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“ये पब्लिक है ये कुछ नहीं जानती है”

Post Truth Era आ गया है, झूठ से आगे की दुनिया बन चुकी है। याद कीजिए 2014 के लोकसभा चुनाव। उस वक्त प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी लगातार अपने भाषणों में फैक्चुअल गलतियां करते जा रहे थे। और पढ़े-लिखे लिबरल-सेकुलर तबके में उनके झूठ का मज़ाक उड़ाया जा रहा था। लेकिन आम लोगों में उस झूठ को लेकर किसी तरह की असहजता नहीं थी। लोग बड़े ही आराम से उस झूठ को सच मान रहे थे। उस झूठ को व्हॉट्सएप, फेसबुक पर वायरल किया जा रहा था। हर रोज एक नया झूठ ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा था।

उस वक्त तक शायद ही किसी को अंदाज़ा हो कि नरेन्द्र मोदी अपने समय से आगे की राजनीतिक दौर में प्रवेश कर गए थे, वो दौर था झूठी राजनीति का दौर। उस वक्त शायद ही देश का बौद्धिक तबका यह समझ पाया कि ये झूठ एक बड़े से पब्लिक रिलेशन कैंपेन का हिस्सा है। लेकिन फिर हमने देखा यूके में ब्रेक्सिट हुआ, ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन से अलग होने के लिये कैंपेन चलाया गया, बहुत सारे झूठ बोले गए, गलत तथ्यों और आंकड़ों को पेश किया गया, नतीजा हमारे सामने है। कुछ इसी तरह का हुआ अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में। जब ट्रंप ने जानबूझकर झूठे बयान दिये, सोशल मीडिया पर अमरीका को लेकर खूब सारे गलत तथ्य पेश किये गए, नतीजा यहां भी झूठ बोलने वाले के पक्ष में रहा।

हालांकि, झूठ या प्रोपगेंडा की राजनीति नयी बात नहीं है। खुद, हिटलर के वक्त उसके प्रचार मंत्री पॉल जोसफ गोएबल्स ने कई सारे झूठ फैलाए थे और सफल रहा था। गोएबल्स कहा करता था, अगर एक झूठ को भी सौ बार बोला जायेगा तो वह सच मान लिया जाएगा। खुद लेफ्ट और राईट की सरकारें प्रोपगेंडा में शामिल रही हैं। शीत युद्ध के दौरान अमरीका ने कम्यूनिस्ट देशों और नेताओं के बारे में खूब झूठ फैलाने का काम किया। लेकिन बाद के दिनों में दुनिया भर की राजनीति में लिबरल और प्रगतिशील विचारों को जगह दी जाने लगी। भारत जैसे देश में तो बहुत बाद के दिनों तक मूल्यों की राजनीति को तरजीह दी जाती रही है। लेकिन आज रूस, चीन, अमरीका, ब्रिटेन, तुर्की, जापान, भारत जैसे देशों में post truth राजनीति की संस्कृति तेजी से बढ़ रही है। अब राजनीति में झूठ बोलने को बड़े ही सहजता से स्वीकार कर लिया गया है। post truth शब्द को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने 2016 का word of the year भी चुना है।

पूरी दुनिया की राजनीति बदल रही है। लोकतंत्र बदल रहा है। लोग वोट कर रहे हैं, सरकारें बदल रही हैं, लेकिन वो जिन मुद्दों पर वोट कर रहे हैं या जिन मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, वे मुद्दे उनके अपने मुद्दे नहीं हैं। कुछ प्रोफेशनल कम्यूनिकेशन फील्ड के एक्सपर्ट उन मुद्दों को तय कर रहे हैं। अपने देश के संदर्भ में ही देखें तो आप पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में लगातार हर महीने एक नये मुद्दे पर लोग मीडिया और सोशल मीडिया पर बहस कर रहे हैं। क्या ये मुद्दे जनता के रोज़मर्रा की जिन्दगी से जुड़े हैं? क्या आम लोगों की समस्याओं पर किसी तरह की बहस हो रही है? या फिर सारी बहस फर्जी तरीके से गढ़े गए मुद्दों पर की जा रही है?

ऐसे मुद्दे जिनका जनता की ज़िंदगियों से कोई वास्ता नहीं है। फर्जी राष्ट्रवाद, कहीं सेकुलरिज्म, कहीं गाय, कहीं दूसरों के जीने के तौर-तरीकों पर सवाल उठाना, देशविरोधी घोषित करना आदि। क्या वाकई में ये असल मुद्दे हैं, जिन पर देश में बहस की ज़रुरत है या फिर सबको शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बेसिक सुविधाओं का उपलब्ध नहीं होना बहस के केन्द्र में होना चाहिए। कितनी ऐसी प्राइम टाइम बहस हैं, जहां लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे जनहित के मुद्दों पर बहस हो रही है?

आज सरकार, मीडिया और यहां तक कि विपक्ष भी लगातार झूठ बोलने में व्यस्त है। वे पहले से स्थापित इतिहास को हर रोज़ बदलकर नया करने की कोशिश में हैं, गलत खबरों को फैला रहे हैं, झूठे तथ्यों को स्थापित किया जा रहा है। बकायदा इस बात की रणनीति बनायी जाती है कि जहां हर तीसरे रोज हिन्दू-मुस्लिम, राष्ट्रवाद, मंदिर-मस्जिद जैसी चीजों पर बहस हो और लोगों की समस्याओं, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, विस्थापन, बीमारी तथा तमाम अन्य असुविधाओं पर कोई बात-बहस न हो सके।

दूसरी तरफ असहमति की आवाज को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। सच पर मोनोपॉली स्थापित करने की कोशिश हो रही है। एक लाइन खींची जा रही है, जहां सरकार जो कहे उसे ही सच माना जाए बाकी सब साजिश। यहां तक कि मीडिया को भी टारगेट किया जा रहा है। जो मीडिया सरकार के खिलाफ है, उसकी साख को खत्म करने की साजिश चल रही है।

तकनीक के पंख पर चढ़ कर यह झूठा काल खूब उड़ रहा है। सरकारों को आज मीडिया के परंपरागत माध्यमों की ज़रूरत नहीं रह गयी है, उनके पास व्हॉट्सएप है, सस्ता नेट पैक है, वीडियो है, स्मार्टफोन है, वायरल और फॉरवर्डेड मेसेज है, जहां हर रोज नफरत फैलाई जा रही है, टनों झूठ बोला जा रहा है। अब सच के साथ खड़े होने वालों के लिये ये मुश्किल घड़ी है। मानवाधिकार, न्याय, समानता, संप्रुभता जैसी मानवीय मूल्यों के साथ खड़े लोगों के लिये यह झूठ का कारोबार एक बड़ी चुनौती है।

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