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हर अर्जुन को ज़रूरत होती है एक द्रोणाचार्य की

अर्जुन नाम ही अपने आप में असामान्यता, पराक्रम, वीरता और जिज्ञासा का प्रतीक है। अर्जुन, गुरु द्रोणाचार्य के शिष्य था जिन्होंने उसे तेजस्वी बालक अर्जुन से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन बनाया। यह कहानी भी एक एसे ही जिज्ञासु बालक अर्जुन की है।

पिछले 3-4 महीनों से हमारे कमरे के पास वाले प्लॉट पर मकान बनाने का काम चल रहा है। हर काम मजबूती से किया जा रहा है। इस बढ़ते और मजबूत होते मकान के पास एक ईंटो का अस्थायी झोपड़ा भी बनाया गया है, मकान बनाने वाले मजदूर इसी झोपड़े में रहते हैं। अब इसे इत्तेफाक कहें या बदकिस्मती कि जो दूसरों के लिए मकान बनाते हैं उनके पास खुद मकान नहीं होते।

इन्हीं मज़दूर परिवारों में एक लड़का है जिसका नाम है अर्जुन। उम्र करीब 10-12 साल; रंग, लम्बाई और उसकी जाति से कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मैं उसे कई दिनों से देख रहा था, वह लड़का भी अपने परिवार के साथ दिनभर यहीं कुछ न कुछ काम करता रहता है। कई बार मन में सवाल उठा कि यह लड़का स्कूल क्यूं नही जाता और कैसे लोग हैं ये जो बच्चो से काम करवाते हैं।

अर्जुन बहुत बार एक टक मेरी तरफ देखता रहता था, पर मैं नज़र हटा लेता जैसा कि सब करते हैं। मन होता था कि उसे बुलाऊं और उससे बात करूं कि वो स्कूल क्यों नहीं जाता और भी बहुत कुछ मगर हिम्मत नही कर पाता था। डरता था कि कहीं मकान मालिक को उस लड़के का घर में आना ठीक नही लगा तो? कहीं मेरे साथियों को कोई दिक्कत हुई तो?

फिर एक दिन मैं कॉलेज से आया तो वह मुझे वहीं सामने मिल गया, मैंने हर रोज़ की तरह उसे अनदेखा कर दिया तभी वह पीछे से बोला, “भैय्या, ‘क’ के लिये इंग्लिश में क्या लिखते हैं?” मैंने हैरानी से पीछे देखा, अर्जुन ने सवाल मुझसे ही किया था, उसने जिज्ञासा को हंसी में लपेटकर अपने होंठों पर चिपका रखा था। मैंने जवाब दिया और नाम वगैरह पूछकर वहां से निकल गया।

दूसरे दिन फिर उसने मुझे रोक लिया और कहा, “भैय्या आप मुझे ट्यूशन पढ़ा दो, मुझे इंग्लिश पढ़नी है, ABCD..आती है… आप तो 200 रुपये ले लेना।” उसकी इस बेबाकी के आगे मैं कुछ बोल नहीं पाया और सोचूंगा कह कर चल दिया।

अगले दिन फिर उसने मुझे रोक लिया इस बार उसके हाथ में एक कॉपी और एक पेन भी था। मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था कि इसका क्या करूं, उसकी लगन और इच्छा देखकर मुझे उसे मना करने का मन नही किया और मैंने उसे आने का बोल दिया। पहले दिन ही उसकी व्याकुलता, उसका तेज़, उसकी जिज्ञासा मुझे हैरान कर गयी। उस दिन कुछ इस तरह हुई उससे-

मैं- नाम क्या है तेरा?

अर्जुन- माय नेम अर्जुन (my name arjun), बाप का नाम तेजू है…

मैं- स्कूल गया है कभी ?

अर्जुन- नहीं सिर्फ ट्यूशन ही गया। जहां भी बाप का काम रहता है, उधर ही आस-पास किसी को बोल देता हूं। ‘my name arjun’ आयु दीदी ने सिखाया था, बहुत टाइम हो गया।

आयु दीदी सुनकर मेरे दिमाग में एक सुन्दर चेहरा उभर आया, पर मैंने उसे अर्जुन की कॉपी से ढक दिया। पहले दिन सिर्फ एसे ही कुछ जान-पहचान हुई और मैंने उसे अगले दिन का टाइम दे दिया। दूसरे दिन मेरे आने से पहले ही मेरे कमरे के बाहर अर्जुन खड़ा था, पर मैं उसके आस पास हाथ में किताब और पेन लिये खड़े 3 और बच्चों को देखकर चौंक गया। इस तरह मेरी ट्यूशन 400% पर डे के हिसाब से आगे बढ़ी।

अर्जुन बहुत ही बेबाकी से बोलता है, हर बच्चे की तरह। जैसे कि “भैय्या मेरा बाप मेरे को स्कूल नहीं भेजता, सब बोलते की मेरे में दिमाग नहीं है, भैय्या क्या मैं आगे पढ़ सकता हूं? मेरे में दिमाग है, आयु दीदी बोली थी। आज बाप से बोलकर पट्टी पहाड़ा मंगवाता हूं। भैय्या झाड़ू, पन्नी, मिट्टी, पत्थर, बाप, भाई, मकान, चद्दर, कचरा, गधा, पट्टी पहाड़ा को इंग्लिश में क्या कहते हैं?”

मुझे उससे बात करना, उसे जानना अच्छा लगता है… उन्हें कुछ देर रोज़ पढ़ा भी देता हूं। अभी सब ठीक चल रहा है, वाकई उस लड़के में बहुत काबिलियत है, बहुत जल्दी है उसे सबकुछ सीखने की, जैसे जानता हो कि उसकी पढ़ाई उसकी उम्र से पीछे रह गयी है।

कहानी कहने का उद्देश्य बस इतना है कि हम जब भी ऐसे किसी बच्चे को देखते हैं जो स्कूल नहीं जा पा रहा है, हम उनके पेरेंट्स को कोसने लगते हैं। हम कहते हैं कि कैसे लोग हैं, बच्चों को प्राथमिक शिक्षा भी नहीं दिलाते! अगर आप भी ऐसा कहते या सोचते हैं तो आप सभी से एक निवेदन है कि हमारा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि हम उनके पेरेंट्स को कोसने या समझाने की बजाय खुद ही आगे आएं और सिर्फ 1 घंटा ही देकर इन बच्चों को कम से कम प्राथमिक शिक्षा दें।

मैंने तो एक प्रण ले लिया है; आप भी कुछ सोचिये और हो सके तो करिए भी। यह हमारा फर्ज़ है कि कोई भी अर्जुन बगैर द्रोणाचार्य से मिले ही गुम न हो जाए।

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