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किसान यूं ही बदहाल रहे तो विदेशों से मांगनी होगी अनाज की भीख

आज सोशल मीडिया के यूं प्रभावी होने के कई नुकसानों में से एक है कि आप किन्हीं मुद्दों से कितना भी आंख चुराएं, वो बेताल की तरह कन्धे पर सवार ही रहते हैं। न्यू मीडिया आपकी अवसरवादिता को, आपकी यथा सुविधा चयनित संवेदना को भी तार तार करता है और आपके चेहरे पर पुते रंग को भी लगातार बेरंग किये जाता है। इसलिए मुद्दा कोई भी हो, उसे उसके एकांगीपन में देखने की अपेक्षा घटनाओं की क्रमबद्धता के रुप में देखना अधिक तर्कसंगत है, अन्यथा की सूरत में आप पर ‘मायोपिक’ होने , दोमुंहे होने के आरोप लगेंगे ही।

यह भूमिका लिखने के पीछे जंतर मंतर पर तमिलनाडु से आये किसानों द्वारा किया गया विरोध प्रदर्शन है। और अपनी बदहाली को सामने रखने के उनके नायाब उपाय हैं जिस कारण उन्हें नजरंदाज कर पाना लगभग असम्भव हो चुका था। तमिलनाडु से आये इन किसानों के बचाव के लिए तमिलनाडु तथा केंद्र दोनों को पुरजोर कोशिशें करनी चाहिए थी, इसमें किसे दोराय हो सकती है। पर क्या हर घटना – ज्वलन्त मुद्दे को रफा-दफा करने के लिए जरूरी फौरी उपायों से आगे बढ़कर स्थायी समाधानों के विषय में सोचने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं? क्या हमें बतौर राष्ट्र दलीय आलोचना से ऊपर नहीं उठ कर देखना चाहिए?

अगर जरूरत स्थायी समाधान तलाशने की जान पड़ती है, तो समस्या को भी गहरे पैठ कर ही जानना होगा। असल में जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने वाले तमिल किसान सिर्फ ‘टिप ऑफ द आइसबर्ग’ ही हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश एक जमाने पहले से ही अपने किसानों की तरफ से आंखें मूंद चुका है। उनके साथ संस्थागत भेदभाव सरकार निरपेक्ष हैं जो WTO/IMF/World Bank की बहुप्रचारित नीतियों को ही रिफ्लेक्ट करता है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार 1995 से 2010 के बीच 2,56,913 किसानों ने इन नीतियों के कारण आत्महत्या की, जिसमें से तकरीबन दो तिहाई संख्या सिर्फ पांच राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से आती है। महाराष्ट्र 50,000 से ज्यादा आत्महत्याओं के साथ इस दुर्भाग्यपूर्ण सूची में प्रथम स्थान पर विराजमान है। NCRB का यह डेटा सिर्फ 1995 से है, उसके पहले वह अलग से किसानों की आत्महत्याओं को डेटाबद्ध नहीं करता था, अगर करता तो यह आंकड़ा 2,56,913 से कितना ऊपर होता यह अनुमानों का विषय है।

यहां मैं यह नहीं पूछूंगा कि उपरोक्त कालखण्ड में सरकार किस दल की थी इन प्रदेशों में या केंद्र में। क्योंकि यह मेरा सरोकार नहीं, मेरा सरोकार मेरे अन्नदाता से है जो हर सरकार, हर कालखण्ड में भूखा नंगा ही रहता आया है। खैर इन आंकड़ों से सम्बंधित एक और आयाम ध्यान देने योग्य है और वह है अलग-अलग रिपोर्ट्स में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या में एक बड़ा अंतर होने के बाबत।

द हिन्दू की एक रिपोर्ट के अनुसार 2005 में करीब 40 तरह के क्लॉज़ थे जिन पर खरा उतरने पर ही किसी किसान द्वारा की गयी आत्महत्या को सरकार बतौर ‘किसान आत्महत्या’ दर्ज करती थी, जिसमें से एक था जमीन पर नाम होना। यानी ज़्यादातर स्त्रियां, खेती-किसानी में लगे परिवार के लड़के और दूसरे लोग मुख्यतः दलित जिनकी जमीनों के पट्टों के बाबत तमाम केस चलते रहते हैं, सरकार द्वारा स्वीकृत पैमाने से बाहर हो गए। इस प्रकार अलग अलग सरकारों ने अपनी सुविधानुसार आंकड़े जारी करना जारी रखा।

यानी सिर्फ वर्तमान सरकार पर दोष थोपने से आपकी दलगत भक्ति भले संतुष्ट हो पर उसकी तार्किक परिणति शून्य ही रहनी है। किसानों के हालात सिर्फ आज ही इस दयनीय स्थिति में नहीं पहुंचे हैं, न ऐसा कुछ स्वतः या दैवीय कारणों से हुआ है। यह एक सुनियोजित प्रयास है किसानों से उनकी जमीन छुड़ाकर उन्हें इंडस्ट्रीज में मजदूर बनाने का “विकास” करने का।

आर्थिक उदारीकरण के युग का प्रारम्भ करने वाले अपने 1991 के ऐतेहासिक भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री ने कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ तो बताया पर जारी सौतेला व्यवहार ही रखा। जिसके पीछे तर्क वही काम कर रहा था कि भारतीय कृषि में ज़रूरत से ज़्यादा मानव श्रम लगा हुआ है जिसे शिफ्ट करने की ज़रूरत है। 1995 में WTO के आने के बाद, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की इन नीतियों को और बल मिला। जिसमें कृषि को बड़ी बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनियों के हवाले करने, ठेके पर खेती करवाने, कॉर्पोरेट फार्मिंग और किसानों की अधिशेष जमीनों को दूसरे “विकास” कार्यों में उपयोग करने की सुनियोजित योजनाएं शामिल हैं। नतीजतन कृषि पर झींक-झींक चवन्नियां खर्च की जाने लगीं।

11वें और 12वें पंच वर्षीय प्लान में कुल मिलाकर ढाई लाख करोड़ कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित किये गए जबकि इसी दरम्यान लगभग 35 लाख करोड़ से ज्यादा की टैक्स छूट इंडस्ट्रीज़ को दी गयी। जबकि अभी भी लगभग 50 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से रोजगार कृषि ही मुहैय्या करवाती है।

ज़ाहिर है कृषि की उपेक्षा लगातार की जा रही है जो अगर इसी तरह जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब 1965-66 तक जारी रहा ‘शिप टू माउथ’ का दौर फिर से लौटेगा जब भारत को दाने-दाने के लिए अमरीका और दूसरे देशों का मुंह देखना पड़ता था और जिसके बदले हमसे अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति को भी गिरवी रखने की अपेक्षा की जाती थी। किसानों की बढ़ती उपेक्षा हमें फिर से किसी अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन की दया का मोहताज बना सकता है जिसने भारत को होते खाद्यान्नों के एक्सपोर्ट पर रोक लगा दी थी। क्या बगैर जरूरत भर का अन्न उपजाए कोई भी देश आत्मनिर्भर और स्वतन्त्र रह सकता है? यह हमें समझने की ज़रूरत है।

ज़रूरत है राष्ट्र के वर्तमान तथा भविष्य को सुरक्षित कर सकने लायक किसानों और कृषि को प्राथमिकता बनाने की। कृषि के लिए जरूरी ढांचागत सुविधाओं, अनुसंधानों की। पर अफ़सोस कि हमें आदत है दोगला रवैय्या अपनाते हुए सुविधापरस्त आलोचना की, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की। ऐसे में शायद राष्ट्रहित में फौरी उपायों की अपेक्षा, आमूल परिवर्तन के लिए यथोचित दबाव बनाना हमारे लिए थोड़ा मुश्किल हो। तथापि उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं है, आखिर उसी पर तो दुनिया कायम है।

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