अभी हाल ही में, कश्मीर में हुए उपचुनाव में बहुत कम वोटिंग हुई है. पोलिंग बूथ पर जगह–जगह अलगाववादियों ने जमकर पत्थर फेंके हैं. पत्थर फेंकने वालों में सभी उम्र के लोग हैं शायद वो भी जिन्हें बमुश्किल पता हो कि वो पत्थर क्यूँ फेंक रहे हैं. अलगाववादियों द्वारा कई दशकों से चलाये जा रहे इस संघर्ष में जान–माल का जो नुकसान हुआ है उसका हिसाब करना बहुत मुश्किल है. लेकिन सबसे बड़ा नुकसान कश्मीर की आत्मा “कश्मीरियत” का हुआ है जिसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है. कई लोग बार–बार ये सवाल पूछ देते हैं की “कश्मीरियत” क्या है? सबका साथ और सबके साथ‘ हीं तो “कश्मीरियत” है. हिंसा के बदले अहिंसा; पत्थर और बारूद के बदले केसर और गुलाब का फूल हीं तो “कश्मीरियत” है. किसी भी मनुष्य में इन्सान को देख लेना, किसी के दर्द को कम करने के लिए अपने को फ़ना कर देना हीं “कश्मीरियत” है. बहरहाल, कश्मीर में ये सब अब बिलकुल नहीं दीखता. ये अलग बात है कि इसी “कश्मीरियत” को पूरे भारत ने अपनाया है.
कश्मीर भारत का वह राज्य है जिसको दुनिया भर में सांस्कृतिक विरासत “कश्मीरियत” के लिए जाना जाता रहा है. अद्भुत और शांतिप्रिय समाज, जो कभी दुनिया भर में अपनी सेब, केसर, गुलाब और तुलिप फूल के लिए जाना जाता था. जब कोई व्यक्ति जिंदगी के संघर्ष में नाउम्मीद हो जाता तो वह कश्मीर, नयी उम्मीद के लिए चला आता. कभी कश्मीरियत की वजह से, किसी भी अनजान को लोग अपने घर ले जाकर ‘कहवे की चाय‘ पिलाते थे और आज कश्मीरी अपने हीं सगे सम्बन्धियों से भी दूर रहना चाहते है. सेब उगाने वाले बागों में, अब गोले–बारूद उगने लगे हैं. कश्मीर में जाकर बसना लोगों के सपनों में होता था लेकिन पिछले कई दशकों से कश्मीर से लोग विस्थपित हो रहे हैं, पहले कश्मीरी पंडित और अब कश्मीरी मुसलमान. अब वो कश्मीर जो कभी फूल फेंका करता था, आज पत्थर फेंक रहा है. कश्मीर में हो रही इस लड़ाई ने वहां के वातावरण में, केसर और गुलाब की सुगंध के बदले, बारूद और खून की बदबू भर दिया है. कभी कश्मीर की ठंडी वादियों में पहुँचने से हीं, आपका क्रोध, गुस्सा सब ठंडा पड़ जाता था और अब, वहां की हवाएं इतनी गर्म हो हईं हैं कि लोग चेहरे पर मास्क लगाकर चलते हैं. ऐसा लगता है कि, मानो अलगाववादियों के पीछे लड़ते–लड़ते कश्मीर गुलाम सा हो गया है. गुलाम! किसी देश का नहीं बल्कि झूठे प्रपंचों, रुढिवाद, अलगाववाद और कट्टरपंथ का.
कश्मीर के अलगावादी, इस संघर्ष को आजादी की लड़ाई कहते हैं लेकिन, ऐसी आजादी की लड़ाई क्या मतलब जो हमारे हाथों में, फूल के बदले पत्थर दे दे. जब कश्मीर में सेना ने ‘पैलेट गन्स‘ का प्रयोग किया था भारत के हर कोने में इसकी भर्त्सना हुई थी. चाहे वह अलगाववादी हीं क्यूँ न हों, लेकिन हिंसा का जबाब हिंसा, भारत की पहचान नहीं है. हम वो मुल्क हैं जो अजमल कसब जैसे आतंकवादी पर भी करोड़ों खर्च कर न्याय की प्रक्रिया पूरा करती हैं. हम वो मुल्क नहीं बनना चाहते जिसमें न्याय वयवस्था किसी सेना के मुख्यालय में स्थित हो. भारत में हर जगह संघर्ष हो रहे है, लेकिन इस मुल्क से आजाद होने की नहीं बल्कि प्रजातंत्र के मूल को स्थापित करने के लिए. हम कभी भी हिंसा के पक्ष में खड़े नहीं रहे हैं.
इसदेशनेअंग्रेजोंसेआजादीकीलड़ाईलड़ी, गाँधी जी ने चौरी–चौरा में पुलिस वालों की निर्मम हत्या के खिलाफ असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया था. कईयों का मत है कि अगर गाँधी वो निर्णय न लिए होते तो शायद हम अंग्रेजों से १९४७ में नहीं बल्कि उससे कई साल पहले आजाद हो सकते थे. बहरहाल, अगर वो निर्णय न लिया गया होता तो हम कैसे समाज होते? आजाद देश का वो ‘समाज‘, जो किसी भी बात के लिए पत्थर, बन्दुक या बारूद का हीं सहारा ले लेता. हम प्रजातंत्र कैसे स्थापित कर पाते अगर हर बात के लिए ‘बैलट का नहीं बल्कि बुलेट का‘ इस्तेमाल करते. भारत की आजादी का संघर्ष, दुनिया भर के गुलाम देशों के लिए आदर्श बन गया था और आज भी है क्यूंकि गाँधी ने संघर्ष का वो रास्ता अपनाया जिस रास्ते से हीं एक आजाद देश, न्यायपूर्ण समाज बन सकता है. जिस हिंसक रास्ते को कश्मीर के अलगाववादियों ने अपनाया है, अगर कश्मीर उस रास्ते पर चला तो वो कैसा समाज बन पायेगा. क्या हिंसा से उत्पन्न हुई आजादी में, ‘न्यायपूर्ण समाज‘ की कल्पना भी हो सकती है? उस आजाद कश्मीर का क्या करेंगे जिसमें “कश्मीरियत” ही नहीं होगी. गाँधी ने कहा था मंजिल से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मंजिल को पाने के लिए चुना गया रास्ता है. कश्मीर की आजादी, कश्मीर के अलग मुल्क बन जाने में कतई नहीं है बल्कि “कश्मीरियत” को जिन्दा रखने में है. वो कश्मीरियत जो बौद्ध संगीति से पैदा हुई थी और अहिंसा हीं मानव सभ्यता का द्योतक बना था.
बस एक आजाद मुल्क बन जाना हीं, किसी समाज के संघर्ष की नियति नहीं है. वैसे जमीन के टुकड़े को अलग कर लेना और एक मुल्क बन जाने में बहुत अंतर होता है. १९४७ में भी दो मुल्क बने थे, एक हिंसा के रास्ते तो दूसरा गाँधी के अहिंसा के रास्ते. एक मुल्क है जो लाखों समस्यायों के बावजूद मंगल ग्रह पर भी अपनी जगह बना बैठा है और वहीँ दूसरी ओर एक जमीन का टुकड़ा जो आज भी शासन–व्यवस्था तक के लिए संघर्ष कर रहा है. भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ न्याय की अनदेखी होने पर, कहीं खुली जबान से तो कहीं दबी जबान से भी लोग खिलाफत से कतराते नहीं हैं. जहाँ भारत में अल्पसंख्यक की संख्या में लगातार बढ़ोतरी है वहीं दुसरे देशों में अल्पसंख्यक कम होते जा रहे हैं और नागरिक अधिकारों से भी वंचित हैं. भारत मुल्क बना हैं ‘कश्मीरियत‘ की वजह से और अगर कश्मीर अलगाववादियों के इस संघर्ष में “कश्मीरियत” को खो देता है तो ये तय है, कश्मीर कभी भी मुल्क तो नहीं बन पायेगा. वो ‘न्यायपूर्ण समाज‘ नहीं बन पायेगा, जिसके बन जाने मात्र से हीं हम सभ्यता की पहली सीढ़ी चढ़ जाते हैं.
इस बात में कोई दो राय नहीं की कश्मीर की समस्या में जटिलता बहुत है लेकिन तमाम जटिलताओं और समस्याओं का समाधान तो, बैलट पेपर हीं है, बुलेट या पत्थर से किसी भी समस्या का समाधान संभव ही नहीं है. “कश्मीरियत” के जिन्दा रहने भर मात्र से हीं कश्मीर आजाद है, तो फिर किसी आजादी की जरुरत कहाँ है. सभी किस्मों की आजादी का मूल “कश्मीरियत” में हीं तो है. जब “कश्मीरियत” है तो कश्मीर आजाद हैं; क्रोध से, रुढिवादिता से, अलगाववाद, कट्टरपंथ और हिंसा से. वैसे इन सब से आजादी, किसी मुल्क से आजाद होने से, और फिर महज जमीन का एक टुकड़ा भर बन कर रह जाने से, कहीं बेहतर और जरुरी है.
डॉ. दीपक भास्कर, जे एन यु ke Ph.D हैं एवं दिल्ली विश्विद्यालय के दौलतराम कॉलेज में राजनीति पढ़ाते हैं.