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मध्यप्रदेश की आदिवासी गुलिया बाई, जिसने अकेले लड़ी स्कूली बच्चों के हक की लड़ाई

कुछ बेहतर करने की चाहत हो तो एक व्यक्ति भी बदलाव की शुरुआत कर सकता है। मध्यप्रदेश, बैतूल ज़िले के शाहपुर ब्लॉक के गांव अडमाढ़ाना के गुलिया इवने की यह कहानी ऐसी ही बदलाव की तस्वीर पेश करती है। आदिवासी गुलिया बाई के प्रयासों से अडमाढ़ाना गांव के सैकड़ों बच्चों को बेहतर शिक्षा, पोषण और आहार मिलने लगा है।

गुलिया बैतूल ज़िले की शाहपुर विकासखंड मे अडमाढ़ाना में रहती हैं, उनकी उम्र 39 वर्ष है। उनके तीन बच्चें है, मोनिका कक्षा 10 में, पिंटू कक्षा 8 में व बंटी कक्षा 5 में पढ़ाई करता है। गुलिया अडमाढ़ाना की आदिवासी महिलाओं के बीच एक मिसाल है।

जिसने बच्चों की पढ़ाई, स्कूल की बेहतरी और सामाजिक बदलाव के लिए कई लड़ाईयां लड़ी हैं। आज वह शिक्षक और पालकों के बीच एक चर्चित नाम है। वर्तमान में वो एकलव्य मिडिल स्कूल शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र समिति सदस्य व माध्यमिक शाला समिति में सदस्य है।

उसने पहली लड़ाई अपने पति के साथ ही लड़ी जब बेटी मोनिका नौवीं कक्षा में फेल हो गयी और उनके पति ने बेटी को घर पर बैठने के लिये कह दिया। गुलिया ने कई दिनों तक अपने पति के गुस्से को झेला और अपने दम पर बेटी को फिर से स्कूल में प्रवेश दिलाया।

गुलिया के शब्दों में “अगर खेत में गेंहू लगाया और बारिश में खराब हो जाए तो क्या फिर नहीं लगाएंगे?” मैं मेरी बेटी को फिर से पढ़ाऊंगी। यही बात उसने अपने पति को समझाई। आज मोनिका कक्षा दसवीं में पढ़ाई कर रही है।

गांव की ग्राम सभा में जब भी गुलिया जाती थी तो उसके साथ कोई महिला नहीं होती थी। जब वो अपने साथ महिलाओं को लेकर ग्राम सभा में गयी तो कुछ लोगों ने उन पर ताना कसा “बाई हुन का यां पर क्या काम, जाओ यां से।” इस बात का जवाब गुलिया बाई ने ग्राम सभा में दिया “बाई हुन नहीं आयेगी तो मीटिंग भी नई होगी।” आज इस पहल का ही असर है कि ग्राम सभा में महिलाओं की सिर्फ उपस्थिति ही नहीं निर्णयों में भागीदारी भी बढ़ी है।

अडमाढ़ाना प्राथमिक शाला की शाला प्रबंधन समिति अध्यक्ष रहने के दौरान ही जब शाला में मिलने वाले खराब मध्याह्न भोजन की जानकारी गुलिया बाई को  मिली तो  वह 6-7 सहयोगी सदस्यों के साथ मध्याह्न भोजन की स्थिति देखने स्कूल गयी। वहां पर देखा कि बारिश का पानी किचन में चूल्हे तक बहकर आ गया था। आटा कल का गूंथा हुआ रखा था, नमक भी ढिगले वाला इस्तेमाल किया जा रहा था और मसालों के पैकेट में सीलन व गुठले पड़ गए थे।

गुलिया बाई ने मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता के बारे में रजिस्टर में अपनी आपत्ति दर्ज की, जनपद सदस्य और पंचायत के साथियों को बुलाकर स्थिति से अवगत कराया। पंचायत ने किचन से कीचड़ हटाने की बात कही पर यह तुरंत नहीं हो पा रहा था। इस पर गुलिया बाई ने पालकों से 10-10 रूपये चंदा लेकर ट्रेक्टर से मुरम बुलाई और पालकों के साथ श्रमदान करके व्यवस्था बनाई। एक टूटे हुए दरवाजे को सुधारा गया।

वह समूह जिसके पास मध्याह्न भोजन बनाने का काम था, उसने शिक्षक को जाकर कहा कि हमारी शिकायत जिसने की है उसका नाम बताओ हम उसे चमकायेंगे। जब शिक्षक ने यह बात गुलिया को  बतायी तो उसने कहा – “मैं घर जाकर उनसे मिलूं या वह घर आयेगा।” जब समूह वाले गुलिया से मिलने आएं तो गुलिया ने कहा, “यदि बच्चों के खाने की स्थिति नहीं सुधरी तो मैंने स्कूल में जो फोटो खींचे हैं उनके साथ मैं कलेक्टर से मिलने जाउंगी।” इस पर समूह के साथियों ने भोजन की गुणवत्ता सुधारने की बात मानी और अभी तक स्कूल में समूह ठीक खाना बना रहा है।

संस्था एकलव्य शाहपुर के निदेशक बताते हैं कि अडमाढ़ाना प्राइमरी स्कूल में बच्चों की संख्या ज्यादा और शिक्षक केवल 2 होने के कारण बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही थी। इस पर गुलिया बाई ने शाला प्रबंधन समिति में प्रस्ताव बनाया और ग्राम सभा में भी बात की गई, फिर बी.आर.सी.सी. से चर्चा की गयी। सामूहिक सहयोग से यह समस्या हल हुई और आज इस शाला में 5 शिक्षकों का स्टाफ है। वहीं अडमाढ़ाना की आंगनवाड़ी में भी बच्चों को  दिए जाने वाले पोषण आहार में गड़बड़ी आने पर पालकों ने गुलिया बाई को ही बुलाया।

पालकों के साथ गुलिया बाई ने जैसे ही इस मामले में बात करना शुरू किया, अगले दिन से ही बच्चों के नाश्ते व भोजन की व्यवस्था ठीक हो गयी।

जिसे समाज साक्षर या पढ़ा-लिखा कहता है वह गुलिया नहीं है, उसने अपना नाम लिखना भी अपनी बेटी की मदद से घर पर सीखा है। यही उसकी पढ़ाई है, पर सही मायनों में वह शिक्षित है, जागरूक है। समाज एक शिक्षित से जो अपेक्षा करता है, गुलिया इवने उसे और बेहतर तरीके से पूरा करती है।

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