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स्कूल

मेरे बचपन का साथी और बचपन का प्यार जिससे पहली बार मे जाने से डर लग लेकिन उसके बाद आदत हो गई उसकी , अब समझ आया मेरे इस प्यार के लिए मेरे घर वाले कुर्बानी दे रहे थे । स्कूल हरदम नखरे करता है रहा जैसे कि मेरी मेहबूबा हो गया और मैं भी उसकी हर ज़िद पूरी करता चला गया और पापा के पैसे से स्कूल की डिमांड पूरी करने लगा । कभी वो मुझे अपने तक लाने का खर्चा मांगे तो उसके लिए गाड़ी करली उस गाड़ी ने पापा का स्कूटर चीन लिया तब भी समझ नही आया स्कूल से अंधा प्यार जो था उसकी माँगो के लिए जिद करने लगा । स्कूल से उम्मीद नही थी वो मुझसे झूठ भी बोल सकता है क्योंकि वो मुझसे अपनी सफाई के नाम पर हर महीने 100रुपए लेता था लेकिन स्वच्छ भारत मे झाड़ू मुझसे ही लगवाता था ।

उससे मिलने के लिए उससे ही ड्रेस भी लेनी पड़ती थी जैसे मेहबूबा से मिलने पर बस उसकी बात सुननी पड़ती थी । वही ड्रेस बाहर से ले लो तो ऐसे गुस्सा होता था स्कूल जैसे मेहबूबा दूसरी लड़की से बात करने पर गुस्सा हो जाती है । वो मेरी ड्रेस को गौर से देखता था जैसे मेहबूबा शक होने पर फ़ोन चेक करने लगती है कुछ वैसे ही । किताबे तो स्कूल से ही लेनी है जैसे महबूबा को कपड़े सरोजनी से ही लेने होते है चाहे वो महंगे क्यों न हो । स्कूल को जैसे NCERT पसन्द नही वैसे ही महबूबा को पालिका के कपड़े नही पसन्द आते चाहे दोनों शेम हो ।

स्कूल को मैं मंदिर की तरह पवित्र समझता रहा लेकिन ये मंडी की तरह खून चूसने वाला निकला , इसने पापा की सारी ख्वाइश को चूस लिया

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