आज सुबह जैसे ही अखबार उठाया, तो प्रसिद्ध गायक सोनू निगम के ट्वीट वाली खबर पढ़के ऐसा लगा, मानो उन्होंने मेरे मन की बात सुन ली हो। बाकियों का तो पता नहीं पर मैं उनकी बात से बिलकुल सहमत हूं। एक तरफ तो बड़े-बड़े स्वामी जी से लेकर मुल्ला-मौलवी तक सब यही कहते हैं कि ईश्वर हमारे अंदर बसा है, उसके लिए बाहर कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं। तो क्या उस ईश्वर के कान खराब हैं या उसे नॉर्मल आवाज नहीं सुनायी देती जो सुबह-सुबह ये मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे वाले इतनी तेज़ कानफाड़ू आवाज में लाउडस्पीकर बजाना चालू कर देते हैं।
ये कभी सोचते क्यूं नहीं कि किसी घर मे कोई मरीज होगा; कहीं कोई स्टूडेंट अपनी पढ़ाई कर रहा होगा या फिर देर रात तक पढ़ाई करने के बाद सोया होगा। या कहीं हम जैसे कुछ निशाचर प्राणी, जिनके लिए चार-पांच बजे का समय भोर नहीं, बल्कि आधी रात का समय होता है। वो थके-हारे अपने ऑफिस के कामों के बाद की बची-खुची ज़िंदगी जी कर आने वाले कल की बैचेनी में भी चैन की नींद तलाशते सो रहे होंगे।
अरे भई कोई तो समझाये इन्हें कि हमें उनकी तरह दिन-रात केवल राम-रहीम और वाहे गुरू को ही याद नहीं करना होता। क्लास में अलग-अलग सब्जेक्ट के टीचर्स द्वारा दिये गये अलग-अलग नोट्स, तरह-तरह के रूल्स-रेग्युलेशन, बॉस के साथ हुई मीटिंग्स में चर्चा होने वाली छोटी-छोटी बातों से लेकर, डॉक्टर की लिखी दवाईयों की प्रेस्क्रिप्शन जैसी तमाम तरह की चीज़ें याद रखनी होती हैं।
वैसे सोनू जी ने यह बात भी ठीक ही कही कि पैगंबर मुहम्मद साहब के जमाने में या श्रीराम जी के काल में रेडियो, टीवी या लाउडस्पीकर जैसे आविष्कार तो हुए नहीं थे। तो क्या उस समय के लोग सही समय पर पूजा-पाठ नहीं करते थे? पांच वक्त की नमाज नहीं पढ़ते थे? ऐसा तो है नहीं। फिर आज हमें इसकी ज़रूरत क्यों पड़ रही है? पूजा-पाठ करना या न करना और किसी धर्म में विश्वास रखना या उसके नियमों का पालन करना किसी भी इंसान का बेहद निजी फैसला है। इसके लिए किसी के साथ ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती।
हमारे संविधान ने भी धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। फिर लाउडस्पीकर बजा कर या तेज आवाज में चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को किसी धार्मिक क्रियाकलाप से जोड़ने की कोशिश एक तरह से उनके साथ ज़बरदस्ती ही तो है। वैसे भी आजकल देश में ईश्वर, अल्लाह, वाहे गुरू और जीसस-सबकी स्थिति ‘बेचारों’ वाली हो गयी है। उनके कहे शब्दों को कोई सुनता कहां है। आजकल बोलते तो उनके अनुयायी ही हैं और लोग सुन भी उन्हीं की रहे हैं, भले ही वे कुछ भी बोलें। चाहे उससे उन्माद ही क्यों न फैल जाये। कोई छोटी-सी घटना हुई नहीं, किसी ने हंसी-मजाक में ही कुछ कह क्यों न दिया या फिर किसी ने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए भी कोई सवाल क्यूं न पूछ दिया हो। बस खड़े हो गये ये तथाकथित धर्म के ठेकेदार भाला, बंदूक और तलवार लेकर, मानो ईश्वर या अल्लाह उनकी बपौती हो।
हमें यह समझने की ज़रूरत है कि ईश्वर हमारी आस्था का दूसरा नाम है, एक विश्वास है, प्रेम है और एक अटूट बंधन है। उसका कोई रूप नहीं, उसे तो केवल महसूस किया जा सकता हैं और इसके लिए किसी शब्द या लाउडस्पीकर के अनाउंसमेंट की ज़रूरत नहीं।