ही किसी को लेना होगा।

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