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बिहार के इस गांव से समझिए क्यों दम तोड़ रही है गावों में किसानी

सुबह से ही अपने गांव की बड़ी याद आ रही है, न जाने क्यों मन बार-बार वहीं जाकर अटक-सा गया है। ईटों को जोड़ कर बनी गांव की सड़क और हरे-भरे फसलों से लहलहाते बहियारों (खेतिहर जमीनों यानी कि जिस ज़मीन पर खेती की जाती है उनका बड़ा समूह) के नामकरण के बारे में सोच रहा हूं। अक्सर कोई भी गांव कई बहियारों के समूह से घिरे होते हैं, जिनमें किसानों की कृषि योग्य भूमि होती है।

मेरा गांव हरचंडी भी कई बहियारों से घिरा है। जिनमें चमटोली, मिलिक धमना, घोघर, बड़की बगीचा, घोराहा, डुमरी तर, बेलासी, हरचौरा, बदारी, कुशाहा, बरहमोतर आदि प्रमुख बहियार हैं। इनके अलावा भी कई छोटे-छोटे बहियार हैं। इन बहियारों का गांव से बड़ा ही करीबी रिश्ता है। सही मायने में गांव की पूरी GDP इन्हीं बहियारों पर टिकी है। इन नामों पर गौर करेंगे तो आप पायेंगे कि उनका रिश्ता किसी समुदाय या फिर समूह से रहा है, जैसे चमटोली गांव से बाहर का वह हिस्सा है, जहां कभी चमार जाति के लोग रहा करते थे। वे वहां से कहां गये, उनका क्या हुआ? इसकी कोई खोज-खबर नहीं है। इसी तरह एक नाम है डुमरी तर, दरअसल इस बहियार में डुमर (गूलर) का एक बड़ा-सा पेड़ है और तर यानी नीचे, इसलिए इस पूरे इलाके को डुमरी तर कहा जाता है।

सारे बहियारों के नाम की वजह तो मुझे याद भी नहीं। इसकी व्याख्या भवेश राम बड़ी अच्छी तरीके से किया करते थे। मेरी पुश्तैनी खेतों में काम करनेवाले भवेश राम, जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनसे बचपन से ही मेरी बहुत अच्छी बनती थी। मैं उन्हें भवेश काका कह कर बुलाया करता था। मैं जब भी बहियार जाता, तो वे बड़े मज़ेदार किस्से सुनाते थे। कमाल की बात है कि वे थे, तो बिल्कुल निरक्षर, लेकिन मेमरी पावर इतनी तगड़ी थी कि पढ़े-लिखे लोग भी उनके आगे पानी मांगते थे। उनकी हाइट कमोबेश सचिन तेंदुलकर की जितनी ही थी। उनके ज़्यादा बोलने की वजह लोग उन्हें छयरवा भी बुलाते थे, वैसे भी अपने देश में मज़दूरों को लोग आराम से मज़ाक का पात्र बना देते हैं, लेकिन सांप-बिच्छू के विष से लेकर भूत-योगिन झाड़ने की कला में भवेश राम को महारत हासिल थी।

मेरे गांव के इन बहियारों का परिसीमन भी अजीब तरीके से किया गया है। आप अगर गांव से रिश्ता रखते होंगे तो पता होगा कि बहियार में खेत का जो अड्डा (मेढ़) होता है, वह कश्मीर के लाइन ऑफ कंट्रोल से कम सेंसिटिव नहीं होता है। आये दिन इस मेढ़ की सीमा की वजह भाई-भाई में लड़ाई होती रहती है। मेरा खुद का परिवार इसका दंश झेल रहा है। खैर यह भी गांव की जीवंतता का एक हिस्सा है। मेरे गांव से सटे ये जितने भी बहियार हैं, ज़्यादातर भागलपुर जिले के अंतर्गत आते हैं, लेकिन मेरा गांव बांका ज़िला के अंदर आता है।

बांका की बात करें तो, यह बिहार के सबसे पिछड़े ज़िलों में से एक है, लेकिन मेरे क्षेत्र को धान के कटोरा के रूप में जाना जाता रहा है। अगर आप सेंटेड यानी खुशबूदार चावलों के शौकीन होंगे, तो ‘कतरनी’ का नाम आपने ज़रूर सुना होगा। जगदीशपुर की कतरनी के रूप में इसका चूड़ा और चावल पूरे देश में प्रसिद्ध है। खासतौर से कतरनी चूड़ा बहुत फेमस है, क्योंकि कतरनी का चूड़ा बासमती से भी ज़्यादा टेस्टी होता है। हालांकि, अब दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि किसान लगभग कतरनी की खेती छोड़ चुके हैं, क्योंकि कतरनी चावल उस तरह का ब्रांड नहीं बन पाया, जैसा ब्रांड बासमती है। छोटे किसान, जिनके पास कम खेत है, वे अब ज़्यादा-से-ज़्यादा हायब्रीड नस्ल के धानों की खेती करते हैं। क्योंकि उसकी उपज प्रति बीघा अधिक होती है। स्वाभाविक है कि आखिर में आपको मुनाफा कितना होता है, यही मायने रखता है।

मेरे पिता जब तक खुद से खेती करते रहे, तब तक कम-से-कम तीन बीघा ज़मीन कतरनी की खेती के लिए रिज़र्व रखते थे। सौदा नुकसान का था, लेकिन वे ऐसा इसलिए करते थे, ताकि देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे रिश्तेदारों तक शुद्ध कतरनी चूड़ा-चावल पहुंचाया जा सके। अब स्थिति अलग है। अब जगदीशपुर हाट (छोटा बाज़ार) में भी आपको शुद्ध कतरनी का चूड़ा मिल जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यानी आप समझ लीजिए कि ब्रांड कतरनी के नाम पर आपको शोभा, संभा, सुरभि आदि धान के चूड़ा से ही काम चलाना पड़ेगा।

मैं जब भी गांव के विकास के बारे में सोचता हूं, तो अक्सर उलझ जाता हूं। मेरे पिता ने अपने स्तर से गांव में कृषि को उद्योग बनाने की कई कोशिशें की, लेकिन बाज़ार से गांव की दूरी और रिमोट इलाका यानी सड़कों के खराब होने की वजह से बिचौलियों के हाथ मुनाफा गंवाना पड़ता था। अब सड़कें बेहतर हुई हैं, लेकिन हालात जस-के-तस हैं। हालांकि, कृषि के अलावा दूसरे उद्योगों के लिए यह जगह जन्नत है। मेरे अपने गांव में ढलवां लोहे से बनी चापानल (हैंडपंप) की तीन फैक्ट्री है और इन तीनों को मिला कर लगभग 200 से ज़्यादा लोगों को तीसों दिन का रोज़गार मिल जाता है। इस वजह से भी गांव में समृद्धि है, लेकिन यह एकतरफा अंदाज़ का विकास है। साथ ही गांव के विकास का शहरी मॉडल है। यह विकास प्रदूषणमुक्त और जैविक भी नहीं है।

मेरे हिसाब से गांव का विकास जैविक ही होना चाहिए। मौजूदा मोदी सरकार ने भी इस संबंध मे वादे तो कई किये, लेकिन अभी तक ज़मीन पर उतरता कुछ दिख नहीं रहा है। हालांकि, मोदी जी द्वारा 2022 के विजन की जो बात कही गयी है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। सिर्फ सरकार द्वारा सकारात्मक पहल की ज़रूरत है। अभी तक तो पूरे देश में सबसे ज़्यादा सरकारी उदासीनता गांवों को ही झेलनी पड़ती है।

गांव के विकसित होने की कल्पना में कुछ ही रोड़े नजर आते हैं। उसमें ज्यादातर बुनियादी चीज़ें ही प्रमुख हैं। यहां गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था आज भी नगण्य है, इस स्थिति में सुधार लाने के लिए पब्लिक लेवल पर भी जागरूकता की ज़रूरत है। आज भी लोग बेहतर स्वास्थ्य सुविधा से महरूम हैं, यानी अभी भी स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में मरीज़ की जान चली जाती है। युवाओं के पास स्किल और रोज़गार की कमी है। कुछ के पास स्किल है, तो पूंजी की कमी है। हालांकि, बैंक से लोन मुहैया करवाने के संदर्भ में सरकार कई दावे करती हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की बैंक लोन देने के मामले में बेहद पिछड़ी हुई है।

उदाहरण के तौर पर एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा। मेरे गांव से कई किशोर कमाने के उद्देश्य से पानीपत गये थे। वहां उन्होंने प्लास्टर ऑफ पेरिस का काम सीखा। उनमें से कुछ ठेकेदार बन गये तो कुछ बहुत अच्छे कारीगर। आज सिर्फ मेरे गांव में 50 से ज़्यादा प्लास्टर ऑफ पेरिस का काम करनेवाले कारीगर हैं। जब इनमें से कुछ युवाओं ने गांव में ही रह कर अपने स्किल को कंपनी का रूप देना चाहा तो न बैंक से मदद मिली और न ही सरकार से, अंत में वे फिर बड़े शहरों की ओर पलायन करके चले गये। अभी गांव में जो भी संपन्नता है, वह बाहर जा कर लोगों द्वारा कमाये गये पैसों की वजह से। गांव में हो रही खेती की GDP जीरो साइकिल में फंसी हुई है। साल भर खेती करके यदि कोई अपने मुनाफे का आकलन करे तो मामला मज़दूरी जैसा है यानी रोज़ कमाओ और रोज़ खाओ। यह सब अव्यवस्था का नतीजा है। ऐसा नहीं कि गांव में अवसर और संभावनाओं की कमी है, लेकिन कमी है उचित मदद की, सरकारी प्रोत्साहन की। हमें भी सोचना होगा कि आखिर कैसे विकसित होगा हमारा गांवों का यह देश।

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