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जल, जंगल, ज़मीन के लिए लड़ने वाले आदिवासियों को हम नक्सली क्यों समझ लेते हैं

एक दिन मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर किसी राजनीतिक पार्टी के एक प्रवक्ता को ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा देते हुए सुना कि जो व्यक्ति देश की आस्था और संस्कृति की संवेदनाओं से प्रेरित होता है वही सच्चा ‘राष्ट्रवादी’ होता है। मुझे यह विचार सुनने में तो अच्छा लगा लेकिन कुछ प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा कोई एक समूह सुनिश्चित नहीं कर सकता। किसी के चिल्लाने भर से कोई ‘राष्ट्रवादी’ नहीं बन जाता। क्या भारत के सभी समुदाय अपनी संस्कृति और परम्पराओं से प्यार नहीं करते ? इन्हीं विविधताओं में एकता ने तो भारत को एक अनोखा देश बनाया है।

कुछ वर्षों से भारत में ‘राष्ट्रवाद’ की लहर फैली हुई है जबकि भारत का ‘आदिवासी समुदाय’ तो इसी भावना से हज़ारों वर्षों से अपनी सांस्कृतिक धरोहर के लिए संघर्ष करते रहे हैं और अभी भी लड़ रहे हैं। तो क्या भारत का आदिवासी समुदाय राष्ट्रवादी नहीं है ?  क्या उनकी अपनी जल, जंगल और ज़मीन से जुड़ी गहरी संवेदना नहीं है? इनकी विशेष सभ्यता और संस्कृति नहीं है ? आज़ादी के इन सत्तर वर्षों के बाद भी भारत के लोग ‘आदिवसियों’ और ‘नक्सली’  में विभेद क्यों नहीं कर पाए? क्या सभी मुस्लिम आतंकवादी होते हैं? या सभी हिन्दू कट्टरपंथी होते हैं? फिर आदिवासी समुदायों को ‘नक्सल’ या ‘माओवादी’ कहना आदिवासी का अपमान नहीं है तो और क्या है ?

कहते हैं ना कि “गेहूं के साथ-साथ घुन भी पिस जाता है “, अगर कोई ‘नक्सली संगठन’ कोई वारदात करता है तो पूरे देश में आदिवासियों को शक की नज़रों से देखा जाने लगता है। आखिर भारतीय समाज में भारत के सबसे प्राचीन और प्रथम समाज के लोगों के प्रति ऐसी मानसिकता क्यों है?  मैंने कई गैर- आदिवासियों को आदिवासी समाज  को सोशल मीडिया में गालियां देते देखा। सरकार भी मूल समस्या को ना देखकर निरीह सीधे-सादे आदिवासी ग्रामीणों के ऊपर कहर ढाती है! यह कैसा न्याय है? क्या आदिवासी समुदाय के लोग ‘माओवादी’ विचारधारा के लोग हैं क्या ? आदिवसियों की तुलना ‘नक्सलियों’ से करना कहां तक जायज़ है?  सीधे सादे आदिवासी युवाओं को कौन बहका रहा है ? कौन उसके हाथों में हथियार थमा रहा है ? आदिवासी समुदाय कभी भी हिंसक नहीं थे।

देश में आज़ादी से पूर्व साहूकारों द्वारा सताहट और अंग्रेजों की गलत नीतियों के कारण आदिवासियों ने अपने अस्तित्व यानी अपनी जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिए सीधी लड़ाई लड़ी थी। और आज भी वो अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए लड़ रहे है। जब भी कोई सरकार जल, जंगल और ज़मीन को लेकर कोई गलत नीतियां बनाती है तो सरकार को डर लगता है कि आदिवासी समुदाय विद्रोह ना कर दे , इसलिए उनके तीर धनुष को ज़ब्त करने की कोशिश की जाती है ? उनके जंगलों, पहाड़ों और धार्मिक स्थल पर कब्जा कर उद्योगपतियों को किसने दिया ? क्या वे अपनी सुरक्षा की आस भी ना करें? अगर आदिवासी समुदाय अपने जल, जंगल और ज़मीन की सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाये तो नक्सलवादी और माओवादी हो गए ?

वाह रे वाह  व्यवस्थापकों, क्या रणनीति बनाई है!  साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। नक्सली विकृत विचारधाराओं को आदिवासी समुदाय पर थोपने की कोशिश ना करें। आदिवासियों की अपनी अलग परम्परा , व्यवस्था और संस्कृति है पहले जाकर नजदीक से उन्हें देखे और चिंतन करें कि आज़ादी के इन सत्तर वर्षों के उपरान्त भारत की सरकार ने इनके साथ इंसाफ क्यों नहीं किया? फिर क्यों उन्हें ‘नक्सल’ कहकर गोली मारी जाती है ?

मैंने कई मैगज़ीन और अखबारों में  गलत मुठभेड़ में मारे गए छोटे-छोटे आदिवासी बच्चों की लाशें देखी है और आदिवासी ग्रामीण महिलाओं के क्षत विक्षक शव। क्या ऐसे होते हैं माओवादी? क्या इंसानियत इस देश में मर गया है क्या ? बंद करो इस प्रकार का खेल जो इंसानियत को शर्मसार करता है।

एक और घृणित खेल आदिवासी क्षेत्रो में वर्षों से चल रहा है और वह है धर्म का खेल। सब जानते हैं कि भारत के आदिवासी वर्णव्यवस्था से परे प्रकृति के आराधक है उन्हें किसी विशेष धर्म से जोड़ने की पूरी मुहीम चल रही आदिवासी क्षेत्रो में जिसे अब बंद किया जाना चाहिए।

भारत के वीर आदिवासियों को कभी भी उनके राष्ट्रभक्ति और उनके असीम देशप्रेम को दुनिया के सम्मुख उजागर नहीं किया गया। आज भारत में भगत सिंह, मंगल पांडे, चंद्रशेखर आज़ाद की बात सब करते हैं लेकिन बाबा तिल्का मांझी, बिरसा मुंडा, सिधू – कान्हू मुर्मू के बारे में आज की पीढ़ी कुछ नहीं जानते! सैकड़ों उदाहरण ऐसे हैं आदिवासी वीरों के जिन्होंने अपनी जान दी है इस देश के लिए। अपनी स्वतंत्रता के लिए सर्वप्रथम ‘आदिवासी नायकों’ ने बिगुल फूका था। भील, गौंड, मुंडा,संताल, उरांव, पहाड़िया, मीणा मैं किन-किन वीर आदिवासियों का उदाहरण दूँ। इतिहास भरा पड़ा है ऐसे वीरों के शहादत से लेकिन कभी गैर -आदिवासी समाज में उनकी चर्चा तक नहीं की गई। भारत की आज़ादी के उपरान्त किसी भी राजनितिक दल ने उन महान आदिवासी नायकों की महिमा तक नहीं की ! क्या वे सभी वीर ‘आदिवासी नायक’ अपने देश भारत से प्यार नहीं करते थे ?  फिर कुछ लोग किस संस्कृति की बात करते हैं?

विकास की प्रक्रिया हमेशा सरलता से जटिलता की ओर होती है, ना की जटिलता से सरलता की ओर ! हमारी प्राकृतिक भाषा मुंडा, खड़िया, संताली, गौंड और कुड़ुख भाषा की सरलता पूरा विश्व जानता है लेकिन कोई इस बात के लिए दावा कैसे कर सकता है कि भारत के अन्य भाषाओं की जननी जटिल भाषा ‘संस्कृत’ है। यह तो थोपने जैसे बात हुई। किसी देश को ‘राष्ट्र’ यानी NATION उसकी अपनी भाषा ही बना सकती है और आदिवासियों की भाषा एवं विशेष संस्कृति-परम्परा ही भारत को एक राष्ट्र यानी NATION बना सकता है।

‘वैदिक काल’ से पूर्व क्या भारत में सभ्यताएं विकसित नहीं थी? क्या यहां मूल लोग निवास नहीं करते थे? और क्या उन लोगों की कोई भाषा नहीं थी? या फिर वे लोग गूंगे थे जो सिर्फ इशारों से बात किया करते थे? फिर ये आदिवासी समुदाय, वैदिक सभ्यता से कैसे अछूते रह गये! आदिवासियों की भाषाओं का संस्कृत और अपभ्रंश भाषा परिवार से कोई सम्बंध नहीं है। भारत के हो , मुंडा , संताल , खड़ीया , गौंडवी , उरांव भाषाए क्या संस्कृत से उत्त्पन्न हुये है ? अगर नहीं तो फ़िर संस्कृत सभी भारतीय भाषा की जननी कैसे हुई? भारत के संविधान के ‘अनुसूची आठ’ मे संताली भाषा को 2003 मे शामिल किया गया। भारतीय मुद्रा मे अंकित 22 राष्ट्रीय भाषाओं मे आदिवासी भाषा संताली को शामिल किया गया है। वर्ष 1949 मे संताली भाषा और  लिपि “ओल चिकी” को पूरे मयूरभंज राज्य मे लागू किया जाना था। लेकिन आज़ादी के बाद भी मयूरभंज का संताल समुदाय अपनी भाषा और लिपि के सम्मान के लिये लिये संघर्ष कर रहा है।

क्या ही विडम्बना है आज अपने ही देश में आदिवासी समुदाय अपने पहचान के लिये निरंतर संघर्षरत है। इस बात से कोई भी राजनितिक दल हम आदिवासियों से किनारा नहीं कर सकते कि 1947 से हम आदिवासियों की परिभाषा देने का प्रयास करते आ रहे हैं लेकिन अभी तक हमारी पूर्ण परिभाषा नहीं दे पाये हैं। जब UN में पूछा गया कि क्या आदिवासी समुदाय भारत में पाये जाते हैं ? तो भारत के प्रतिनिधियों ने यह कह कर साफ इंकार कर दिया और कहा कि आदिवासी किसी ज़माने में रहा करते थे, वर्तमान में यहां जनजाति लोग रहते हैं जिसके मूलता में ही संदेह है!

क्या कमाल की तस्वीर बनाई है आपने भारत के आदिवासियों की! आज हमारे रंग-रूप कद-काठी, वेश- भूषा, भाषा संस्कृति कुछ जीवित रहते हुए भी आदिवासियों को अतीत (भूतकाल ) बना दिया। यहां तक कि आदिवासियों को उनके ही देश के संविधान से बाहर निकाल दिया और चंद समयकाल के लिये जनजाति बना दिया। भारत के पूरे अनुसूची पांच क्षेत्र की जनजाति अपने आपको ‘आदिवासी’ कहती है तो फिर इस शब्द से इतनी नफरत क्यों ?

यह बात सभी जानते हैं आदिवासी ही भारत के मूलवासी हैं। लेकिन वर्षों से आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन कुछ लोगों की मानसिकता कहें या उद्देश्य वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगे। समय-समय पर आदिवसियों को गिरिजन, जंगली, असभ्य, वनवासी वगैरह वगैरह तक कहा, लेकिन आदिवासी के नाम पर विश्व समुदायों के सामने इंकार किया जाता है क्या यह दोगलापन नहीं है? या फ़िर कुछ लोगों को अपने मूल होने की शंका होने लगी है।

ज़बरदस्ती आदिवासियों को ‘हिन्दू ‘ प्रमाणित करने की पूरी कोशिश जारी है जबकि दुनिया को पता है कि आदिवासी समुदाय ‘वर्ण’ और ‘धर्म’ से परे एक ऐसा समाज जहां सभी को समानता का अधिकार दिया जाता है कोई ऊंच नीच के किसी भी सिद्धान्तों  को नहीं मानते। अगर कोई आदिवासी समुदायों को हिन्दू मानते भी हैं तो आजतक यह ज्ञात क्यों नहीं हुआ कि आदिवासियों का वर्ण क्या था ? और किस श्रेणी में उन्हे रखा गया था ? आदिवासी- ब्राह्मण ! क्षत्रिय ! वेश्य! या शूद्र आदि वर्णों मे किस वर्ण मे शामिल किया था और यह बात आज तक क्यों छुपाकर रखा गया?

वोट बैंक की राजनीति और सत्ता के चक्कर में आदिवासियों को आर्थिक और शैक्षणिक प्रतिनिधित्व के लिये 15 % आरक्षण दस वर्षों के लिए दिया गया और कहा गया कि पहले शिक्षित हो जाएं फिर शासन करने की बात करें! लेकिन बड़ी चालाकी से हर बार आरक्षण बिल में संशोधन करके आरक्षण की अवधि बढ़ा दी जाती है ताकि आदिवासी अपने स्वशासन की बात ही ना कर सके। कुछ लोग इस देश में बात करते हैं ‘राष्ट्रवाद’ की और सहिष्णुता की ! आदिवासी समाज वर्षों से सब कुछ सहते आ रहा है।’सहिष्णुता’ का सबसे बड़ा उदाहरण तो आदिवासी समुदाय है। लेकिन हर चीज़ की अपनी सीमा होती है। अब आदिवासी समुदाय जागृत हो रहा है। आज़ादी के बाद से आदिवासियों के साथ खेले गये हर कूटनीति और राजनीति को समझ रहे हैं। जो मूल है उसे झूठ के आवरण में कब तक रखा जा सकता है ?

आदिवासी समुदाय ही इस देश के ‘मूल’ और ‘ओरिजिनल’ हैं यही कारण है कि आज तक आदिवासी संस्कृति और सभ्यताएं सड़ी नहीं, जो हाइब्रिड होते हैं वह जल्द सड़ जाते हैं।

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