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लाउडस्पीकर, मंदिर-मस्जिद और 19 साल

1998 की बात है, मैं दसवी में थी। नया नया पढ़ने का शौक लगा था। मेरा मतलब है कि आठवी तक तो मैं पढ़ाई में बिल्कुल निपट नालायक होती थी। आठवी से थोड़े हालात सुधरे और माँ बाबा की आशाएं भी। खैर! अब नंबर ठीक-ठाक आने लगे थे तो पढ़ाई में मन भी लगने लगा था पर शाम को जैसे ही पढ़ने बैठो तो पास के हनुमान मंदिर से ज़ोर ज़ोर से लाउडस्पीकर पर गुलशन कुमार की पिक्चरों के गानों की धुन पर अनुराधा पौंडवाल की आवाज़ में शिवभक्ति के गीत सुनाई देते..”हे भोले बाबा…ये क्या हो गया…” इस टाइप का कुछ।

जब परीक्षा सर पर आ गयी तो माँ और मैंने तय किया कि मंदिर के पुजारी को जाकर अनुरोध करेंगे कि बस परीक्षा खत्म होने तक लाउडस्पीकर न चलाये। पर जवाब में उनकी घृणित नज़रे मिली…” कि [envoke_twitter_link]हाय राम… इनको भगवान का नाम लेने से भी ऑब्जेक्शन है[/envoke_twitter_link]”

उमर हो चली है इसलिए ये तो याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा था पर उनकी वो नज़रे अभी तक याद है… इसके बाद हमने इस ज़बरदस्ती के भक्ति भाव की आदत डाल ली।

मिष्टी के जन्म के बाद जब मैं उसको लेके भिवाड़ी (राजस्थान) आयी तो बड़ा अच्छा लगा ये देखकर कि सोसाइटी में एक मंदिर है और सोने पे सुहागा…मंदिर ठीक हमारी बालकनी के नीचे था तो रोज़ आरती सुनाई देती थी। रोज़ शाम को खड़ताल और घंटियों के बीच 5 मिनट की आरती दिन भर की थकान मिटा देती थी। पर फिर शुरू हुआ रामायण और सुंदरकांड का पाठ, जो रात रात भर चलता। जगराते में गिन कर 5 लोग बैठे होते और लाउडस्पीकर फुल वॉल्यूम पर चलता…

तंग आकर एक दिन मंदिर के आसपास के ब्लॉक में रहनेवाले लोगो ने पुलिस में कंप्लेन करने की ठानी। 3-4 गाड़ियां भर कर पुरुष , औरते , बच्चे सब गए…पर जवाब मिला कि धार्मिक मामले में कुछ नहीं किया जा सकता।

[envoke_twitter_link]मैं मुसलमान नहीं हूँ। पर मुझे अज़ान की आवाज़ हमेशा सुकून देती है।[/envoke_twitter_link] चेन्नई की छत पर शाम को मंदिर की घंटियों के साथ जब एक रूहानी आवाज़ में ‘अल्लाह हु अकबर …’ सुनाई देता…तो लगता मानो आसमान से कोई रूह तक पहुंचने के लिए पुकार रहा है। पर मुझे फिल्मी गानों की धुन पर भजन या जगराते में लाउडस्पीकर पर रामायण पाठ से हमेशा दिक्कत रही।

1998 में जब पहली बार मैंने और माँ ने इस मुद्दे को उठाया था तो लगा था कि हम मामूली लोग हैं …हमारी कोई क्यों सुनेगा। और फिर वो ज़माना भी तो कुछ और था। पर आज 19 साल बाद…एक ज़माना गुज़रने के बाद… और किसी गैर मामूली नागरिक के इस मुद्दे को उठाने के बाद भी क्या बदल गया। जितनी घृणा उन पंडितो की नज़र में थी, उतनी ही घृणा आज ट्विटर पर है। बस प्लैटफार्म बदल गया है…सोच वहीं है!

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