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“प्रोग्रेसिव लोगों में पीरियड्स को लेकर दोहरा चरित्र दिखता है”

पिछले महीने मैं आम तौर पर मिलने जुलने के हिसाब से अपने ससुराल गई। मेरी सास एक धार्मिक महिला हैं, वे मेरे माथे पर पूजा का तिलक लगाने ही वाली थी कि अचानक से दबी आवाज़ में मुझसे पूछ लिया “तू साफ़ है ना?” जो भी महिलाएं इस लेख को पढ़ रही हैं, उन्हें ‘साफ़ होने’ का मतलब अच्छे से पता होगा।

पीरियड्स के दौरान भेदभाव

भारत में पीरियड्स एक ऐसा विषय है, जिस पर बात करने से बचा जाता है और उसे बिलकुल भी सामान्य रूप से नहीं देखा जाता। हमारे देश में पीरियड्स वाली महिला अछूत होती है। उसे रसोई में नहीं आने दिया जाता है, खाने के बर्तन अलग कर दिए जाते हैं और किसी भी स्थिति में वो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकती। कहीं-कहीं तो उसे सोने के लिए अलग कमरा दिया जाता है।

गलती से पीरियड्स किसी त्यौहार के वक्त आ जाए तो उसे आगे बढ़ाने के लिए दवा तक दी जाती है। कुछ घर अब प्रोग्रेसिव हो गए हैं और ऐसे तरीके वहां नहीं अपनाए जाते। लेकिन पीरियड्स में मंदिर जाने की इजाज़त वहां भी नहीं होती।

जो मेरी सास ने किया वो कोई अपवाद या हैरान करने वाली घटना नहीं थी। ये घटनाएं भारत में कहानी घर-घर की है। माहवारी यानी कि पीरियड्स हमारे समाज में वो मसला है जिसपर ना हम कोई नई बात करते हैं और ना ही करने की इजाज़त देते हैं।

पीरियड्स में महिलाओं का दमन करना

अपनी संस्कृति का ठसक दिखाने वाले देश पर ये एक क्रूर अट्टहास ही है कि एक मासिक शारीरिक प्रक्रिया को भी हमने महिलाओं के शरीर पर शासन और उनके दमन का हथियार बना लिया है।

पीरियड्स वाली महिला के लिए हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम तरह के विशेषण इस विषय पर हमारी सोच और नासमझी को बयां करने के लिए काफी है। ”उन दिनों” में गन्दी, दूषित और अपवित्र महिला पीरियड्स खत्म होते ही फिर से साफ-सुथरी, देवी बन जाती है।

हमारे यहां बच्चों से सेक्स और सेक्शुएलिटी पर खुलकर बात नहीं की जाती। पीरियड्स, गर्भावस्था, सेक्स और महिला व पुरुष के सेक्शुएल ओर्गन्स (जननांगों) पर चर्चा करना ‘गंदी बात’ मानी जाती है।

हमारे यहां बच्चों से सेक्स और सेक्शुएलिटी पर खुलकर बात नहीं की जाती। पीरियड्स, गर्भावस्था, सेक्स और महिला व पुरुष के सेक्शुएल ओर्गन्स (जननांगों) पर चर्चा करना ‘गंदी बात’ मानी जाती है। सेक्स-एजुकेशन हमारे शिक्षा व्यवस्था का वो चैप्टर है जिसे गोंद से चिपका दिया गया है।

मेरी जान-पहचान की शिक्षित महिलाएं भी पीरियड्स के दौरान खुद को अपवित्र महसूस करती हैं। मैंने ऐसी इंजीनियर, बायोटेक्नोलॉजिस्ट, मैनेजर, टीचर और (मुझे नहीं पता कि यह कैसे संभव है) पेशे से डॉक्टर महिलाओं को भी देखा है जो पीरियड्स को लेकर इस तरह की वाहियात सोच में यकीन रखती हैं।

शिक्षा भी मिथकों को तोड़ नहीं पा रही

शिक्षा भी पीरियड्स के मिथकों को नहीं तोड़ पार रही है ये बात बेहद ही दुखद है। भारत में महिलाओं के बीच पीरियड्स और प्रसव (चाइल्डबर्थ) की वैज्ञानिक प्रक्रिया की समझ की भी कमी नज़र आती है। इस वैज्ञानिक समझ के अभाव में वो इस रहस्यमय चीज़ को समझने के लिए पारंपरिक तरीकों और सोच का सहारा लेती हैं।

एक ऐसा समाज जो पीरियड्स को लेकर खुल के बात नहीं करता वो हज़ारों-लाखों युवा लड़कियों की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरे में डाल रहा है। यह एक गलत बर्ताव है कि किसी को स्वस्थ जीवन जीने के तरीकों की शिक्षा ना दी जाए। सिमोन दी बाउवार अपनी किताब द सेकंड सेक्स में लिखती हैं,

एक लैंगिक समानता रखने वाले समाज में, मासिक धर्म को एक महिला द्वारा वयस्क जीवन में प्रवेश करने के एक ख़ास तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए। महिला और पुरुष दोनों के ही शरीर की अलग-अलग जरूरतें होती हैं, जिन्हें पूरा किया जाना बेहद ज़रूरी है और इन्हें गलत तरीके से नहीं दिखाया जा सकता। पीरियड्स किशोरवय लड़कियों के मन में डर पैदा करता है, क्यूंकि वो उन्हें हीन भावना से ग्रसित करता है और टूटा हुआ होने का एहसास दिलाता है और इस तरह सबसे अलग-थलग हो जाने का एहसास उस युवा लड़की के ऊपर काफी भारी पड़ता है।

उस समाज के बारे में क्या कहा जा सकता है, जहाँ एक 13 साल की लड़की शरीर की एक ऐसी जैविक प्रक्रिया से गुज़र रही होती है, जिसके बारे में उसे कुछ पता नहीं होता।

एक ऐसी प्रक्रिया जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है, जिसे उसने नहीं चुना है, जिसके बारे में वह पूरी तरह से अंजान है और समाज उसे इसी प्रक्रिया के नाम पर अपवित्र करार दे देता है? उस समाज के बारे में क्या कहा जा सकता है जो उसकी पवित्रता की आदिम और कुंठित सोच से बुरी तरह चिपका हुआ है? चाहे इससे लाखों करोड़ों महिलाओं और लड़कियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित होता हो।

मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे काफी पहले पता चल गया कि हमारा समाज माहिला और पुरुष के लिए किस तरह से दोहरे मापदंड का इस्तेमाल करता है।

मैंने इन रिवाज़ों के खिलाफ उस वक्त बगावत की, जब ये मुझ पर थोपे जा रहे थे। मैं इस ज़िद पर अड़ी रही कि मेरे जननांग से निकलने वाले खून से किसी और को कोई मतलब नहीं होना चाहिये।

मैं उस वक़्त केवल 13 साल की थी जब मुझे नीचा दिखाने वाले इन रिवाजों के खिलाफ, मैंने आवाज उठाना शुरू किया। लेकिन ज़्यादातर महिलाएं इतनी किस्मत वाली नहीं हैं। वो बड़ी ही मासूमियत से तय बड़ों की हिदायतों को सर झुकाकर मान लेती हैं और खुद को अपवित्र मानते हुए अपना जीवन बिता देती हैं।

कितनी चतुर व्यवस्था है यह! अगर एक महिला खुद को नीचा मान ले तो वो खुद पर ही बंदिशे लगा लेगी। वो कभी इस व्यवस्था के खिलाफ नहीं जाएगी और इसे मानती रहेगी। ऐसी ही मान्यताओं की गठरी वो अपनी बेटियों के सर भी रखेंगी और ये कुचक्र चलता रहेगा।

मेरी आज की महिलाओं से गुज़रिश है, कि वो ऐसी किसी भी सोच पर विश्वास ना करें जो उन्हें एक महिला होने के कारण खुद को अपवित्र मानने के लिए मजबूर करती हो। मासिक धर्म एक महिला के वयस्क होने का प्रतीक है। यह प्रतीक है उसकी प्रजनन क्षमता का और एक नए जीवन को इस दुनिया में ला सकने की क्षमता का। इसका खुले दिमाग से स्वागत किया जाना चाहिए।

आइये, अब हमारी बेटियों को उनके शरीर को लेकर शर्मिन्दा होना ना सिखाएं। आइये उस व्यवस्था से खुद को आज़ाद करें जिसने हमें दर्द, डर और शर्मिंदगी के सिवाय कुछ नहीं दिया।

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हिन्दी अनुवाद – सिद्धार्थ भट्ट,अंग्रेज़ी में लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

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