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कार से नहीं नेता जी के दिमाग से करना होगा लाल बत्ती का कनेक्शन लूज़

चौंकाने वाले फैसले लेकर वाहवाही लूटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शगल है। हालांकि यह अच्छी बात है, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी यदि मजबूरी का प्रदर्शन करते हुए फैसले ना ले, तो उसकी किरकिरी होती है। प्रधानमंत्री जी का ताजा फैसला लाल बत्तियों को लेकर है। बड़े-बड़े हाकिमों से लेकर उनका हुकुम बजाने वाले बंदों की [envoke_twitter_link]गाड़ियों पर लगी लाल बत्तियों को 1 मई से पहले उतार देने का फरमान आ गया है।[/envoke_twitter_link]

जब सबसे बड़े हाकिम का फरमान है तो उसे लागू तो करना ही है। सो कुछ छोटे हाकिमों ने नाखून कटाकर शहादत पाने की मंशा के साथ आगे बढ़ने का खूब दिखावा करते हुए खुद ही अपनी गाड़ियों पर लगी लालबत्तियों को हटा लिया। फिर तो हाकिमों की लाइन लग गई। हर कोई अपनी गाड़ियों से लाल बत्ती को ऐसे उतार फैंक रहा है, मानो लालबत्तियां गुलामी की ऐसी जंजीरे थी जिसमें वह कभी बंधना ही नहीं चाहते थे लेकिन राष्ट्रधर्म के नाते उसे अपनी गाड़ी पर लगाकर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे थे। यह बत्तियां ऐसे हटाई जा रही हैं जैसे 1947 में यूनियन जैक हटाया गया होगा, फोटो खिचवाए जा रहे हैं। बड़ी तालियां प्रधानमंत्री जी के हिस्से में चली गई हैं। छोटी तालियां अपने हिस्से में लाने के लिए होड़ मची है।

[envoke_twitter_link]लाल बत्ती सामंती व्यवस्था का परिचायक थी।[/envoke_twitter_link] पुराने जमाने में जब राजा और मंत्री चलते थे तो उनसे पहले डुगडुगी लेकर संदेश वाहक चला करता था। राजा-मंत्रियों की गाड़ियों के रंग रूप और उनके घोड़े की शक्लें भी विशिष्ट होती थी। रथों पर लगे झंडे सवार की औकात बताती थी। उसकी एक छोटी बानगी हर साल 26 जनवरी को नई दिल्ली के राजपथ पर अभी भी देखने को मिलती है।

वक्त बदलता है, शासक बदलते हैं। [envoke_twitter_link]शासन का ढंग बदलता है और उसके साथ ही बदलता है आम जन से शासक वर्ग के अलग दिखने का तरीका।[/envoke_twitter_link] लालबत्तियां तो प्रतीक मात्र हैं। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने प्रभुत्व के नए प्रतीक खोजते रहता है, ताकि विशिष्टता और सबसे अग्रणी होने का दंभ झलकता रहे। 1 मई से इन लाल बत्तियों का अंत हो जाएगा लेकिन वह दंभ समाप्त हो जाएगा, इसकी कोई संभावना नहीं दिखती।

लाल बत्ती के बिना नेता अपनी पहचान के लिए एक्स-वाई-जेड श्रेणी के सुरक्षा का तामझाम पाल लेंगे। गाड़ियों पर लगने वाले बोर्ड का आकार शायद कुछ और बड़ा हो जाए और सायरन कुछ और ज़्यादा कानफोड़ू। सिर्फ नेता ही क्यों पुलिस, पत्रकार, वकील सभी तो अपनी गाड़ियों और स्वयं को सामान्य से खास बनाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। तभी तो कई बार हमारे बोल भी होते हैं- कि यदि ऐसा पत्रकारों के साथ हो सकता है, यदि ऐसा वकीलों के साथ हो सकता है तो आम लोगों की क्या हालत होती होगी? यानी सोच के स्तर पर पत्रकार,वकील,डॉक्टर, सरकारी कर्मचारी और लाट साहब सभी अपने को विशिष्ट बनाने में लगे रहते हैं।

प्रधानमंत्री जी का हुकुम है, न्यायपालिका का निर्देश भी। गाड़ियों पर लगी लालबत्तियां उतर ही जाएंगी। लेकिन जो लालबत्तियां नेताओं और लाट साहब और नव-सामंती प्रभुता वर्ग के लोगों के दिमाग में फ्लैश करती रहती हैं, वह बनी रहेंगी। उन्हें भी उतारने के लिए कुछ प्रयास हो तो क्या बात होती।

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