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“मेरा दलित होना मेरे शहर और गांव की गलियों के लिए एक गाली थी”

हमारे देश और समाज में किसी खास जाति से संबंध रखने के फायदे और नुकसान हैं। किसी एक जाति द्वारा किसी दूसरी जाति के लोगों के शोषण की कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं और साहित्यकारों ने भी इस पक्ष का बार-बार अपनी तमाम रचनाओं में ज़िक्र किया है। प्रेमचंद का साहित्य दलित विमर्श से भरा पड़ा है। अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और अनेक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इस भेदभाव को दूर करने के लिए बहुत प्रयास किये, जो आज भी किसी ना किसी रूप में जारी हैं।

इस भेदभाव से मुक्ति के लिए शिक्षा को हमेशा एक महत्वपूर्ण पथ माना गया है और काफी हद तक यह सही भी है। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लैटफॉर्म पर दलित मुक्ति आंदोलन से जुड़े संघर्षों की कहानियां पढ़ रहे हैं, अपने आपको और अपने अतीत को उससे जोड़े बिना रहना मुझे ठीक नहीं लगा। जीवन के तमाम कड़वे अनुभव रोज़ आंखों के सामने से ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे कल ही की बात हो। हरियाणा जैसे सामंती प्रदेश में पला पढ़ा होने के अनुभव बाकी प्रदेशों से अलग ज़रूर हैं पर अच्छे और सुखद तो नहीं हैं।

गालियां और गलियां

बचपन से शुरू करें तो कुछ गालियां और गलियां अतीत का साया बनकर काफी लंबे समय तक पीछा करती रही, जब तक खुद मुक्ति आंदोलनों का हिस्सा नहीं बने। चाहे वो सामाजिक बदलाव की दिशा में जातिगत भेदभाव दूर करने का हो या फिर लिंग भेदभाव को मिटाकर एक समान एवं सुरक्षित समाज बनाने का अभियान हो। गाँव की कुछ गलियां ऐसी थीं, जहां अपने कुत्तों और जाति सूचक गालियों के साथ लोग तैयार रहते थे और अपनी आने वाली नस्लों को भी इसकी तालीम देते थे।

शिक्षा इससे मुक्ति का एकमात्र रास्ता दिखाई देता था। अपने बारे में बात करूं तो अपने पड़ोस और रिश्तेदारों में सांवले होने के स्टिग्मा और गॉंव समाज की किसी खास जाति का होने के स्टिग्मा से पढ़ाई लिखाई में किए गए अच्छे प्रयास और छोटी-छोटी उपलब्धि अस्थाई सुकून देने वाली थी।

सरकारी योजनाएं चाहे आरक्षण हो या कोई स्कॉलरशिप, आस-पास के लोगों की नफरत और भेदभाव का कारण दिखाई पड़ती थी। मुझे बचपन का एक किस्सा आज तक याद है।

मेरे पिताजी अंबेडकर से काफी प्रभावित हैं और हमारी पढ़ाई के लिए उन्होंने वो सब कुछ किया जो उन्हें ज़रूरी लगा, माँ के जेवर बेचने से लेकर कर्ज़ लेने तक या सरकारी योजनाओं का लाभ भागदौड़ करके लेने तक।

90 के दशक में मैनुअल स्कैवेन्जिंग यानि मैला ढोने की प्रथा की समाप्ति के नाम पर मिलने वाला वजीफा एक बड़ी आर्थिक सहायता थी। हालांकि हमारे गांव में इस काम का प्रचलन नहीं था, फिर भी पिताजी कचहरी से मैला ढोने का प्रमाण पत्र बनवाकर स्कूल से हमारे लिए वजीफे का बंदोबस्त कर लेते थे। हद तो तब हो गई जब 9वीं कक्षा में टीचर ने मुझसे यह मनवाने के लिए ज़ोर डाला कि तुम्हारे पिताजी सिर पर टट्टी उठाते हैं इसलिए यह स्कॉलरशिप तुम्हें मिलता थी, जबकि यह योजना, ऐसे काम छोड़ने के लिए पुनर्वास के तौर पर थी।

भेदभाव का समाज में एहसास

बहुत पहले का एक किस्सा मुझे याद आता है। 1990-91 के आस-पास नैशनल चैनल दूरदर्शन पर अंबेडकर के जीवन पर आधारित धारावाहिक (नाटक) आता था, जिसमें उनका बचपन दिखाया गया कि कैसे उनके साथ जातिगत भेदभाव होता था। उसके बावजूद उनके संघर्ष ने उनको आगे बढ़ने में प्रेरणा का काम किया। उस वक्त गॉंव में एक या दो घर में टीवी था, हम भी उनके घर टीवी देखने जाते। गर्मी, सर्दी या मच्छर काटे, नीचे ज़मीन पर बैठकर देखना होता था। चारपाई पर नहीं बैठ सकते थे। कई बार घर का मालिक इधर-उधर होने पर उनकी कुर्सी और चारपाई पर बैठकर अच्छा लगता, क्योंकि वो प्रतिबंधित था। प्रतिबंध तोड़ने का अपना मज़ा था, काफी बाद में पता चला यह प्रतिबंध जातिगत भेदभाव का ही रूप है, जिसके बारे में अंबेडकर वाला नाटक था। फिर मैंने जाना छोड़ दिया।

दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के लिए शहर में रहने की योजना बनी। सुना था भेदभाव सिर्फ गॉंव में होता है शहरों में नहीं। यह विश्वास भी वहां जाकर टूट गया। अलग-अलग जाति के नाम पर रहने के लिए धर्मशालाएं हैं, आर्थिक और सामाजिक दर्ज़े के हिसाब से ये भिन्न थीं। वहां घुसना भी कई बार ऐसा लगता जैसे चारपाई पर बैठ गए हों, जो प्रतिबंधित है।

कुछ दिनों बाद परिवार भी शहर में आ गया। किराये पर मकान खोजने का काम अपने आप में जोखिम भरा था। कहीं भी जाओ सबसे पहले पूछा जाता, ‘किस जात के हो भाई?’  कोई विरला ही परिवार मिलता जो जाति नहीं पूछता या जाति से ज़्यादा किराये से मतलब रखता। कई जगह तो ऐसा भी हुआ कि जाति पूछे बगैर मकान दे दिया, जैसे ही घर की सफाई करके सामान रखना चाहा, मकान मालिक को जाति पता चल गई और सारी मेहनत बेकार। सामान वापिस उठाकर अब नया मकान ढूंढ़ो!

खैर, जैसे-तैसे आगे बढ़ें, कुछ आंदोलनों से जुड़ें, जो हर तरह के भेदभाव मिटाने की दिशा में साहित्य और रंगमंच के माध्यम से काम करते रहे, जिसका मुख्य काम दलित और महिला मुद्दों को साहित्य और कला के विभिन्न माध्यमों से समुदाय में ले जाना और दबे हुए मुद्दों पर संवाद करना, ना कि दबा रह कर वो ज्वालामुखी की तरह विभिन्न घटनाओं और त्रासदियों के रूप में आएं।

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