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कोचिंग हब से सुसाईड सिटी कैसे बना कोटा?

पिछले 5 सालों में 57 आत्महत्याओं के बाद कोटा का हॉस्टल एसोसिएशन, कुम्भकर्ण की नींद से जाग गया। कुछ महीने पहले खबर आयी कि अब कोटा के हॉस्टलों के सीलिंग फैन्स में गुप्त ‘सायरन’ और ‘स्प्रिंग्स’ लगाए जाएंगे। माना जा रहा है कि इससे पंखे से लटक कर जान देने वालों पर लगाम लगेगी। दरअसल, पंखा बनाने वाली कंपनियों से आग्रह किया गया है कि वो पंखे में सायरन और स्प्रिंग लगाएं। 20 किलोग्राम से अधिक वज़न के दबाव के बाद पंखा न सिर्फ़ नीचे गिर जाएगा बल्कि उसमें लगा सायरन/अलार्म भी बजने लगेगा। इससे हॉस्टल के लोग सतर्क हो जाएंगे और ऐसे किसी हादसे को टाला जा सकता है।

IITian बनने का ख़्वाब लेकर मैं 2009 में कोटा आया था। एक निजी कोचिंग संस्थान में दाख़िले के बाद मुझे इंद्रा विहार कॉलोनी में हॉस्टल अलॉट हुआ। उस हॉस्टल में भारत के कोने-कोने से विद्यार्थी आये थे। मेरी तरह उन सबकी भी एक ही इच्छा थी कि वो देश के किसी प्रतिष्ठित IIT संस्थान से इंजीनियरिंग करें। एक मध्यम-वर्गीय परिवार से होने के कारण मुझे वहां ढलने में थोड़ा वक़्त लगा।

ऐसा लगता था मानो मुझे किसी जेल में बंद कर दिया गया हो। ऊपर से जून महीने में शहर की तपती धूप में, साईकल पर मुंह पर रुमाल लपेटे कोचिंग जाना अपने-आप में एक चुनौती होती थी।

समय बीतता गया। टीचर्स अपने-अपने तरीकों से हमें समझाते या डराते। कहावत होती थी कि IIT की तैयारी आसान नहीं है; ‘मानो कि तुम दो साल तक एक कमरे में बंद हो और चाबी फेंक दी गयी हो।’ पीरियोडिक टेस्ट में कभी अच्छे मार्क्स आते तो कभी लिस्ट में सबसे नीचे आता। आगे चलकर ये सिलसिला ऐसे मोड़ पर आ गया जहां से मुझे IIT के साथ-साथ अन्य इंजीनियरिंग परीक्षाओं से भी दूरी महसूस होने लगी। सभी रास्ते बंद नज़र आ रहे थे। मैं समझ चुका था कि इसमें सफल नहीं हो पाऊंगा। किंकर्तव्यविमूढ़ की परिस्थिति हो गयी थी। लेकिन इन तमाम परिस्थितियों का ज़िम्मेदार मैं खुद था, कोचिंग नहीं।

दूसरे साल के अंत की बात है, तब मैं एक पीजी में रहने लगा था। उसी पीजी में बिहार का एक लड़का ‘साकेत’ रहता था। एक शाम कोचिंग से हॉस्टल लौटा तो देखा कि बगल वाले मालव जी (बदला हुआ नाम) के घर के बाहर भीड़ लगी है। मैं अपने गेट तक पहुंचा ही था कि साकेत परेशान सा मेरे पास आया और बोला, “यार, मेरे भाई ने सुसाइड कर लिया। सब ख़त्म हो गया, भाई। पंखे से लटक गया वो। काश पंखा टूट जाता, काश टूट जाता।” और फिर वो रो पड़ा। इस घटना ने मुझे अंदर से हिलाकर रख दिया था। शायद इसलिए क्योंकि मैं सुसाइड करने वाले उस लड़के को जानता था, वो अपने बैच का ‘टॉपर’ था।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के मुताबिक़, पिछले साल कोटा में 17 छात्रों ने आत्महत्या की थी। इनमें से ज़्यादातर मामलों में पंखे से लटक कर आत्महत्या की गयी थी। इसके अलावा कोटा बैराज के पास चम्बल नदी में कूदकर जान देने वाले भी थे। अपने हॉस्टल के पांचवीं मंजिल से कूदकर एक लड़की ने अपनी जान दी थी। कई रिपोर्ट्स, इन घटनाओं के लिए कोचिंग संस्थानों के प्रेशर और रवैये को ज़िम्मेदार ठहराती हैं। उनका मानना है कि छात्रों का 10वीं पास करने के बाद इतनी बड़ी प्रतिस्पर्धा में ख़ुद को जगह दे पाना एक मुश्किल काम है।

बोर्ड में 90% पाने वाले जब यहां के मासिक टेस्ट में 20% पर अटक जाते हैं तो वो उनसे बर्दाश्त नहीं होता। 7-8 घंटे की क्लास के बाद लौटकर असाइनमेंट बनाना, फिर अगले दिन के लिए ख़ुद तो तैयार करना होता है। मेस में खाने की गुणवत्ता हर जगह अलग होती है। गर्मी के दिनों में दोपहर के ढाई बजे पढ़कर लौटना बहुत ही मुश्किल होता है। पथरीला इलाका होने के कारण दिन भर की हवाएं रात में भी गर्म महसूस होती हैं। इन सबका सामना करना कठिन होता है। दसवीं का एक छात्र मानसिक तौर कितना मज़बूत है, इसमें उसकी पृष्ठभूमि बहुत मायने रखती है।

संस्थानों का रोल और छात्र-

कुछ एक कोचिंग संस्थानों ने 6 साल पहले से ही अटेंडेंस का एक सिस्टम बनाया था। इसमें बच्चे अपना आई-कार्ड एक मशीन के आगे दिखाते थे और उपस्थिति दर्ज़ हो जाती थी। उनकी उपस्थिति का रिकॉर्ड उनके घरवालों को भी भेजा जाता था। लेकिन बहुत से विद्यार्थी इसका ग़लत तऱीके से इस्तेमाल करते थे। वो अपना कार्ड किसी सहपाठी को देकर ‘प्रॉक्सी’ लगवाते थे और उनकी उपस्थिति, उनके कोचिंग में न होने के बावजूद भी, दर्ज हो जाती थी। इसके रोकथाम के लिए आज सालों बाद ‘बॉयोमेट्रिक्स’ लाने की बात उठी है।

एलेन कैरियर इंस्टिट्यूट में भौतिकी (फिजिक्स) के शिक्षक भवानी शंकर गोयल ने मुझसे फ़ोन पर बात की। उन्होंने कहा, “कोचिंग संस्थान किसी भी बच्चे पर ज़बरदस्ती नहीं करते, हम किसी भी छात्र को हाथ पकड़ कर नहीं पढ़ाते। ये उनकी इच्छा है कि वो पढ़ें या नहीं, आज जब मैं सुनता हूं कि ज़्यादातर आत्महत्याओं की वजह पढ़ाई का प्रेशर है तो मुझे थोड़ी सी हैरानी होती है। हमें इन दुर्घटनाओं के कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए। मैं ये मानता हूं कि सुसाइड जैसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई के प्रेशर को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है, और भी अन्य मुद्दों को टटोलना और परखना चाहिए। शायद उनकी मनोस्थिति कुछ अलग रही हो।”

शायद ये बात कम लोगों को पता होगी कि कोटा शहर में  गैंगवार भी होती रहती है। छोटे से इस शहर में कई ऐसे छोटे-छोटे समूह हैं जो छात्रों में दशहत फैलाते हैं। उस ग्रुप में तो वहां के छात्र ही हैं। सालों पहले वहां पर ‘बिहारी टाइगर्स’ के नाम से गैंग चलते थे। विभिन्न संस्थानों से पासआउट होने के बावजूद भी उन्होंने कोटा शहर को अपना अड्डा बनाया हुआ था। ऐसे गैंग्स आज भी हैं। फिल्मी तरीके से किसी भी छात्र को पीट देना तो आम बात थी, हालात तो ऐसे हैं कि आज किसी लड़के को घर से निकलकर हथौड़े से मार डाला जाता है और कानून कुछ नहीं कर पाता। आये-दिन मारपीट की छिटपुट घटनाएं होती हैं। कुछ मुद्दे प्रेम प्रसंग के होते हैं। भवानी ने आगे बताया “आज भी परिस्थिति वैसी ही हैं। प्रेम-प्रसंग में झगड़े आम बात है। अभिभावकों को भी सोचना पड़ेगा कि कहीं उनका बच्चा ऐसे किन्हीं कामों में संलिप्त होकर किसी अंधेरे की तरफ तो नहीं है?”

साइबर कैफे का जाल-

एक कहावत है कि कोटा शहर में अगर आप एक पत्थर उठाओ और किसी भी ओर फेंको, तो वो या तो एक कोचिंग सेंटर पर गिरेगा या फिर किसी साइबर कैफे पर। वहां आपको हर गली में एक या दो साइबर कैफे मिल जाएंगे। उमस से भरी एक खोली में 5-10 कंप्यूटर्स रखे रहते हैं। दिन में ज़्यादातर स्क्रीन्स पर आपको ‘काउंटर स्ट्राइक’ जैसे गेम्स की दौड़ नज़र आएगी। बच्चे अपनी ‘थकान’ मिटाने के लिए वहां आते हैं और घंटों बैठे रहते हैं। रात होते ही शहर के कई साइबर कैफे बच्चों को गुप्त तरीके से अंदर दाख़िल करते हैं। अब उसके बाद अंदर वो क्या करते हैं, ये मुझे नहीं पता मगर इसकी जांच ज़रूर होनी चाहिए। साथ ही ये भी सवाल उठाने चाहिए कि साइबर कैफे को पूरी रात खोले रखने का लाइसेंस किसने दिया? और क्यों?

कहते हैं कि कोटा इंजीनियर्स पैदा करने की मशीन है। कोटा ने देश को लगातार टॉपर्स दिए हैं। हर साल 1,50,000 से ज़्यादा छात्र IIT में उत्तीर्ण होने का सपना लेकर यहां आते हैं। कई छात्र IIT क्रैक कर, सफलता की बुलंदियों को प्राप्त करते हैं। लेकिन दूसरी ओर जब हमारी नज़र असफलता और उसके बाद उत्पन्न अवसाद पर जाती है तो हम सोचने पर मजबूर होते हैं कि IIT को इतना हाइप क्यों किया गया?

सपने देखने का हक तो सभी को है, लेकिन उन सपनों को पाने के लिए युवाओं का यूं हार जाना किसी भी राष्ट्र के लिए चिंता की बात है। IIT से आगे भी दुनिया है। आज विश्व की बड़ी से बड़ी कंपनियों में ‘नॉन-आईआईटियन’ उच्च पदों पर आसीन है; चाहे वो गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई हों या माइक्रोसॉफ्ट के सत्य नडेला। ज़रूरी नहीं कि सफलता का द्वार सिर्फ़ और सिर्फ़ IIT हो। और भी अच्छे संस्थान हैं और भी पेशे हैं।

आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है अभिभावकों को अपने बच्चे को सपोर्ट करने की। उन्हें कोटा भेजने से पहले ये समझाने की कि अगर कभी मन में कुछ घबराहट हो तो उनसे बात करें। अगर कभी IIT कठिन लगे तो बात करें। बच्चों की मनोवैज्ञानिक स्थिति को समझना बहुत ज़रूरी है। उनमें वो भावना जगानी होगी जिसमें अल्लामा इक़बाल ने कहा था, “सितारों से आगे जहां और भी हैं, अभी इश्क़ के इम्तेहान और भी हैं।” अगर पढ़ाई और IIT आपका इश्क़ है तो इसे अपनी ताकत बनाएं, कमज़ोरी नहीं।

साकेत ने कहा था कि काश पंखा टूट जाता। आज ये तकनीक आने वाली है, पर सवाल ये उठता है कि क्या किसी छात्र/छात्रा की ज़िंदगी और मौत के बीच पंखे का सायरन और स्प्रिंग आ सकते हैं? क्या हमारे युवा इतने कमज़ोर हैं कि उनकी जान एक सायरन के भरोसे टिकी है? एक भावी इंजीनियर के लिए उन उपकरणों से छेड़-छाड़ करना ज़्यादा मुश्किल नहीं होना चहिये। और कोई चीज़ अगर गुप्त है तो उसे बताने की क्या ज़रूरत है कि वो गुप्त है? उसकी गोपनीयता तो वैसे भी लीक हो गई।

हालांकि, मैं ये भी मानता हूं कि अगर इससे एक छात्र/छात्रा की भी जान बचती है तो बहुत बड़ी बात है। लेकिन ज़रूरत है इस परेशानी की जड़ तक जाकर इसे समझने की। सिर्फ शिक्षण संस्थानों को दोष देना मूल परेशानी से मुंह फेरना होगा।

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