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डिप्रेशन कितना खतरनाक होता है, ये मेरी दोस्त के ज़रिए पता चला

ये  बहुत आम धारणा है (खासकर हमारे देश में) कि जब तक आपका शरीर नहीं टूटा होता, कहीं कोई लक्षण या चोट सामने नहीं दिखती तब तक आपको स्वस्थ माना जाता है। तनाव को हम हल्के से मज़ाक में उड़ा देते हैं। हमें अपने आसपास सब एकदम मस्त लगते हैं, मुझे भी लगते थे लेकिन बस तब तक, जब तक मैं कॉलेज में थी। उसके बाद मुझे पता चला कि मेरे ही किसी जानने वाले को डिप्रेशन है पहले मैं समझ नई पाई किस बात की मेडिसिन ले रहे हैं। उसके बाद मुझे पता चला कि मेरे ही किसी जानने वाले को डिप्रेशन है पहले मैं समझ नहीं पाई कि वो किस बात की मेडिसिन ले रही है।

मुझे न तो डिप्रेशन के लक्षण पता थे और न ही अपने दोस्त को देखकर कुछ गड़बड़ लग रहा था। एक इंसान जो अच्छे से खा रहा है , काम कर रहा है,  खेल रहा है इसको डिप्रेशन कैसे हो सकता है। लेकिन उस दिन के बाद मुझे पता चल गया था कि ये किसी भी दूसरी बीमारी की तरह है और अगर इसे क्योर नहीं किया तो बहुत भयानक हो सकता है , डिप्रेशन को हम सायलेंट किलर भी कहते हैं।

जानकारी मिलती भी कहां से ? डिप्रेशन के बारे में साल में एकाध बार कहीं अखबार में पढ़ने को मिलता था। हमेशा बहुत दूरी बनी रही डिप्रेशन जैसी बीमारी से। या यूँ कहे मैं बहुत कन्फयूज़ थी डिप्रेशन को लेकर। एक बात तो मुझे समझ आ गई थी कि ये ऐसी बीमारी है जिसके बारे में हम बात बहुत कम करते हैं या ना के बराबर करते हैं।

2016 में मैं बेंगलुरु शिफ्ट हुई एक बहुत अच्छी दोस्त बनी। साथ घूमना, पार्क में बैठ कर बातें करना, उससे कन्नड़ सीखने की कोशिश करना, उसकी हल्की मुस्कान ने मेरा ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया था। मेरे अलावा शायद ही उसकी किसी से इतनी बात होती। पांच छः मुलाकातों के बाद उसने मुझे बताया कि उसे डिप्रेशन है। हम पार्क में बैठे थे थोड़ी देर के लिए मैं सुन्न हो गई जब उसने बताया कि उसे कल डॉक्टर के पास जाना है। हम सभी का शायद यही रिएक्शन होता है डिप्रेशन के लिए या साइकैट्रिस्ट के पास जाने को लेकर।

2015- 2016 में हुए नैशनल हेल्थ सर्वे से पता चलता है कि हर 20 में से एक व्यक्ति  डिप्रेशन का शिकार है, उनमें से बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें इस बात की खबर ही नहीं और न ही इस बारे में बात करते हैं।

मेरी दोस्त शहर में सबके होते हुए भी अकेली थी और मैं  शहर में नई थी ये एक अच्छाे कॉम्बिनेशन था। हम दोनों ने बिना किसी बैगेज या जजमेंट के दोस्ती की। जब दोस्त डॉक्टर के पास जाती तो आकर मुझे सब बताती कि क्या हुआ, क्या कहा डॉक्टर ने, कुछ बेटर है या असाइनमेंट दिया है। उसे नींद से बहुत स्ट्रगल करन पड़ता था ये उसने बताया। हम दोनों सब कुछ डिस्कस करते थे छोटी से छोटी चीज, छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी फीलिंग। धीरे-धीरे हम बहुत कंफर्टेबल हो गएं। हम साथ रोएं तो साथ हंसे भी।  खूब ठाहके भी लगाए और ये सब जरुरी था भावनाओं को व्यक्त करने के लिए। दोस्त ने हसीं मज़ाक में एक बार कहा था I fell good that you know that being into depression does not mean the person is mad (मुझे ये काफी अच्छा लगा कि तुम जानती हो कि डिप्रेस्ड इंसान पागल नहीं होता है)। उस समय मैं सोच रही थी काश जल्दी सभी ऐसे ही सोचें और समझे।

दोस्त ने घर से निकलना, अपनी फीलिंग शेयर करना शुरू किया। मिल न पाएं तो मैं पूरी कोशिश करती थी कि हफ्ते में एक बार उससे फ़ोन पे  पूरे हफ्ते का हाल चाल जानू या घंटों हम व्हाट्सएप  पर गप्पे मारते। पूरे हफ्ते क्या हुआ, कैसा महसूस होता है, कितना इम्प्रूवमेंट है ये सब बात करते थे।

मैं दोस्त को बताती की कैसे वो बहुत चीजों में पहले से ज्यादा एक्टिव और पॉजिटिव है उसे मेरा फीडबैक बहुत अच्छा लगता और हमारी दोस्ती गहरी होती जाती। एक बात का एहसास मुझे अब हो चुका था कि कोई कितना भी इंटेलिजेंट हो , स्ट्रॉंग हो ये बीमारी सरदर्द की तरह किसी को भी हो सकती है। जैसे बिना डॉक्टर के कोई और बीमारी ठीक नहीं हो सकती ये भी ठीक नहीं हो सकती।

मुझे बहुत दुःख होता है कि हम साइकैट्रिस्ट के पास जाने को कितना बुरा मानते हैं अभी भी डिप्रेशन के लिए डॉक्टर की मदद लेना एक टैबू है, हमें डिप्रेशन के बारे में अवेयर होने की ज़रूरत है। हम में से कई लोगो का मानना है ये पागलपन है जबकि ये सबसे गलत धारणा है।

मेरी दोस्त ने पार्ट टाइम जॉब करना शुरू किया डॉक्टर के पास, अब भी जाती है और आज खुद का छोटा सा बिज़नस शुरू कर दिया है।

कुछ चीजें जो ध्यान देने वाली है :-

सबसे पहले हमें डिप्रेशन के बारे में जानकारी होना जरूरी है।

दूसरी बात हमें इसे हलके में नहीं लेना होगा क्योंकि ये धीरे-धीरे इंसान को अंदर से खोखला करता है।

तीसरा हमें एक दूसरे से बात करने की जरूरत है और साथ ही इस टैबू को हटाना होगा कि ये खुद ठीक हो जाता है।

डिप्रेशन और सरदर्द में कोई फर्क नहीं दोनों का इलाज़ डॉक्टर के पास जाने से होगा।

एक दिन पहले जब सोशल मीडिया पर न्यूज़ पढ़ी कि बेंगलुरु के एक लड़के ने सुसाइड किया मुम्बई में जो कि सिर्फ 24 साल का था तो मैं कुछ मिनट के लिए कांपती रही। अगर मैंने अपने आस पास कुछ ऐसे केसेज़ को नहीं देखा होता तो मैं भी नहीं जान पाती कभी डिप्रेशन के बारे में। शायद कहीं न कहीं हमलोगों ने एक दूसरे से बातचीत करना कम या बंद कर दिया है खासकर डिप्रेशन जैसी बीमारी के बारे में जिसे आप बीमारी के रूप में देखते नहीं। अगर ये बीमारी अंदर से खोखला नहीं करती बिना इलाज़ किए तो क्या कोई अपनी जान देता? नहीं न? हम बहुत से लोगों की मदद कर सकते हैं सिर्फ इस बारे में बात करके और डिप्रेशन को एक सरदर्द जैसी बीमारी जैसे ट्रीट करके। डिप्रेशन छुपाने से नहीं इसका इलाज़ करने से दूर होगा। आओ सब मिलकर इसे आसान बनायें, अपने लिए अपने दोस्तों  के लिए एक बेहतर समाज के लिए, ताकि कोई सिर्फ इस बीमारी की वजह से अपनी जान न गवाएं और न ही कोई परिवार अपने जिगर के टुकड़े को खोए।

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