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पांचवी अनुसूची: संविधान की किताब में धूल फांकता आदिवासियों का हक

संविधान की “पांचवी अनुसूची” भारत की अनुसूचित जनजातियों  के लिये किसी “धर्मग्रंथ” से कम नहीं है। क्योंकि ‘अनुसूचित जनजाति’ की सुरक्षा और हित की तरफदारी इन्हीं कानूनों में निहित थी। “पांचवी अनुसूची” संविधान की पुस्तक में अबतक कैद पड़ा है और आजतक ‘अनुसूचित क्षेत्र’ Scheduled Area के लोगों ने उसका स्वाद नहीं चखा। आज भी ‘अनुसूचित जनजाति’ Schedule Tribe अपने संविधान पर पूर्ण आस्था और श्रद्धा रखती है। लेकिन अब उनका सब्र टूटता नज़र आ रहा है।

मारँग गोमके “जयपाल सिंह मुण्डा” ने संविधान प्रस्तावना के वक्त उस बड़े बहस में पूरे सभा में कहा था – “आप आदिवासियों को लोकतंत्र के बारे में नहीं सिखा सकते, आपको लोकतांत्रिक तरीका उनसे सीखना पड़ेगा। वे इस पृथ्वी के सबसे ज़्यादा लोकतांत्रिक लोग हैं। हमारे लोग सुरक्षा के पर्याप्त साधन नहीं ,सुरक्षा चाहते हैं। हम कोई विशेष सुरक्षा नहीं चाहते , हम चाहते हैं कि हमें भी अन्य भारतीय की तरह समझा जाये।”

भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची(Fifth Schedule) का मूल प्रारूप ‘अनुसूचित जनजाति’ की सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी एवं आर्थिक अस्तित्व की सुरक्षा का अति महत्वपूर्ण प्रावधान है। पांचवी अनुसूची की अवधारणा अनार्य ‘ऑस्ट्रिक भाषाई एवं प्रजाति समूह’ के लोगों के हज़ारों वर्ष पूर्व भारत के विभिन्न हिस्सों मे विभाजित होने तथा जंगलों और पहाड़ को अपना आश्रय बनाकर एक विशिष्ट सभ्यता को विकसित करने की पूरी प्रक्रिया के अध्ययन के पश्चात बनाया गया था। उनकी भाषा, संस्कृति, परम्पराओं एवं जल, जंगल और ज़मीन पर आधारित उनकी अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिये यह कानून ज़रूरी भी था। इस कानून में सिर्फ इतना ही नहीं वरन आदिवासियों की विशिष्ट सामाजिक एवं पारम्परिक व्यवस्था की रक्षा के लिये सशक्त “जनजातीय प्रशासनिक तंत्र” को भी मान्यता दी गई थी। लेकिन इसे दुर्भाग्य कहें या प्रशासनिक लापरवाही, कि आज तक आदिवासियों के हित में बने संविधान के इस प्रावधान को लागू नहीं किया गया

पांचवी  अनुसूची Fifth Schedule की अवधारणा आदिवासी जनजीवन और उनकी जीवन शैली की गहराइयों एवं उनकी मूल भावना के साथ जुड़ी हुई है। इसे इतने हल्के ढंग से समझते हुए इसकी अवहेलना करना कई दूरगामी प्रतिकूल प्रभावों को जन्म दे सकता है। भारत की आज़ादी के पूर्व भारत में आदिवासियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति, परम्परा और उनके भाषाओं के संरक्षण के लिये भारत के प्रांतीय प्रशासन के गठन की माँग को लेकर कई आंदोलन के कारण भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत के आदिवासियों के विकास की अवधारणाओं को परिभाषित किया। उनके अनुरूप संविधान मे एक अलग प्रारूप तैयार किया गया था। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूंजी निवेश की अवधारणाओं के कारण उपनिवेशवादी प्रकिया को ही बल दिया तथा अंतरराष्ट्रीय विकास नीतियों के कारण आदिवासियों के हित में बने कानून की मूल भावना अब बिखरती हुई दिखाई पड़ रही है।

आज़ादी के इन सत्तर वर्षों के दरमियान भारत में कई परिवर्तन हुए लेकिन इस नए युग मे स्वतंत्र भारत की संविधान की ‘जनतंत्र’ या ‘लोकतंत्र’ की आत्मा को जैसे झकझोर कर रख दिया है। अनुसूचित क्षेत्र के लोग कुएं के पास होने के बावजूद प्यासे रह गए। आज इन्हें कुआं भी चाहिए और उस कुएं से पानी निकालने का साधन भी चाहिए।

भारत की आज़ादी के उपरांत नये आर्थिक नीतियों के तहत विश्व स्तर पर बनने वाले खुले बाज़ार की नीतियों ने भारत के आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक अस्तित्व की सुरक्षा की एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। देसी-विदेशी व्यवसायिक कम्पनियों के बड़े पैमाने पर आदिवासी क्षेत्रों मे पूंजी निवेश के कारण संविधान के अस्तित्व का ही संकट खड़ा हो रहा है। आदिवासियों की जीविका का प्रमुख स्रोत जल, जंगल और ज़मीन की सुरक्षा के लिये बनाये गये संवैधानिक प्रावधानों की उपेक्षा के कारण आदिवासियों के हाथो से बड़े पैमाने पर ज़मीन और जंगल पर मालिकाना हक निकलता जा रहा है। इतना ही नहीं इनके क्षेत्रों मे विकास के नाम पर उनकी ज़मीन छीन कर उन्हें विस्थापित किया गया जिसके कारण उन्हें अपनी रोज़ी रोटी के लिये पलायन झेलना पड़ रहा है ।

यह एक बड़ी विचित्र विडम्बना है कि भारत के वो 9 राज्य जिनके कई ज़िले पांचवी अनुसूची (Fifth Schedule) के अंतर्गत आते हैं भारत के संविधान के अनुसार इन क्षेत्रों में ‘सामान्य कानून व्यवस्था’ को लागू करने की इजाज़त नहीं देते। तो फिर किस आधार पर राज्य सरकार पंचायत चुनाव  करा रही है ? क्या राज्य सरकार इन क्षेत्रों में इस प्रकार के चुनाव करा कर यहां के ‘परम्परागत प्रशासनिक व्यवस्था’ को खत्म करना चाहती है ? इन क्षेत्रो में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव  कराने का क्या प्रयोजन है ? यह पूर्ण विदित है कि ‘पांचवी अनुसूची’ में सारा शक्ति ‘ग्राम पंचायत’ यानी ‘ग्रामसभा’ को दिया गया है। लेकिन ‘पेसा कानून’ में 2008 में किये गए संशोधन ‘ग्रामसभा’ की जगह ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008’ ( Gram Nyayalayas Act,2008 ) बना कर ‘ग्रामसभा’ की शाक्तियों को ही ख़त्म कर दिया गया।

अब देखा जाए की संविधान द्वारा बनाये गए कानून को ‘अनुसूचित क्षेत्रों’ में पूर्णरूप से लागू किया जाएगा या फिर सरकार का हस्तक्षेप इन क्षेत्रों में होता रहेगा और आदिवासियों को उनके ‘परम्परागत प्रशासनिक व्यवस्था’ से वंचित किया जायेगा! इस दिशा में भारत के सभी नौ राज्यों में जहां पांचवी अनुसूची Fifth Schedule को लागू किया जाना था, वहां के स्थानीय लोग जनांदोलन करने पर मजबूर होंगे। क्योंकि ‘पांचवी अनुसूची’ Fifth Schedule का संबंध यहां के ‘परम्परागत प्रशासन व्यवस्था , सामाजिक और आदिवासियों की सांस्कृतिक अस्तित्व से जुड़ा हुआ है।

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